ऐसी कोई रात कहाँ

ऐसी कोई रात कहाँ

ऐसी कोई रात कहाँ है, जिसकी कोख से सुबह ना निकले !

दुख का सीना चीर के सुख का सूरज तो हर हाल में निकले !

ऐसा कोई दर्द कहाँ है, जिससे कोई गीत ना निकले !

ऐसी कोई बात कहाँ है जिससे कोई बात ना निकले !

कहाँ कभी एक पल है ठहरा ?

कहाँ कभी यह मन है ठहरा ?

कहाँ कभी कोई लहर है ठहरी ?

कहाँ कभी कोई सहर है ठहरी ?

सब कुछ तो गतिमान यहाँ है, सुबह, दोपहर,शाम यहाँ है !

यह तो जीवन का मेला है, आज अगर दुख कल खेला है !!

मन में हो उम्मीद जीत की, राह नई फिर मिल जायेगी!

दुख की शाम ढ़लेगी और फिर धवल चांदनी छायेगी!!

मंजु श्रीवास्तव ‘मन’
वर्जीनिया, अमेरिका

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