कजाकी

कजाकी

मुंशी प्रेमचंद बहुत ही सहज सरल किन्तु असाधारण व्यक्तित्व के मालिक थे. वे अपनी हर कहानी को पहले अंग्रेजी में लिखते, उसके बाद उसका अनुवाद हिंदी और उर्दू में करते इस तरह तीनों भाषाओँ पर उनकी बराबर से पकड़ थी.
उन्होंने अपने जीवन की साधारणता की और इंगित करते हुए कहा था की “मेरा जीवन समतल रहा हो ऐसा नही है. उसमें जहाँ डूह थे वहाँ गड्ढे भी थे , किन्तु पहाड़ों झरनों का सौन्दर्य उसमें परिलक्षित नहीं होगा.”
बहुत ही सामन्य सा जीवन जीनेवाले प्रेमचंद इतने साधारण लिबास में रहते , की उन्हें देखकर कोई अंदाज़ा नहीं लगा सकता था की वे इतने बड़े साहित्यकार हैं. उनकी सादगी एवं सरलता में, उनके ग्रामीण संस्कारों में, उस मिटटी की महक वाबस्ता है, वहीँ उनका नैसर्गिक शील, उन्हें आत्म प्रदर्शन या विज्ञापन की राह से दूर रखता है. उनकी कहानियों में सर्वहारा, जनसाधारण, दमित , शोषित समाज की परिस्थितियों, भावनाओं का यतार्थ चित्रण होता है. उनकी सभी कहानियाँ उनकी विलक्षण सोच, उनकी सहृदयता , उनके उच्च मानवीय संस्कारों को दरशाती हुई, मानव स्वाभाव के आधारभूत महत्त्व को बल देतीं हैं .
वैसे तो उनकी प्रसिद्द कहानियों की एक लम्बी सूची है. कफ़न, पञ्च परमेश्वर, ईदगाह, नमक का दरोगा, बड़े घर की बेटी, शतरंज के खिलाडी, पूस की रात, सद्गति, ठाकुर का कुआँ, दो बैलों की कथा,इत्यादि, वह कहानियाँ हैं, जो उनकी पहचान हैं. इसके अलावा उपन्यासों की एक अलग सूची है, जो कालजयी हैं.
आज हम उनकी जिस कहानी का उल्लेख करना चाहते हैं, वह है, `कजाकी`. यह, प्रथम पुरुष में, संस्मरणात्मक शैली में लिखी कहानी है. कथावाचक एक बच्चा है, जिसका कजाकी से एक ऐसा रिश्ता बन जाता है, जो निस्वार्थ , प्रेम और समर्पण का अद्भुत उदाहरण है.
कजाकी, एक बहुत ही हंसमुख , जिंदादिल इन्सान था. जात का पासी, जो घर घर डाक पहुँचाया करता था. वह बच्चा रोज़ शाम के चार बजते ही, अपना खेल छोड़, चौराहे पर खड़ा कजाकी की बाट जोहा करता. कंधे पर बल्लम रखे, झुनझुनी बजाता हुआ, दौड़ा आता. सांवला गठीला, सांचे में ढला शरीर, छोटी छोटी मूंछे और चेहरे पर उमड़ती ख़ुशी और स्नेह. वह आते ही उसे अपने कंधे पर बैठा लेता. उसका कन्धा, उस बच्चे की “अभिलाषाओं का स्वर्ग था. शायद स्वर्ग के निवासियों को भी वह आंदोलित आनंद नही मिलता होगा, जो उसे कजाकी के विशाल कन्धों पर मिलता था”. वह उसका दिल बहलाता. कभी कहानियाँ, सुनाकर, कभी बिरहा गाकर, कभी खेलकर.
एक दिन कजाकी उसके लिए एक हिरन का बच्चा लाने की कोशिश में बहुत दूर निकल गया, और डाकखाने देर से पहुँचा. परिणामस्वरूप, डाकबाबूने जो उस बालक के पिता थे, क्रोधित हो डांट फटकार कर, उसे नौकरी से बर्खास्त कर दिया. बच्चे का दिल उसके साथ हुए सुलूक से तड़प उठा, पर क्या करता. कजाकी भूखा रहेगा , इस चिंता से वह घर से चुपचाप आटा भी चुराकर कजाकी के लिए ले गया, जो उसने लौटा दिया, उसने अपनी बचत के सारे पैसे उसे देने चाहे, पर उसे समझा बुझाकर कजाकी ने सब लौटा दिए और फिर अचानक गायब हो गया. बालक रोज़ उसी जगह खड़ा होकर उसकी राह देखा करता पर कजाकी नहीं आया.
एक दिन, कजाकी की पत्नी, उसके लिए कमलगट्टे लाती है, जो कजाकीने बुखार और कमजोरी की हालत में जाकर उस बच्चे के लिए तालाब से तोड़े थे.
कजाकी को डाक बाबु बहाल कर देते हैं. कजाकी फिर अपने पुराने भेस में जब आता है, तो बालक देखता है कि कजाकी बहुत ही कमज़ोर हो गया है, ज्वर ने उसके शरीर को बुरी तरह तोड़ दिया था, पर उसके हौसले में कोई कमी न थी. उसने बालक को देखते ही उसे चूमा और जब हमेशा की तरह उसे कंधे पर उचकाकर बैठना चाहा तो कमजोरी के कारण नही बैठा पाया, तो खुद उकडू ज़मीं पर बैठकर उसे कंधे पर चढ़ा लिया.
बहुत ही संवेदनशील कहानी है. कजाकी और उस बालक के बीच जो रिश्ता स्थापित होता है, कहीं रबिन्द्रनाथ ठाकुर की काबुलीवाला की याद दिला गया. कुछ रिश्तों के नाम नहीं होते. पर वह दुनिया के सभी रिश्तों से बढ़कर होते हैं. एक और बात जो इस कहानी में पसंद आयी वह यह, कि कजाकी जात का पासी था, पर उस बालक के माता पिता ने कभी भी जात पांत का भेद भाव नहीं बरता, अगर ऐसा होता तो वे बालक का मेल जोल उससे कभी न बढ़ने देते. कुछ बहुत ही मार्मिक शब्दचित्र खींचे हैं उन्होंने, जब वह बालक, घंटों अँधेरा होने तक , चौराहे पर कजाकी की प्रतीक्षा करता रहता. भूत प्रेतों का भय, उसे सताता पर अपने भय को परे धकेल वह उसकी बाट जोहता रहता है . एक और दृश्य है, जब कजाकी की पत्नी बताती है, कि कैसे तेज़ ज्वर में भी वह उसी बालक को याद करता रहता है, और जब स्वयम को नहीं रोक पाता तो बाज़ार में चुपके चुपके, दूर से ही उसकी एक झलक देखने पहुँच जाता.
रिश्तों की सादगी, समर्पण भाव और निश्चलता ने अंतस को छू लिया. एक अनाम रिश्ते का मार्मिक सम्प्रेषण …!

सरस दरबारी

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