विरासत: श्रीमती सरोजिनी नायडू
भारतवर्ष के अमृतमहोत्सव पर यह कहना कदाचित अतिशयोक्ति नहीं होगा कि हर वर्तमान की नींव इतिहास में ही रखी जाती है, विशेषकर कला, संस्कृति, विज्ञान की। कृषि के क्षेत्र से लेकर औद्योगिकीकरण, तकनीकीकरण से डिजिटाइजेशन, मानवाधिकार के क्षेत्र में स्त्री पुरुष को सामाजिक, मानसिक एवं व्यवसायिक क्षेत्र में समान अधिकार का कठिन लक्ष्य भारत ने एकजुट हो हासिल किया है और निरंतर नए आयाम हासिल कर रहा है। पर वे प्रयास जिन्हें भारत की गौरवपूर्ण यात्रा का मील का पत्थर कहें या इतिहास की विरासत और जिसने भारत को संपूर्ण जगत में एक अहम स्थान प्रदान किया है, स्त्री उत्थान की दिशा में की गई भगीरथ हैं। आज भारत की नारी रॉकेट बना रही है, हवाई जहाज उड़ा रही है, घर में रोटी बना रही है तो रेस्टोरेंट भी चला रही है। कला हो या विज्ञान, उनकी तालीम और जोश से कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं। और कहीं न कहीं इसकी नींव भारत के स्वतंत्रता संग्रामियों की स्वतंत्र मानसिकता और दूरदर्शिता में रखी गई होगी। एक तरफ तांतिय तोपे, चंद्रशेखर आजाद, सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह, महात्मा गांधी, सरदार पटेल और कई शीर्ष स्वतंत्रता सेनानी भारत में ओज भर रहे थे तो दूसरी तरफ रानी लक्ष्मी बाई, सरोजिनी नायडू, मैडम भीकाजी कामा, एनी बेसेंट, कस्तूरबा गांधी, कमला नेहरू, विजया लक्ष्मी पंडित, अरुणा आसिफ अली और कई नारी शक्तियां अपनी कर्मठता और एकनिष्ठता से एक आधुनिक भारत के निर्माण की नींव रख रहीं थीं। श्रीमति सरोजिनी नायडू ने अपनी कला को ही कर्म क्षेत्र बनाकर भारत की आजादी में ना सिर्फ अमूल्य योगदान दिया अपितु आने वाली पीढ़ियों के लिए भी मार्ग प्रशस्त किया। बालिकाओं और युवतियों में शिक्षा हेतु अलख जगाया तो पुरुषवादी समाज को इस दिशा में संवेदन शील होने की प्रेरणा दी।
सरोजिनी नायडू का जन्म १३ फरवरी १८७९ को भारत के हैदराबाद नगर में हुआ था। इनके पिता अघोरनाथ चट्टोपाध्याय एक नामी विद्वान थे जो निजाम कॉलेज के संस्थापक रसायनिक वैज्ञानिक थे। इनकी माँ, वरदा सुंदरी देवी, कवयित्री थीं और बांग्ला में लिखती थीं। बचपन से ही कुशाग्र-बुद्धि होने के कारण उन्होंने १२ वर्ष की अल्पायु में ही १२हवीं की परीक्षा अच्छे अंकों के साथ उत्तीर्ण की।उनके पिता उन्हें वैज्ञानिक बनाना चाहते थे किंतु उनकी रुचि कला के क्षेत्र में थी। १३ वर्ष की आयु में उन्होंने लेडी ऑफ दी लेक नामक कविता रची। हैदराबाद के निज़ाम के ट्रस्ट द्वारा प्रदान किए गए छात्र वृति से सरोजिनी नायडू को १८९५ में इंग्लैंड भेजा गया जहां उन्होंने पहले लंदन के किंग्स कॉलेज और बाद में कैम्ब्रिज के गिरटन कॉलेज में शिक्षा हासिल की।
पढ़ाई के साथ-साथ वे कविताएँ भी लिखती रहीं। गोल्डन थ्रैशोल्ड उनका पहला कविता संग्रह था। उनके दूसरे तथा तीसरे कविता संग्रह बर्ड ऑफ टाइम तथा ब्रोकन विंग ने उन्हें एक सुप्रसिद्ध कवयित्री बना दिया। उनके कविताओं में भाव, रंग, सुर और ताल के अनूठे समावेश से अभिभूत हो महात्मा गांधी जी ने उन्हें भारत कोकिल की पदवी से नवाजा।
१८९८ में भारत वापस आने के पश्चात वे श्री मुत्तयला गोविंदराजुलु नायडु जी की जीवन संगिनी बनी। उनके पांच बच्चे थे: जयसूर्य, पद्मजा, रणधीर, नीलावर और लीलामणि।
१९१४ में इंग्लैंड में वे पहली बार गाँधीजी से मिलीं और उनके विचारों से प्रभावित होकर देश के लिए समर्पित हो गयीं। सत्याग्रह हो या संगठन, एक कुशल सेनानायक की भाँति उन्होंने अपनी प्रतिभा का परिचय हर क्षेत्र में दिया। उन्होंने अनेक राष्ट्रीय आंदोलनों का नेतृत्व किया और जेल भी गयीं। अदम्य साहस का परिचय देते हुए वो एक धीर वीरांगना की भाँति गाँव-गाँव घूमकर देश-प्रेम का अलख जगाती और देशवासियों को उनके कर्तव्य की याद दिलाती। । वे बहुभाषाविद थी और क्षेत्रानुसार अपना भाषण अंग्रेजी, हिंदी, बंगला या गुजराती में देती थीं। उनके वक्तव्य जनता के हृदय को स्पंदित करते और देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए प्रेरित कर देते थे।
अपनी लोकप्रियता और प्रतिभा के कारण १९२५ में कानपुर में हुए कांग्रेस अधिवेशन की वे अध्यक्षा बनीं और १९३२ में भारत की प्रतिनिधि बनकर दक्षिण अफ्रीका भी गईं। भारत के स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद देश निर्माण हेतु अपना उत्तरदायित्व निभाते हुए वे उत्तरप्रदेश की पहली राज्यपाल बनीं। श्रीमती एनी बेसेन्ट की प्रिय मित्र, गाँधीजी की प्रिय शिष्या और देश की अहम स्वतंत्रता सेनानी एवं पथ प्रदर्शिका ने २ मार्च १९४९ को अपना पार्थिव शरीर त्यागा। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी और स्वतंत्र भारत के निर्माण की अहम लोकनायिका के सम्मान में १३ फरवरी १९६४ को भारत सरकार ने उनकी जयंती के अवसर पर १५ नए पैसे का एक डाकटिकट जारी किया।
देश यूं ही नहीं विकसित होता, सांस्कृतिक धरोहरों पर सभ्यताएं यूं ही नहीं पनपती और विरासतें यूं ही नहीं समृद्धि लाती हैं। कभी रक्त, कभी शब्द तो कभी स्वेद कणों से उन्हें सींचना पड़ता है और इस अलख को जलाए रखना होता है। श्रीमती सरोजिनी नायडू जी का जीवन इस तथ्य को परिलक्षित ही नहीं करता बल्कि हमें इसे आत्मसात् कर इस पथ पर अग्रसर रहने की प्रेरणा भी देता है। भारत की स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव पर इस महान लोकनायिका को शत शत नमन।
डॉ लीना झा
मुंबई, भारत