सूरदास

सूरदास

हिंदी – उर्दू साहित्य के विराट नभ पर दिवाकर सा दैदीप्यमान एक नाम – मुंशी प्रेमचंद । प्रेमचंद एक ऐसे कथाकार थे जिन्होंने साहित्य को सामाजिक परिवर्तन का सशक्त माध्यम बनाते हुए , अपनी कहानियों और उपन्यासों में किसानों, दलितों, श्रमिकों की दयनीय स्थिति का और स्त्री शोषण का मार्मिक चित्रण किया । उनकी कहानियां मुख्यतः चरित्र प्रधान होती थीं । वे पात्रों के मनोवैज्ञानिक सत्य को उद्घाटित करते हुए तत्कालीन सामाजिक प्रचलनों को संवेदनशीलता और गंभीर चिंतन के साथ प्रस्तुत करती थीं ।
मनुष्य के अंदर की अच्छाई और बुराई समानांतर चलती हैं ।
उन्होंने अपनी कहानियों में शीलगुणों के समानांतर अस्तित्व का खाका बख़ूबी खींचा है ।
ऐसी ही एक कहानी है ” सूरदास की झौंपड़ी ”
असल में यह उनके उपन्यास ” रंगभूमि ” का अंश है । इस गद्यांश का नायक सूरदास जन्मांध है, जो भिक्षा मांगकर जीवनयापन करता है । कहानी में मुख्य 3पात्र और हैं – गाँव निवासी भैंरों , उसकी पत्नी सुभागी और जगधर ।
भैंरों की पत्नी मार के डर से घर से भाग जाती है और सूरदास की झौंपड़ी में जाकर छुप जाती है । इस बात की ख़बर गाँवभर में फैल जाती है । जगधर, जो सूरदास से ईर्ष्या करता है, भैंरों को भड़काता है । भैंरों सूरदास की झौपड़ी से 500 रुपय की थैली चुराकर वहाँ आग लगा देता है । सूरदास ने वो पैसे जमा किये थे गया जाकर पिण्डदान करने, पुत्र मिठुआ के ब्याह और एक कुँआ बनवाने के लिये । वह ये सब काम ऐसे गुपचुप करता कि सबको लगता कि ईश्वर गरीबों की सहायता करते हैं ।
भैंरों जगधर को इन पैसों के बारे में बताता है । ईर्ष्यावश जगधर सूरदास को पैसों की सूचना देने पहुंच जाता है । सूरदास को राख में कुछ तलाशते देखता है । “आशा से ज़्यादा दीर्घजीवी कोई वस्तु नहीं होती । ” आग में कब कुछ बचा है । लेकिन सूरदास मुकर जाता है कि उसके पास इतने पैसे थे । इन दोनों की बातें सुभागी सुन लेती है और सूरदास के मनोभावों को पढ़कर निश्चय करती है कि ” मैने ही उजाड़ा है, मैं ही बसाऊंगी ।” सूरदास दुःख, ग्लानि और निराशा से रो देता है ।तभी उसे पुत्र मिठुआ के रोने की आवाज़ आती है और फिर उसके मित्र की..” खेल में रोते हो.. ”
यह सुनकर वह खड़ा हो जाता है । विचार करता है कि जब बच्चे जब बच्चे ही खेल में रोने को गलत समझते हैं तो वह इस जीवन के खेल में क्यों रो रहा है!
” सच्चे खिलाड़ी तो बार बार चोट खाकर भी मैदान में डटे रहते हैं ; खेल हँसने के लिए है, रोने के लिए नहीं ।”
सूरदास विजय-गर्व की तरंग में दोनों हाथों से राख उड़ाने लगता है और प्रतिशोध के स्थान पर आत्मविश्वास से कहने लगता है ,” हम दूसरा घर बनायेंगे ..”
कहानी में एक बच्चे के माध्यम से नायक को जीवन का ज्ञान प्राप्त होना कहानी को रोचक बनाता है ।
जगधर की ईर्ष्यालु प्रवृत्ति कहानी में नये मोड़ का निमित्त बनती है और पढ़ने में दिलचस्प ,वास्तविकता के बहुत निकट प्रतीत होती है ।
सूरदास निर्बल भिखारी होने के बावज़ूद संघर्षशील है और उदार व श्रेष्ठमना भी । मानवचरित्र की दृड़ता और दुर्बलता को प्रभावी तरीके से प्रस्तुत किया गया है । दुर्बल सूरदास सशक्त भैंरों से सुभागी की रक्षा करता है । सुभागी भी, एक ओर पति से डरकर भाग जाती है, वहीं दूसरी ओर नायक की मदद का दृड़निश्चय भी कर बैठती है ।
जीवन की कठिनाइयों के प्रति ऐसा सकारात्मकता दृष्टिकोण पाठकों के लिए प्रेरणादायी है ।
पूरा कथ्य इतना रुचिकर है कि पाठक को बाँधे रखता है । सरल और सुगम्य भाषा अनुभूति तत्व को सफलतापूर्वक संप्रेषित करती है और पाठक के मन मस्तिष्क को प्रभावित करती है ।

रचना सरन,
कोलकाता,भारत

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