विस्मृति के गर्भ से: रानी रासमणि
याद कीजिए उन्नीसवीं सदी के मध्य को। भारत का गौरव विदेशी शक्तियों द्वारा रौंदा जा चुका था। समाज गरीबी और जहालत में डूबा हुआ था। समाज तमाम कुरीतियों, अंधविश्वास में आकंठ डूबा हुआ था। वर्ग, जाति और लिंग का विभाजन बहुत स्पष्ट और क्रूर था। समाज पूरी तरह पुरुषसत्ता द्वारा शासित (अफ़सोस आज भी बहुत फ़र्क नहीं आया है), जाति द्वारा निर्धारित और उच्च वर्ग द्वारा संचालित था। जमींदारी प्रथा अपने चरम पर थी।
ऐसे में एक निम्न जाति की स्त्री सिर उठा कर जीती है, ब्रिटिश कंपनी से टक्कर लेती है और अपना पूरा जीवन तथा अपना धन समाज सेवा में लगा देती है। ऐसी स्त्री के प्रति श्रद्धा से सिर झुकना स्वाभाविक है। ऐसी स्त्री को जनता सम्मान देती है और जनता ने उसे सिर-आँखों पर बैठाया। इस स्त्री को जनता ने रानी और माँ का पद दिया। मैं बात कर रही हूँ रानी रासमणि की। आज देश अपना 75वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है इस शुभ अवसर पर गृहस्वामिनी इतिहास के पन्नों से कुछ ऐसे तथ्यों, घटनाओं, शहीदों और देश निर्माताओं को खोजने का शुभ प्रयास कर रही है जिनके कारण आज का भारत सबलता और स्वाभिमान से प्रगति की ओर अग्रसर है। लेकिन हममें से अधिकांश लोग उनके त्याग एवं बलिदान को भूल गए हैं। इसी संदर्भ में मैं स्मरण कर रही हूँ रानी रासमणि को। यह आलेख उनको मेरी श्रद्धांजलि स्वरूप है।
मैं रानी को स्मरण कर रही हूँ क्योंकि आज की हमारी प्रगति में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। उनके उदार अनुदान का प्रतिफ़ल है आज की नेशनल लाइब्रेरी (कोलकता) तथा एक समय का हिन्दु कॉलेज और आज का प्रसिद्ध प्रेसीडेंसी कॉलेज। जी हाँ, वही कॉलेज जो आज यूनिवर्सिटी है और जहाँ से भारत और बाँग्लादेश के तमाम प्रसिद्ध लोग पढ़ कर निकले हैं। वही प्रेसीडेंसी कॉलेज जहाँ भारत के आध्यात्मिक गुरु और विश्व को भारत का उच्चतम संदेश देने वाले स्वामी विवेकानंद, आंदोलन की अलख जगाने वाले सुभाषचंद्र बोस, प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, बंगाल के कई मुख्यमंत्री, देश के कई राज्यपाल, न्यायधीश, देश के प्रमुख उद्योगपति जैसे आर. के. गोयंका, बी. के. बिरला, पी. सी. राय, विश्व प्रसिद्ध सिने-निर्देशक सत्यजित राय (जिनकी शताब्दी हम इस वर्ष मना रहे हैं), प्रसिद्ध डॉक्टर बिधानचंद्र राय (वे मुख्यमंत्री भी थे), बंकिम चंद्र चटर्जी, जीवानानंद, शक्ति चट्टोपाध्याय, जसोधरा बाग्ची, नवनीता देव सेन, गायत्री चक्रवर्ती स्पिवाक जैसे प्रसिद्ध लेखक, अमृत्य सेन तथा अभिजित बैनर्जी दो-दो नोबेल पुरस्कृत अर्थशास्त्री शिक्षित हुए। भारत के विकास में इन लोगों के योगदान को भूला नहीं जा सकता है।
गुलाम भारत में 28 सितंबर 1793 को कोना गाँव (आज के नॉर्थ 24 परगना में) के हरेकृष्ण दास और रामप्रिया देवी के घर रासमणि का जन्म हुआ। सात साल की बच्ची को छोड़ कर माँ चल बसी। उन दिनों के रिवाज के मुताबिक ग्यारह साल की उम्र में रासमणि की शादी जानबाज़ार के जमींदार बाबू राजचंदर दास से कर दी गई। उम्र होने पर वे अपनी ससुराल आई। उनकी कई बेटियाँ हुई पर जल्द ही उनके पति की मृत्यु (1836) हो गई। एक तो स्त्री ऊपर से विधवा और धनी भी फ़िर क्या था परिवार के गिद्ध रासमणि की संपत्ति पर टूट पड़े। अगर वे कमजोर होतीं तो आज हम उन्हें स्मरण नहीं कर रहे होते। वे वैधव्य के हादसे से उबरीं और उन्होंने अपने छोटे दामाद, अपनी बेटी करुणामयी के पति माथुर बाबू के सहयोग से पारिवारिक कार्य व्यापार की बागडोर संभाली। जमींदारी प्रथा बहुत बुरी है पर सब जमींदार बुरे नहीं होते हैं। रासमणि इन्हीं भले जमींदारों में से थीं।
प्रबंधन में कुशल रासमणि का उदार हृदय अपनी प्रजा के साथ था। इसीलिए जब उन्होंने देखा कि अंग्रेजों के स्टीमर उनके मछुआरों के लिए मुसीबत बन रहे हैं, उनकी आजीविका खतरे में पड़ गई है। अंग्रेज अनावश्यक रूप से हुगली नदी को अपनी संपत्ति मान कर मछुआरों से कर वसूल रहे हैं तो उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी से टक्कर लेने में गुरेज नहीं किया। मशीन उद्योग शुरु से हस्त उद्योग नष्ट करते आए हैं। यहाँ भी वही हो रहा था। रासामणि ने अंग्रेजों के व्यापार मार्ग को नदी में लोहे की सांकल डाल कर बाधित कर दिया। वे तब तक डटी रहीं जब तक कि टैक्स समाप्त नहीं कर दिया गया। बंगाल में दुर्गा पूजा का बहुत महत्व है। यह धार्मिक-सांस्कृतिक उत्सव उनमें जनजीवन फ़ूँकता है। दुर्गा पूजा में शोभा यात्रा उसका एक प्रमुख अंग है। अंग्रेजों को उत्सवप्रियता खलती थी, वे इसे शोर-शराबा कह कर बंद करना चाहते थे। भला रासमणि – जिनके यहाँ यह कुल उत्सव था – इसे क्यों मानतीं। उन्होंने प्रभुओं के इस आदेश को मानने से इंकार कर दिया। अंतत: अंग्रेजों को अपना आदेश वापस लेना पड़ा। ऐसे दृढ़ निश्चय वाली रासमणि को जनता ने रानी पुकारना शुरु किया।
रानी रासमणि का हृदय जनता के लिए धड़कता था। वे उनके दु:ख-सुख में उनके साथ खड़ी होती। वे स्वशासी थीं जो उन्हें उचित लगता निर्भीक हो कर करतीं। अंग्रेजों के समक्ष डट कर खड़े होना उनके साहस और निर्भीकता को प्रकट करता है। न्यायप्रिय रानी को सामाजिक कार्यों में खास रूचि थी इसी का नतीजा था लाइब्रेरी और कॉलेज को अनुदान देना। उन्होंने स्वर्णरेखा नदी पर पुरी तक तीर्थयात्रियों के लिए सड़क का निर्माण करवाया। स्नानार्थियों की सुविधा के लिए नदी पर कई घाटों का निर्माण करवाया। बाबूघाट उन्होंने अपने पति की स्मृति में हुगली नदी पर बनवाया। इसके अलावा अहिरटोला घाट, नीमटोला घाट उनकी कीर्ति के कुछ और स्तंभ हैं। विनीत रासमणि के पास अकूत संपत्ति थी। एक सूत्र के अनुसार जब प्रिंस द्वाराकानाथ ठाकुर इंग्लैंड जा रहे थे तो उन्होंने यात्रा की रकम के लिए अपनी साउथ 24 परगना की जमींदारी का कुछ हिस्सा रानी के पास गिरवी रखा था। उस समय जमीन का यह हिस्सा सुंदरबन का हिस्सा था। जमीन दलदली ती, रहनवासी और खेती के लिए पूर्णरूपेण अनुपयुक्त थी। थोड़े से परिवार वहाँ रह रहे थे और ठगी करके अपना गुजर-बसर करते थे। वे दलदल को पार करने के लिए लंबे बाँस को अपनी टाँगों की तरह प्रयोग करते थे। रानी ने इन लोगॊ से असंपर्क किया और उन्हें मछली पालन प्रारंभ करने के लिए प्रोत्साहित किया। नतीजा लुटेरों का मछुआरा श्रमिक बनने में हुआ।
उदारमना समाजसेवी रानी रासमणि का जीवन आसान न था। वे स्त्री थीं, विधवा थीं, धनी जमींदार थीं तो क्या हुआ थीं तो वे चासी-कैवर्थ परिवार से यानि मध्यम-जाति की शूद्र। भारत में जाति का प्रारंभ व्यक्ति के गुण के आधार पर हुआ था जैसे आज एप्टिट्यूड के आधार पर पेशा चुनने की बात कही जाती है। ठीक वैसे ही भारत में व्यक्ति के गुण के आधार पर उसे काम करने की इजाजत थी जो कालांतर में रूढ़ हो कर जन्म से जुड़ गई और अयोग्य व्यक्ति भी किसी खास कुल में जन्म ले कर उस कार्य का दावा करने लगे। समाज भी जन्म कुल को जाति मान बैठा। सो रानी रासमणि निम्न कुल में जन्मी थीं भले ही कई उच्च कुल के लोगों से अधिक गुणवती, कुशल और बुद्धि संपन्न थीं। रासमणि का झुकाव आध्यात्म की ओर स्वभाविक रूप से था। उनके कुल में दुर्गापूजा होती थी जो आज भी जारी है। उनके यहाँ धूमधाम से पूजा होती और जात्रा का आयोजन भी होता था। रासमणि ने गंगा के किनारे दक्षिणेश्वर में काली मंदिर का निर्माण करवाया। पर हाय रे समाज! कोई ब्राह्मण उनके मंदिर में पूजा करने को राजी न था। इसी समाज में श्री रामकृष्ण जैसे संत हुए हैं। रामकृष्ण परमहंस ने समाज के किसी बंधन को नहीं स्वीकारा। उन्होंने सहर्ष रानी रासमणि के दक्षिणेश्वर स्थित काली मंदिर का कार्यभार उठा लिया। यह वही दक्षिणेश्वर अक काली मंदिर है जहाँ नरेंद्रनाथ दत्ता श्री रामकृष्ण के संसर्ग में आकर उनके द्वारा दीक्षित हो कर स्वामी विवेकानंद बने। और उन्होंने भारत का आध्यात्मिक संदेश विश्व को दिया। रानी और संत का आजन्म संबंध बना रहा।
जनता द्वारा रानी और माँ की संज्ञा से विभूषित रासमणि ने 19 फ़रवरी 1861 में इस संसार से विदा ली। आज उनके नाम पर स्थापित लोकमाता रानी रासमणि मिशन सुंदरबन इलाके के गरीब तथा कोलकाता के फ़ुटपाथ के लोगों के विकास कार्य करता है। डाक विभाग ने उनके नाम पर एक टिकट जारी किया है। जानबाज़ार, चौरंगी, दक्षिणेश्वर में उनके नाम पर सड़क हैं। इस प्रेरणादायक व्यक्तित्व पर फ़िल्म और टीवी सीरियल बने हैं। भारतीय तट रक्षक की एक गाड़ी को उनका नाम दिया गया है। रानी ने कई घाट का निर्माण करवाया, अब हुगली और बैरकपुर में नदी पर उनके नाम से घाट हैं।
बंगाल के बाहर रानी रासमणि को बहुत कम लोग जानते हैं। यह एक छोटा-सा प्रयास है उन्हें हिन्दी में परिचित कराने का। इसका श्रेय मेरे एक मित्र बिप्लव घोष को जाता है। उन्होंने कहा मैं रानी का परिचय हिन्दी समाज से कराऊँ और गृहस्वामिनी ने इसके लिए अवसर उपलब्ध कराया। दोनों को आभार! रानी-लोकमाता रासमणि को नमन! सबको 15 अगस्त, 75वें स्वतंत्रता दिवस तथा सुरक्षित व स्वस्थ रहने की शुभकामनाएँ!
डॉ. विजय शर्मा
वरिष्ठ साहित्यकार
जमशेदपुर ,झारखंड