सांझ जिंदगी की

सांझ जिंदगी की

जिंदगी सतत परिवर्तनशील है। जन्म लेने से अंत तक, न जाने कितने अंजान रास्तों से चलते, फिसलते, ठोकरें खाते, संभलते हम निरंतर उस राह पर चलते रहते हैं, जिसकी मंजिल का हमें भी पता नहीं होता। जीवन की सांझ ढलने से पहले सोचा न था कि कभी ऐसा मोड़ आएगा, जो मुझे लेखन की ओर ले जाएगा। हां! बचपन से पढ़ाई लिखाई का जुनून रखने वाली नीलू कभी घर गृहस्थी की जिम्मेदारियों को निभाते निभाते अपने बरसों से दबे मनोभावों, सामाजिक विकृतियों के प्रति आक्रोश और रिश्तों की उलझनों की पीड़ा को व्यक्त करने के लिए कलम उठा पाएगी, यह सच में सपने में भी नहीं सोचा था । शायद किन्हीं उदास लम्हों में, किन्हीं गुम एहसासों ने दोबारा दस्तक दी दिल के उस दरवाजे पर, जहां मेरी खुद की ख्वाहिशें, मेरा खुद का अस्तित्व, किसी घुटन भरे बंद कमरे में किन्हीं परिस्थितियों और जिम्मेदारियों के बोझ तले दब कर दम तोड़ने की ओर अग्रसर था।

तीन भाई बहनों में से दूसरे नंबर पर थी मैं। डैडी का खुद का व्यवसाय था और मम्मी एक शिक्षित नर्स थी।स्कूली शिक्षा से ही सदैव प्रथम श्रेणी प्राप्त करने के दौरान बचपन संयुक्त परिवार में बहुत ही सादगी से व्यतीत किया मैंने।तब चाचा जी और उनका परिवार भी साथ ही रहते थे। ग्यारहवीं में पचहत्तर प्रतिशत अंक प्राप्त करने के बाद सरकारी कन्या महाविद्यालय में हिंदी आनर्ज़ और संस्कृत विषयों में स्नातक में दाखिला लिया। हिंदी आनर्ज़ में दोनों वर्ष विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त किया। कालेज में भी मेरा सरोकार सिर्फ कापियों किताबों तक ही रहा।

 

पर यहां पर जिंदगी एक अलग मोड़ ले रही थी मेरे लिए। हुआ यूं कि स्नातक के अंतिम वर्ष तक आते-आते डैडी ने मेरे लिए आए अपने दोस्त के बेटे के रिश्ते के लिए हां कर दी। उन दिनों आज की तरह बेटियां खुलकर अपने माता-पिता के सामने बात नहीं कर पातीं थी। बी.ए. अंतिम वर्ष की परीक्षा से पहले ही अठारह साल की उम्र पूरी करने से पंद्रह दिन पहले ही मेरी शादी हो गई। बेशक उसके बाद मैंने अपनी परीक्षा भी दी और पत्राचार के माध्यम से स्नातकोत्तर हिंदी में दो साल भी पूरे किए और प्रथम श्रेणी और पत्राचार में पंजाब विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान भी प्राप्त किया, पर इसी दौरान दो बच्चों की जिम्मेदारी मुझ पर आ पड़ी थी। उसके बाद पठन पाठन से नाता छूटता गया। पच्चीस वर्ष की आयु में जिस औरत पर तीन बच्चों की और संयुक्त परिवार की जिम्मेदारी पड़ी हो, उसका खुद के व्यक्तित्व का आलोप हो जाना हम गृहिणियों के लिए एक सामान्य सी बात है।

उसके बाद के बीस बाइस साल मैंने अपने बच्चों के पालन-पोषण और उनको समुचित शिक्षा दिलाने और उनके करियर की शुरुआत में उनका मार्गदर्शन करने में ही होम कर दिए। मेरे पास तब सिर्फ कभी कभार समाचार पत्र या पत्रिका वगैरह को देखने के अतिरिक्त ज्यादा खाली समय नहीं बचता था। अगर होता भी था, तो मैं बुनाई के अपने शौक को पूरा करने में लगी रहती थी।पर इस बीच जल्दी जल्दी मां बनने का खामियाजा भी भुगतना पड़ा मुझे बार बार अपने खराब होते स्वास्थ्य के रूप में, जिसमें रीढ़ की हड्डी में टी.बी. जैसी मुसीबत को भी दो साल तक झेलना पड़ा। परिवार में भी कुछ अपरिहार्य कारणों से मानसिक तनाव झेलना पड़ता रहा मुझे काफी सालों तक।

खैर, भगवान का लाख-लाख शुक्र है कि मेरे बच्चों ने हमेशा मेरी भावनाओं को समझा और पढ़ाई लिखाई या व्यवहार के मामले में मुझे कभी परेशान नहीं किया। बच्चे अब अपने जीवन में नई उड़ान भरने के लिए तैयार थे। उच्च शिक्षा के लिए दोनों बड़े बच्चे करन और नीतिका दिल्ली में थे, और छोटा बेटा अभिनव अपने क्रिकेट के जुनून और पढ़ाई में सामंजस्य बिठाने की कोशिश में लगा हुआ था। उन्हीं दिनों बेटी ने मुझे फेसबुक प्रोफाइल बनाकर दी। यह सन २०११ की बात है, पर कंप्यूटर का ज्ञान नहीं था मुझे। इसके भी तीन साल बाद जब बेटे ने मुझे एंड्रायड फोन लेकर दिया, तब मैंने फेसबुक चलाना सीखा और अपनी प्रोफाइल एक्टिव की।

यहीं से वह सुखद मोड़ मिला मेरे जीवन को, जब मैं बरसों से सुप्त अपने पाठन और लेखन के शौक की ओर मुड़ गई। शायद भगवान ने भी मेरे साथी उम्र के संघर्ष के बदले कुछ सुकून के पल मेरे नाम करने की इनायत मुझ पर की थी। पहले पहल तो सिर्फ रिश्तेदार जुड़े थे फेसबुक पर, जिनकी तस्वीरें और पिक्चर मैसेज देखकर टाइम पास करने लगी। फिर “एहसास” और “पाकीजा दिल ” जैसे शेरो शायरी के समूहों से जुड़ी, जहां मैंने भी अपनी कुछ टूटी फूटी पंक्तियां लिखनी शुरू कर दी।यह मात्र एक शुरुआत थी, पर आगे का सफर भी आसान नहीं था।

किसी का अंतर्मुखी और संवेदनशील होना उसकी कमजोरी ही नहीं, बल्कि सबसे बड़ा दुश्मन भी हो सकता है, यह मुझे और भी शिद्दत से महसूस होने लगा लेखन के शुरुआती दिनों में ही। फेसबुक पर कुछ लेखक मित्र भी जुड़ने लगे थे अब। कुछ साहित्यिक समूहों से भी जुड़ती चली गई। उन दिनों “मधुशाला” और “साहित्य सागर” जैसे कितने ही समूहों में लिखने और बहुत कुछ सीखने का अवसर भी मिला। दरअसल पिछले २५-२६ सालों से हिंदी साहित्य और लेखन से मेरा दूर दूर तक का कोई नाता नहीं रहा था। स्कूल कालेज में पढ़ा सारा किताबी ज्ञान कहीं ओझल सा हो गया था। अब एक शून्य से शुरुआत करनी थी मुझे, जिसके लिए बहुत मेहनत करनी थी मुझे। गज़ल, दोहा, मुक्तक, लघुकथा विधाओं को धीरे-धीरे समझा, पर स्वतंत्र लेखन और अतुकान्त कविता में ही अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने से शुरुआत की। इस बीच कुछ आभासी मित्रों ने अपनी पोस्ट पर लाइक्स और बड़े-बड़े कमेंट्स के लिए मुझे माध्यम बनाकर अपना स्वार्थ सिद्ध किया और खुद को प्रसिद्ध करने का एक माध्यम भी बनाया। पर धीरे-धीरे यह लाइक-कमेंटस का गेम मेरी समझ में आने लगा था। कुछ चेहरे बेनकाब हुए और मैंने उनसे दूरी भी बना ली।

कुछ साहित्यिक समूहों का भी कमोबेश यही हाल था। किसी नवागंतुक लेखक या लेखिका को प्रोत्साहित करने की बजाय एक दूसरे की टांग खींचने में लगे हुए थे स्थापित लेखक भी। एक दो साल में ही इनसे जी ऊबने लगा, तो धीरे-धीरे इनमें से कुछ समूहों से भी किनारा कर लिया। पर यहीं से कुछ अच्छे मित्र भी जुड़े , जिन्होंने बिना किसी स्वार्थ के निरंतर मुझे लिखने के लिए प्रोत्साहित भी किया और मार्गदर्शन भी। अब लगातार पिछले चार सालों से मैं लेखन के अपने शौक के चलते मानवीय संवेदनाओं और सामाजिक विकृतियों और समस्याओं पर गद्य और पद्य दोनों में ही अपनी रचनाओं को रूप देने का प्रयास करती रहती हूं। बीच कुछ पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित होने लगीं और कुछ सांझा संकलन में मेरी लघुकथाएं और कविताएं भी छपी, जिनमें से प्रमुख हैं:
संदल सुगंध, शब्द मुखर हैं, लम्हों से लफ्ज़ों तक , अल्फाज़ से एहसास तक (काव्य संग्रह),
लघुकथा कलश, सफर संवेदनाओं का,आसपास से गुजरते हुए समकालीन प्रेम विषयक लघुकथाएं, सहोदरी लघुकथा, लघुत्तम-महत्तम ( लघुकथा संग्रह )

इसके अतिरिक्त “शुभतारिका” पत्रिका में प्रकाशित मेरी कहानी “सात वचन” को २०१७ में तृतीय पुरस्कार मिला। “अस्तित्व” नाम से मेरा पृष्ठ भी चल रहा है फेसबुक पर। हां २०१८ से फिर संघर्ष का दौर जारी है। बेटी की शादी,पौत्री के जन्म के साथ साथ जहां फिर से व्यस्तता बढ़ गई, वहीं मम्मी के लगभग डेढ़ महीने बीमारी की वजह से अस्पताल रहने के बाद इस साल के शुरूआत में ही साथ छोड़ जाने की वजह से व्यथित मन से कलम उठाने का हौंसला डगमगाने लगा था। पर यह जीवन है, तो बाधाएं तो आती ही रहती हैं हर काम में, पर लेखन से दोबारा ताकत जुटा पाती हूं अब इन सबसे जूझने की। राष्ट्रीय महिला काव्य मंच से जुड़ने के बाद मंच पर भी अपनी प्रतिभा को प्रर्दशित करने से मेरे हौंसले बुलंद हुए हैं कि हां, घर परिवार तक सीमित रहने वाली एक साधारण गृहिणी भी अपनी पहचान बना सकती है। हालांकि अभी भी यह मंजिल नहीं है मेरी क्योंकि मेरे लिए मंजिल को प्राप्त कर लेना मतलब अपनी जिंदगी को सीमित कर लेना है। मैं तो वो सीमा बनना चाहती हूं आज भी, जो जीवन की इस ढलती सांझ में शुरू हुए अपने इस असीमित सफर पर बिना रुके चलते रहना चाहती है।

सीमा भाटिया
वरिष्ठ साहित्यकार
लुधियाना, पंजाब

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