संस्कार

संस्कार

वैष्णव जन तो तेने कहिये जे, पीर पराई जाने रे..
नरसी मेहता का भजन नेपथ्य में कहीं चल रहा था ।
” पर दु:खे उपकार करे तोये, मन अभिमान न आणे रे..” सरला बेन भी साथ में गुनगुनाने लगीं । मिहिका सामने बैठी अपनी वृद्धा विधवा माँ के चेहरे की रुहानियत और मासूमियत
को निहार रही थी ; तभी भाभी की तल्ख़ आवाज़
ने उनकी तंद्रा को भंग किया ,
” क्या माँजी ,आपने अभी तक दवा नहीं ली ? क्यों ? दवा नहीं खाओगी तो ठीक कैसे होगी ? सारी उमर बिस्तर पे तो नहीं गुज़ारनी है ना ? ”
माँजी एक बार तो सहम सी गयीं , फिर स्वयं को सम्हालते हुए खिसियाकर मुस्कुराईं और आज ही ससुराल से मिलने आई अपनी बेटी को बताने लगीं ,
” बहुत ध्यान रखती है बड़ी बहु मेरा ,बिलकुल माँ के जैसे व्यवहार करती है मेरे साथ…..”
भाभी की कर्कश आवाज फिर से गूँजी,
” करना ही होगा, हमारे तो संस्कारों में ही यही है ।आपके मारे तो ये भी प्रमोशन नहीं ले रहे कि तबादला हो जायेगा । सालों से एक ही पद कर काम कर रहे हैं, पर मज़ाल है कि कभी शिकायत की हो । देवर जी को देखो -क्या तरक्की कर रहे हैं । साल में एक बार मेहमानों के जैसे आते हैं ,लेकिन माँजी की ज़िम्मेदारी तो हम ही उठा रहे हैं ना । हमारे ही संस्कार हैं ये तो , वरना कौन किसका सगा है आजकल, सब अपने मतलब के होते हैं ..” बोलते हुए भाभी अंदर चली गयी ।
माँजी ने एक ठण्ड़ी सांस लेकर अपनी आँखें बंद करलीं और फिर से गुनगुनाने लगीं ,” ~~ सकल लोकमा सहुने वन्दे, निंदा न करे केनी रे ~~”

रचना सरन ,
कोलकाता,भारत

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