बर्फीले मौसम में हृदय की ऊष्णता
बात सन १९८६ की है। जनवरी का महीना था।अब तो बहुत वर्षों से इंग्लैंड में बर्फबारी हुई ही नहीं है। हफ्ते या दो हफ्ते हलकी फुलकी बर्फ गिरी भी तो दो चार दिन में गायब हो गयी।मौसम बदल गए हैं। नदियों के स्रोत पिघलने लगे हैं।इस बार इंग्लैंड में समर बादलों से ढका रहा। और भी न जाने क्या क्या प्राकृतिक बदलाव आये हैं।पशु पक्षी भी वैश्विक उष्णता के लपेटे में आये हैं।फलों और फूलों की कौन बिसात !
परन्तु सत्तर और अस्सी के दशक में ऐसा नहीं था।ओक्टोबर से ही बर्फ पड़ने लगती थी।पहले पहाड़ों पर स्कॉटलैंड में फिर नवंबर दिसंबर तक इंग्लैंड के दक्षिणी भागों में।उस वर्ष मेरा बेटा एक प्राइवेट स्कूल से ए लेवल का विशेष इम्तिहान देने वाला था।पर उसके एक दिन पहले रात को गहरी बर्फबारी हुई। सुबह घर की चौखट एक फुट ऊंचे तक बर्फ से ढंकी हुई थी। घर के बाहर अपनी गाड़ी के पहिये इसी तरह बर्फ में दबे हुए थे।सड़क पर बिछा बर्फ का गद्दा अभेद्य था। परिंदा भी पंख न मार सके ऐसी सर्दी।चारों ओर घटाटोप अन्धकार और लटकते बादल।बेटे मनु का इम्तिहान सुबह नौ बजे शुरू होना था।परीक्षार्थी वैसे ही बहुत घबराया हुआ होता है।फिर हमारा घर उसके स्कूल से सात मील दूर। मुख्य सड़क पर बजरी और शोरा सरकार की ओर से फिंकवाया जाता है। मगर रेडिओ पर समाचार निराशा का संचार कर रहे थे।बसों के लिए चालक ही नहीं थे।इतनी कठिन परिस्थितियों में उनके लिए समय से काम पर पहुँचना संभव ही नहीं हुआ।ट्रेन्स का भी यही किस्सा। उनकी पटरियों पर इतनी बर्फ थी कि उसको हटाने में घंटों क्या दिन निकल जाए। अतः ट्रेन्स सब ठप्प पडी थीं। फावड़ा लेकर सड़क की सफाई की जा रही थी। अतः हम लोग भी अपनी कार के आस पास बर्फ हटाने में जुट गए। आठ बज गया। पतिदेव ने गाड़ी स्टार्ट की मगर उसमे कोई हरकत नहीं हुई।पता चला ठण्ड से इंजन की बैटरी जम गयी थी। मुख्य सड़क पर बसें दिखीं। जान में जान आई।बच्चा जाकर बस स्टॉप पर इन्तजार करता रहा मगर बेकार।
बर्फ में पहनने वाले जूते भी उसके पास नहीं थे। अलबत्ता बर्फ में खेलने वाले स्पंज के मून बूट्स थे उनके बचपन के। सौभाग्य से वह उसके पैरों में आ गए।
हमने टैक्सी के लिए फोन किया तो भी कोई हल ना निकला।स्कूल से पूछा तो प्रधान अध्यापक ने कहा कि कार्यक्रम में कोई बदलाव नहीं हुआ है।बोर्ड का इम्तिहान है।पूरी सुरक्षा आदि का प्रश्न होता है।अधिकांश छात्र वहीं स्कूल के छात्रवास में रहनेवाले देश विदेश के थे अतः हाजिरी पूरी थी।कोई समाधान ,या विकल्प नहीं था हमारे पास।मनु ने पैदल स्कूल जाने का निश्चय किया और चल पड़ा।पैदल चलनेवाले लोगों को फुटपाथ पर चलना होता है।बहुत सी बजरी सड़क पर फेंकी गयी थी मगर फुटपाथ पर बर्फ सख्त जमी हुई थी।अपनी ओर से जल्दी जल्दी कदम बढ़ाते हुए वह चल रहा था। धूप में इंसान समय का अंदाज़ा लगा सकता है मगर धूप थी ही कहाँ।
मुख्य सड़क के बाद स्कूल की सड़क ऊंची चढ़ाई वाली थी। फिसलन भी थी क्योंकि मोटरों के धुएँ से फुटपाथ की बर्फ ढीली पड़ने लगी थी और कीचड़ बन गयी थी।अंत में जब मनु ने परीक्षा हॉल में प्रवेश किया तो पौन घंटा अधिक हो चुका था सभी विद्यार्थी मौजूद थे। उसको लगा जितना समय बचा है उतना ही सही।सर झुकाये हरेक से नज़रें चुराता थोड़ा स्थिर हुआ तो प्रधान अध्यापक ने ऐलान किया ,सो बच्चों मनु भी आ गया है।अचानक तालियां बजने लगीं। प्रधान अध्यापक जी ने परीक्षा शुरू करने का आदेश दिया और मनु को शाबाशी दी।
उसी के बाद फरवरी मॉस में मैं अपने लेक्चर में व्यस्त थी।गणित की कक्षा थी। मेरे विद्यार्थी भी सत्रह अठारह वर्ष की आयु के थे हालांकि वह हलके स्तर का गणित, अपनी योग्यता के अनुसार पढ़ते थे। अचानक कक्षा में मेरे स्कूल के प्राध्यापक आये और उच्च स्वर में बताया कि मेरा बेटा तीनो विषयों में ए स्टार लेकर पास हुआ है।कई मिनट लगे इस समाचार को आत्मसात करने में।बाद में स्टाफरूम में सबकी बधाइयां समेटने में आँखें भर आईं।मैंने उपकृत होकर सबको बताया कि किस तरह मनु के प्रधान अध्यापक ने उसका मान रखा था। और अकेले उसी के लिए डेढ़ सौ बच्चों ने इन्तज़ार किया।इस रिज़ल्ट के लिए मनु को स्कूल ने मोटी रकम ईनाम में दी।जिससे हमारा खर्च किया हुआ आधा पैसा वापिस आ गया ।और सो और , उसकी अध्यापिका को भी एक मोटी रकम पारितोषिक में दी गई।
मनु ने कभी मुड़कर नहीं देखा। सदा उच्चतम परीक्षाफल दिया।आजकल वह एक सफल डॉक्टर है। सन् २०२० में पिछले वर्ष उसकी बेटी भी उसी स्कूल में पढ़ने गयी तो स्कूल ने उसको स्कालरशिप दी। है न यह गर्व की बात ! इतनी विशालहृदयता !!इतनी सहृदयता !!!
हम अध्यापकों को भगवान से बड़ा मानते हैं , क्या ताज्जुब।उसकी बेटी के समय वही अध्यापक नहीं हैं मगर रिकौर्ड्स के आधार पर संस्था ने सम्मानित किया ।
कादम्बरी मेहरा
वरिष्ठ साहित्यकार
लंदन, ब्रिटेन