गणेश कौन हैं ?
तमाम काल्पनिक देवी-देवताओं और अंधविश्वासों के बीच भी हमारे पुराणों में ऐसी कुछ चीजें हैं जो अपनी दृष्टिसम्पन्नता और सरोकारों से चकित करती हैं। शिव और पार्वती के पुत्र गणेश पुराणों की ऐसी ही एक देन हैं। अपने पिता की तरह गणेश प्रकृति की शक्तियों के विराट रूपक है। उनका मस्तक हाथी का है। चूहे उनके वाहन हैं। बैल नंदी उनका गुरू। मोर और सांप उनके परिवार के सदस्य ! पर्वत उनका आवास है। वन उनका क्रीड़ा-स्थल। आकाश उनकी छत। गंगा के स्पर्श से पार्वती द्वारा गढ़ी गई उनकी आकृति में जान आई थी, इसीलिए उन्हें गांगेय कहा गया। गणेश के चार हाथों में से एक हाथ में जल का प्रतीक शंख, दूसरे में सौंदर्य का प्रतीक कमल, तीसरे में संगीत का प्रतीक वीणा और चौथे में शक्ति का प्रतीक परशु या त्रिशूल हैं। उनकी दो पत्नियां – रिद्धि और सिद्धि वस्तुतः देह में हवा के आने और जाने अर्थात प्राण और अपान की प्रतीक हैं जिनके बगैर कोई जीवन संभव नहीं।
गणेश और प्रकृति के एकात्म का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि उनकी पूजा महंगी पूजन-सामग्रियों से नहीं, प्रकृति में मौजूद इक्कीस पेड़-पौधों की पत्तियों से करने का प्रावधान है। हरी दूब गणेश को प्रिय है। जबतक इक्कीस दूबों की मौली उन्हें अर्पित नहीं की जाय, उनकी पूजा अधूरी मानी जाती है। शास्त्रों में उल्लेख है कि आम, पीपल , नीम के पत्तों वाली गणेश की मूर्ति घर के मुख्यद्वार पर लगाने से घर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।
हमारे पूर्वजों द्वारा गणेश के इस अद्भुत रूप की कल्पना संभवतः यह बताने के लिए की गई है कि प्रकृति की शक्तियों से सामंजस्य बिठाकर मनुष्य शक्ति, बुद्धि, कला, संगीत, सौंदर्य, भौतिक सुख और आध्यात्मिक ज्ञान सहित कोई भी उपलब्धि हासिल कर सकता है। यही कारण है कि संपति, समृद्धि, सौन्दर्य की देवी लक्ष्मी और ज्ञान, कला, संगीत की देवी सरस्वती कीपूजा गणेश के बिना अधूरी मानी जाती है।
होता यह है कि प्रतीकों को समझने की जगह हम प्रतीकों को ही आराध्य बना लेते हैं और वे तमाम चीज़ें विस्मृत हो जाती हैं जिनकी याद दिलाने के लिए वे प्रतीक गढ़े गए थे। गणेश के वास्तविक स्वरुप को भुलाने का असर प्रकृति के साथ हमारे रिश्तों पर पड़ा है। आज प्रकृति अपने अस्तित्व के सबसे बड़े संकट से रूबरू हैं और इस संकट में हम उसके साथ नहीं, उसके खिलाफ खड़े हैं। गणेश के अद्भुत स्वरुप को पाना है तो उसके लिए मंदिरों और मूर्तियों, मंत्रों और भजन-कीर्तन का कोई अर्थ नहीं। गणेश हम सबके भीतर हैं। प्रकृति, पर्यावरण और जीवन को सम्मान और संरक्षण देकर हम अपने भीतर के गणेश को कभी भी जगा सकते हैं !
मित्रों को गणेश चतुर्थी की शुभकामनाएं !
ध्रुव गुप्त
वरिष्ठ साहित्यकार
पटना, बिहार