श्रीकृष्ण सरल : शहीदों का चारण

श्रीकृष्ण सरल : शहीदों का चारण

श्रीकृष्ण सरल के नाम से बहुत से पाठक भले ही परिचित न हों, लेकिन स्वाधीनता संग्राम और क्रांतिकारियों में रुचि रखने वाला हर व्यक्ति उनके नाम से भली-भांति परिचित है।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, भगतसिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद, अशफाक़ उल्ला खाँ, राजगुरु और सुखदेव जैसे क्रांतिकारियों और शहीदों के अतिरिक्त आपने अनेक शहीदों पर शोधकार्य करके महाकाव्यों का सृजन किया। शहीदों पर जितना साहित्य सृजन ‘श्रीकृष्ण सरल’ ने किया उतना किसी अन्य ने नहीं किया। उन्होंने लेखन में कई विश्व कीर्तिमान स्थापित किए, सर्वाधिक क्रांति-लेखन और सर्वाधिक महाकाव्य लिखने का श्रेय सरलजी को ही जाता है।
1 जनवरी, 1919 को मध्य प्रदेश में जन्मे श्रीकृष्ण सरल स्वयं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे तथा अध्यापक के पद से सेवामुक्त होने के पश्चात आजीवन साहित्य-साधना में लगे रहे।
सर्वाधिक क्रांति-लेखन का सृजन करने वाले इस साहित्यकार को इनके जीवनकाल में ‘जीवित शहीद’ यूंही नहीं कहा गया था। महान क्रान्तिकारी पं॰ परमानन्द ने उनके बारे में कहा था, ‘सरल जीवित शहीद हैं।’
शहीदों पर शोध और प्रकाशन के लिए इन्होंने अपना घर और खेत तक बेच दिए थे। सरकार की ओर से कोई सहायता नहीं मिली लेकिन इन्होंने सब अपने बलबूते ही किया।
श्रीकृष्ण सरल ने राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन की प्रेरणा से महाकाव्य-लेखन आरंभ किया था।
राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन ने उन्हें एक बार कहा, “मैं तो आपको परामर्श देना चाहूँगा कि अब आप महाकाव्य-लेखन प्रारम्भ कर दें, क्योंकि आपकी लेखन-शैली प्रबन्धात्मक है और मेरा विश्वास है कि आप अच्छा महाकाव्य लिख सकेंगे।’’
जब ‘सरल’ जी ने ‘राजर्षि’ से पूछा कि महाकाव्य-लेखन के लिए किसी योग्य चरित-नायक का नाम भी बताएं तो राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन का उत्तर था, “किसी पौराणिक महापुरुष पर लिखने के स्थान पर आप किसी शहीद पर महाकाव्य लिखें। यदि आप ऐसा कर सके, तो एक प्रगतिशील विषय पर लिखने का श्रेय भी आपको मिलेगा और भारत की आजादी के सन्दर्भ में शहीदों का जो कर्ज हमारे राष्ट्र पर चढ़ा हुआ है, उसे उतारने का अवसर भी आपको मिलेगा।’’
सरल जी ने वार्तालाप आगे बढ़ाया, ‘‘जब इतनी कृपा की है तो किसी शहीद का नाम भी मुझे सुझा दीजिए, जो महाकाव्य-लेखन के लिए सब प्रकार से उपयुक्त हो।’’
‘‘मेरे मानस पर तो शहीद भगतसिंह छाया हुआ है। अपने क्रान्तिकारी-जीवन में वह दो बार मुझसे मिला था। मैं उसकी विनम्रता, अलौकिक प्रतिभा और संघर्ष-भावना का प्रशंसक रहा हूँ। उसकी आत्माहुति तो देश के लिए गर्व की बात है ही।’’ राजर्षि का उत्तर था।
यहीं से ‘सरल जी’ को महाकाव्य-लेखन की प्रेरणा मिली।
उनकी एकमात्र अभिलाषा शहीदों पर शोध और सृजन की थी, यथा कहते हैं—
”नहीं महाकवि और न कवि ही, लोगों द्वारा कहलाऊँ।
सरल शहीदों का चारण था, कहकर याद किया जाऊँ॥”

श्रीकृष्ण सरल 1962 में शहीद भगतसिंह की माता जी ‘श्रीमती विद्यावती’ के दर्शन करने पंजाब में उनके गाँव गए। भगतसिंह की माता जी ने सरल जी को ‘भगत सिंह महाकाव्य’ के लिए आशीर्वाद और शुभकामनाएँ दी।

भगतसिंह की माता जी से मिलने के पश्चात एक वर्ष से कुछ अधिक समय लगा और शहीद भगत सिंह पर महाकाव्य-लेखन पूर्ण हो गया। अब इसे प्रकाशित करवाने की बारी थी। सरलजी को आशा थी कि शहीदे आजम भगतसिंह पर लिखा गया महाकाव्य प्रकाशित कराने में कोई कठिनाई नहीं होगी। वे आशान्वित थे कि उसे प्रकाशित करने के लिए प्रकाशकों में होड़ लग जाएगी। ….लेकिन यह क्या? सरल जी महाकाव्य की पाण्डुलिपि लेकर दिल्ली के प्रकाशकों के चक्कर काटते रहे लेकिन किसी प्रकाशक ने रुचि नहीं दिखाई। वे अपने गृह-नगर उज्जैन लौट आए। वे सोचते, ‘जिस देश में शहीदों की यह कद्र है, उस देश का क्या होगा?’ अंततः स्वयं पुस्तक प्रकाशित करवाने की सोची। भगतसिंह की माता जी को वचन जो देकर आए थे कि शहीद भगतसिंह पर पुस्तक हर हाल में प्रकाशित करेंगे। यह पुस्तक प्रकाशित करने के लिए पत्नी के आभूषण बेचे, एक साहूकार से कर्ज भी लिया। पुस्तक प्रकाशित हुई। पुस्तक का विमोचन करने माता विद्यावती अस्वस्थ होते हुए भी, पंजाब से मध्य प्रदेश आई। यहीं एक ऐतिहासिक घटना घटी। अचानक माता विद्यावती भावुक हो गईं, उन्होंने सरलजी को कहा, “तुम्हें पहले चन्द्रशेखर आज़ाद पर ग्रन्थ लिखना चाहिए था, क्योंकि भगतसिंह से पहले वह शहीद हुआ था।“ चन्द्रशेखर आज़ाद पर ग्रन्थ लिखने के आश्वासन पर ही माता विद्यावती सहज हुई। अगला महाकाव्य चन्द्रशेखर आज़ाद पर ही लिखा गया। आज़ाद पर उनकी रचना के तेवर देखिए–

चन्द्रशेखर नाम, सूरज का प्रखर उत्ताप हूँ मैं,
फूटते ज्वाला-मुखी-सा, क्रांति का उद्घोष हूँ मैं।
कोश जख्मों का, लगे इतिहास के जो वक्ष पर है,
चीखते प्रतिरोध का जलता हुआ आक्रोश हूँ मैं।
विवश अधरों पर सुलगता गीत हूँ विद्रोह का मैं,
नाश के मन पर नशे जैसा चढ़ा उन्माद हूँ मैं।
मैं गुलामी का कफ़न, उजला सपन स्वाधीनता का,
नाम से आजाद, हर संकल्प से फौलाद हूँ मैं।
श्रीक़ृष्ण सरल क्रांतिकारियों पर लिखने लगे तो फिर उनकी क़लम ने विराम नहीं लिया।
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के बलिदान पर श्रीक़ृष्ण लिखते हैं तो मानो वे दृश्य जीवंत हो उठते हैं—
“हाँ सचमुच ही तैयारी यह, आज कूच की बेला
माँ के तीन लाल जाएँगे, भगत न एक अकेला
मातृभूमि पर अर्पित होंगे, तीन फूल ये पावन,
यह उनका त्योहार सुहावन, यह दिन उन्हें सुहावन।
फाँसी की कोठरी बनी अब इन्हें रंगशाला है
झूम झूम सहगान हो रहा, मन क्या मतवाला है।
भगत गा रहा आज चले हम पहन वसंती चोला
जिसे पहन कर वीर शिवा ने माँ का बंधन खोला।
झन-झन-झन बज रहीं बेड़ियाँ, ताल दे रहीं स्वर में
झूम रहे सुखदेव राजगुरु भी हैं आज लहर में।
नाच-नाच उठते ऊपर दोनों हाथ उठाकर,
स्वर में ताल मिलाते, पैरों की बेड़ी खनकाकर।“


श्रीक़ृष्ण सरल का ‘क्रांतिकारी कोश’ 5 खंडों में प्रकाशित है। उनका मानना था कि भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन 1757 से माना जाना चाहिए और हमारी स्वाधीनता का इतिहास भी 1947 तक नहीं बल्कि 1961 तक माना जाना चाहिए, वे लिखते हैं, “क्रांतिकारी आंदोलन का समय सामान्यतः लोगों ने सन् 1857 से 1942 तक माना है। मेरा विनम्र मत है कि इसका समय सन् 1757 अर्थात् प्लासी के युद्ध से सन् 1961 अर्थात् गोवा मुक्ति तक मानना चाहिए। सन् 1961 में गोवा मुक्ति के साथ ही भारतवर्ष पूर्ण रूप से स्वाधीन हो सका है।“
उनका मानना था, “जिस प्रकार एक विशाल नदी अपने उद्गम स्थान से निकलकर अपने गंतव्य अर्थात् सागर मिलन तक अबाध रूप से बहती जाती है और बीच-बीच में उसमें अन्य छोटी-छोटी धाराएँ भी मिलती रहती हैं, उसी प्रकार हमारी मुक्ति गंगा का प्रवाह भी सन् 1757 से सन् 1961 तक अजस्र रहा है और उसमें मुक्ति यत्न की अन्य धाराएँ भी मिलती रही हैं।“
सुप्रसिद्ध साहित्यकार पं॰ बनारसीदास चतुर्वेदी ने कहा- ‘भारतीय शहीदों का समुचित श्राद्ध श्री सरल ने किया है।’
सरल यथार्थवादी थे। कर्म में विश्वास रखते थे, कहते हैं–

“कहो नहीं करके दिखलाओ
उपदेशों से काम न होगा
जो उपदिष्ट वही अपनाओ
कहो नहीं, करके दिखलाओ।
अंधकार है! अंधकार है!
क्या होगा कहते रहने से,
दूर न होगा अंधकार वह
निष्क्रिय रहने से सहने से
अंधकार यदि दूर भगाना
कहो नहीं तुम दीप जलाओ
कहो नहीं, करके दिखलाओ।“
सरल ने व्यक्तिगत प्रयत्नों से 15 महाकाव्यों सहित 124 ग्रन्थ लिखे उनका प्रकाशन करवाया।
जीवन के उत्तरार्ध में सरल जी आध्यात्मिक चिन्तन से प्रभावित होकर तीन महाकाव्य लिखे— तुलसी मानस, सरल रामायण एवं सीतायन।

पाँच बार सरल जी को हृदयाघात हुआ पर उनकी कलम जीवन की अन्तिम साँस तक नहीं रुकी। 2 सितम्बर 2000 को यह ‘जीवित शहीद’ अपने चहेते शहीदों से मिलने परलोक की यात्रा पर चल दिया।
श्रीकृष्ण सरल के इस गीत ‘मैं अमर शहीदों का चारण, उनके यश गाया करता हूँ’, ने तो उन्हें अमर कर दिया–
“मैं अमर शहीदों का चारण, उनके यश गाया करता हूँ
जो कर्ज राष्ट्र ने खाया है, मैं उसे ‘चुकाया करता हूँ।

यह सच है, याद शहीदों की, हम लोगों ने दफनाई है।
यह सच है, उनकी लाशों पर चलकर आजादी आई है।
यह सच है, हिन्दुस्तान आज जिन्दा उनकी कुर्बानी से,
यह सच अपना मस्तक ऊँचा उनकी बलिदान कहानी से।

वे अगर न होते, तो भारत मुर्दों का देश कहा जाता
जीवन ऐसा बोझा होता, जो हमसे नहीं सहा जाता।
यह सच है, दाग गुलामी के उनके लोहू से धोए हैं,
हम लोग बीज बोते, उनने धरती में मस्तक बोए हैं।

इस पीढ़ी में, उस पीढ़ी के, मैं भाव जगाया करता हूँ।
मैं अमर शहीदों का चारण, उनके यश गाया करता हूँ

यह सच, उनके जीवन में भी रंगीन बहारें आई थीं;
जीवन की स्वप्निल निधियाँ भी उनने जीवन में पाई थीं।
पर, माँ के आँसू लख उनने सब सरस फुहारें लौटा दीं,
काँटों के पथ का वरण किया, रंगीन बहारे लौटा दीं।

उनने धरती की सेवा के वादे न किए लम्बे – चौड़े
मां के अर्चन हित फूल नहीं, वे निज मस्तक लेकर दौड़े।
भारत का खून नहीं पतला, वे खून बहाकर दिखा गए,
जग के इतिहासों में अपनी, वे गौरव-गाथा लिखा गए।

उन गाथाओं से सर्द खून को मैं गरमाया करता हूँ।
मैं अमर शहीदों का चारण, उनके यश गाया करता हूँ।

है अमर शहीदों की पूजा हर एक राष्ट्र की परम्परा
उनसे है माँ की कोख धन्य, उनको पाकर है धन्य धरा ।
गिरता है उनका रक्त जहाँ, वे ठौर तीर्थ कहलाते हैं,
वे रक्त- बीज अपने जैसों की नई फसल दे जाते हैं।

इसलिए राष्ट्र कर्तव्य, शहीदों का समुचित सम्मान करे ।
मस्तक देने वाली जमात पर वह युग-युग अभिमान करे।
होता है ऐसा नहीं जहाँ, वह राष्ट्र नहीं टिक पाता है,
आजादी खण्डित हो जाती, सम्मान सभी बिक जाता है।

यह धर्म कर्म यह मर्म सभी को मैं समझाया करता हूँ।
मैं अमर शहीदों का चारण, उनके यश गाया करता हूँ।

पूजे न शहीद गए तो फिर यह पंथ कौन अपनाएगा?
तोपों के मुँह से कौन अकड़ अपनी छातियाँ अडाएगा?
चूमेगा फन्दे कौन, गोलियाँ कोन वक्ष पर खाएगा?
अपने हाथों अपने मस्तक फिर आगे कौन बढ़ाएगा?

पूजे ने शहीद गए तो फिर आजादी कौन बचाएगा?
फिर कौन मौत की छाया में जीवन के रास रचाएगा?
पूजे न शहीद गए तो फिर यह बीज कहाँ से आएगा?
धरती को माँ कहकर मिट्टी माथे से कौन लगाएगा?

मैं चौराहे – चौराहे पर ये प्रश्न उठाया करता हूँ
मैं अमर शहीदों का चारण, उनके यश गाया करता हूँ।
जो कर्ज राष्ट्र ने खाया है, मैं उसे चुकाया करता हूँ।“

रोहित कुमार ‘हैप्पी’
न्यूज़ीलैंड ।
लेखक न्यूज़ीलैंड से प्रकाशित ऑनलाइन पत्रिका ‘भारत-दर्शन’ के संपादक हैं। ‘भारत-दर्शन’ को इंटरनेट पर विश्व का पहला हिंदी प्रकाशन होने का गौरव प्राप्त है और यह पत्रिका वर्तमान में सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली ऑनलाइन हिंदी साहित्यिक पत्रिका है।

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