कन्या

कन्या

वृष्टि प्रथम बूँद सा निर्मल
मीन समान सुनयन सजल!

सृष्टि सृजित सुमन सुकर
नव कुसुमित रक्तिम अधर!

इह लौकिक पारलौकिक सुख
नृत्य नित्य करती सहज सगर !

कोर अवतरित यदा सुकन्या
हुई जननी संग कुटुम्ब धन्या!

नृत्यति सुरभित सकला मही
प्रभु तव नत शीश पितामही !

डॉ भारती झा

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