हिंदी दिवस के जन्मदाता
गत वर्ष गृहस्वामिनी में मेरा एक संस्मरण प्रकाशित हुआ स्वर्गीय व्यौहार राजेंद्र सिंह से जुड़े , उनके साथ कुछ पल रेलवे प्लेटफॉर्म पर एक छोटी सी मुलाकात के रूप में ।
आज उनके ही पौत्र डॉ व्यौहार अनुपम सिन्हा , जो मेरी छोटी बुआ का मंझला बेटा काका जी( श्री राजेंद्र जी ) की धरोहर को संजोकर हमें वक्त वक्त की जानकारी दिया करता है।
उससे जुडी कई बातों के आधार पर हम हिंदी दिवस के शुभ अवसर पर कुछ बातें सांझा करने का सौभाग्य प्राप्त कर रही हूं।
14 सितम्बर 1900 ईस्वी (पञ्चांग-तिथि भाद्रपद शुक्लपक्ष षष्ठी विक्रम संवत्सर 1957) को हिंदी के पुरोधा व्यौहार राजेन्द्र सिन्हा का जन्म जबलपुर में हुआ था ।
स्वंतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करवाने हेतु काका कालेलकर, मैथिलीशरण गुप्त, हज़ारीप्रसाद द्विवेदी, सेठ गोविन्ददास, रविशंकर शुक्ल आदि के साथ मिलकर उन्होंने पुरज़ोर प्रयास किये, अहिंदी भाषी-प्रान्तों विशेषकर दक्षिण-भारत की यात्राएँ कीं | ऐसे ही प्रयासों के परिणामस्वरूप उनके 50-वें जन्मदिवस पर 14 सितम्बर 1949 को संविधान के अनुच्छेद 343(1) के अंतर्गत हिंदी को भारतीय-संघ की आधिकारिक (राष्ट्रीय) भाषा, और देवनागरी को आधिकारिक (राष्ट्रीय) लिपि की मान्यता मिल ही गई | पचासवें जन्मदिन पर उपहार स्वरुप यह शुभ-समाचार दिल्ली से सबसे पहले तत्कालीन सांसद सेठ गोविंद दास ने भेजा क्योंकि इस विशेष दिन को ही निर्णय लिए जाने के लिए उन्होंने प्रयास किये थे | वस्तुत: दिसम्बर 1948 और जनवरी 1949 के अपने भाषणों में पं. रविशंकर शुक्ल ने जबलपुर में पहली बार ये मांग उठाई थी जिसे सेठ गोविन्ददास ने पूरा किया ।
व्यौहार राजेन्द्र सिंहा हिंदी साहित्य सम्मलेन, नागरी प्रचारिणी सभा, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, हरिजन सेवक संघ, समाजशास्त्र परिषद, साहित्य संघ, कायस्थ महासभा आदि के अध्यक्ष-उपाध्यक्ष रहे | कार्यकारिणी सदस्य के रूप में उन्होंने त्रिपुरी अधिवेशन, रॉयल एशियाटिक सोसायटी, गांधी स्मारक निधि, युगनिर्माण योजना, भूदान यज्ञ मण्डल,थियोसोफिकल सोसायटी , प्रधानमंत्री बीससूत्रीय कार्यक्रम समिति, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, भारत कृषक समाज अदि में बहुमूल्य ऐतिहासिक योगदान दिया ।
अमेरिका के शिकागो में विश्व सर्वधर्म सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व कर हिंदी में ही उन्होंने अपना उद्बोधन दिया। साथ ही, अमेरिका और कनाडा के अपने सघन दौरों में हिन्दू और बौद्ध धर्मों की गहन मीमांसा व तात्विक विवेचना प्रस्तुत कर उपस्थित अंतर्राष्ट्रीय जनसमूहों को बहुत आकर्षित-प्रभावित किया ।
हिंदी के लगभग 100 से अधिक बौद्धिक ग्रंथों की रचना व्यौहार राजेंद्र सिंह ने की, जो सम्मानित-पुरस्कृत भी हुईं और कई विश्वविद्यालयों के स्नातक-स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में अनिवार्य रूप से संस्तुत-समाविष्ट भी की गईं । ‘गोस्वामी तुलसीदास की समन्वय साधना’ (1928), ‘त्रिपुरी का इतिहास’ (1939), ‘हिंदी गीता’ (1942), ‘आलोचना के सिद्धांत’ (1956), ‘हिंदी रामायण’ (1965), ‘सावित्री’ (1972) आदि ने विशेष प्रसिद्धि पाई |
संस्कृत, बांग्ला, मराठी, गुजराती, मलयालम, उर्दू, अंग्रेज़ी आदि पर भी उनका अच्छा अधिकार था – पर मातृभाषा तो राष्ट्रभाषा हिंदी ही थी | ‘साहित्य वाचस्पति’, ‘हिंदी भाषा भूषण’, ‘श्रेष्ठ आचार्य’ आदि कई अलंकरणों से विभूषित हुए ।इस प्रखर हिंदीवादी का देहावसान बुधवार 02 मार्च 1988 को ‘संस्कारधानी’ में हुआ ।
इनके अवतरण-दिवस को समूचा विश्व हिंदी की सेवा-स्थापना के सम्मान में हिंदीदिवस के रूप में मनाता है |
हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।
विनी भटनागर
नई दिल्ली,भारत