ओठंगनी

ओठंगनी
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शुद्ध घी से
भरी कड़ाही
आटे में गुड़ और घी का मोयन
निर्जला उपवास रखी
अम्मा के हाथों की
प्यार भरी थपकियों से बनी रोटी
और
कड़ाही में डालते ही
फैल जाती थी
खुशबू ओठंगन की
दादी ने बताया था
जितने बेटे होते हैं
बनते हैं उतने ही ओठंगन
चौखट पर खड़ी
हम बहनें ताकती रहती थीं
और अम्मा
कनखियों से
हमें देखा करती थीं
और इंतज़ार करती थीं
पापा के आने का
जो बनाते थे
अपनी बेटियों के लिए
ओठंगनी ।

जिउतिया पर्व
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अम्मा आज
बहुत खुश दिख रही है
लाल चुनरी और
लाल चूड़ियों की चमक
हमें भी अच्छी लग रही है।
पांवों में लगे
आलता के चटख रंग ही बता रहे
कुछ तो खास है
मड़ुआ के आटे की रोटी
सतपूतिया की तरकारी
अम्मा खाकर
हमें भी खिला रही
ममता के बड़े – बड़े कौर ।
फिर
अम्मा की आँखें
भर जाती हैं
पल्लू से आंखों की कोर पोंछकर
हमारे सिर पर हाथ फेरती है
और उसके होंठ हिलते हैं
और ईश्वर से मांग लेती है
दुनिया भर के आशीष
और
बटोर लेती है ताकत
निर्जला उपवास करने की
अपने बच्चों के लिए ।

सारिका भूषण
कवयित्री , लेखिका एवं लघुकथाकार
रांची , झारखंड

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