आदर्श सास

आदर्श सास

रविवार का दिन था। बच्चे पिक्चर चलने की ज़िद कर रहे थे पर आज मेरी कहीं जाने की इक्छा नहीं हो रही थी। दस दिनों से गाड़ी का पेपर खोज खोज कर घर मे सब परेशान हो गए थे। गाड़ी बेचनी थी औऱ पेपर मिल नही रहा था। दिमाग उसी में उलझा हुआ था आखिर पेपर गया कहाँ ? बच्चे पिक्चर के लिए निकल गए और मैं अलमारी खोल कर कागज खोजने में व्यस्त हो गयी । हर फाइल, हर डायरी सब उलट डाला पर गाड़ी के पेपर का कहीं अता पता नही था। अचानक नजर एक लिफाफे पर अटक गई देखा तो बरसों पहले लिखा पापा का पत्र था । पत्र पढ़ते पढ़ते आँखें भर आईं । उन्होंने लिखा था ,,,,,,,,,,,,,,,

मेरी प्यारी बेटी,
बहुत प्यार।

बेटा मै दीपक की शादी से लौट तो आया हूँ ,पर मेरा मन वहीं रह गया है। वहाँ शादी में कुछ ऐसा शमाँ बंधा की दिन रात कैसे बीते पता ही नहीं चला । तुम्हारी सारी वयवस्था बहुत हीं शानदार थी । तुमने बहुत बारिकी से सब चीजों का ध्यान रखा था। वहाँ उपस्थित सभी मेहमानों के मुँह से तुम्हारी तारीफ सुन कर मेरा मन गदगद हो गया था । बेटा तुम हमेशा एक आदर्श बेटी रही हो , एक आदर्श बहन रही हो ,फिर आदर्श बहु बनी , एक आदर्श पत्नी रही हो, एक बहुत ममता मयी आदर्श माँ रही हो। तुमने हर रिश्तों को पूरी गरिमा के साथ बहुत प्यार से निभाया है । मेरा विश्वास है अब तुमअपनी नई जिम्मेदारी बखूबी निभाओगी और एक आदर्श सास बनोगी। बहु को लेकर तुम सब यहाँ आने का प्रोग्राम बनाना। जिंदगी के हर मोड़ पर तुम खुद साबित करती आई हो बेटा, मैं खुद को भाग्यशाली मानता हूँ कि मैं तुम्हारा पापा हूँ। भगवान तुम्हें दुनियाँ की सारी खुशियां दें। । दीपक और बहु को मेरा ढेर सारा प्यार देना और राजीव जी को मेरा स्नेह देना ।
बहुत आशीर्वाद के साथ
तुम्हारा पापा
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पापा ने ये पत्र चार साल पहले मेरे बेटे दीपक की शादी के बाद लिखा था। पढ़ कर आँखें नम होगयी। मेरे लिए ये पत्र सिर्फ पत्र नहीं था, मेरे जीवन की कमाई थी। मन अतीत की यादों में खोने लगा था । जिंदगी का सफर कभी इतना आसान नहीं होता है । इन राहों पर कहीं आग की तपिश होती है तो कहीं काँटों की चुभन ,कहीं खाई है तो कहीं चट्टानों के हुजूम । इन सब के बीच संयम बरतते हुए ,बर्दास्त करते हुए ,अपनी इक्छाओं का दमन करते हुए , जिम्मेदारियों को मुस्कुरा कर उठाना ही जीवन है। अपने पापा का ये पत्र मेरे लिए किसी सर्टिफिकेट से कम नहीं था और पापा से ये सर्टिफिकेट पाना मेरे लिए गर्व की बात थी पर अब ”आदर्श सास ”, इसका सर्टिफिकेट पाना इतना सरल नहीं था।
सन, 2014 में मैंने अपने बेटे दीपक की शादी की थी। मेरी बहु रागनी बहुत सूंदर है। उसने M BA किया है। बरसों से ‘सास ‘ शब्द की एक अलग ही पहचान जन मानस के पलट पर अंकित है। बहु जब सास बनती है तो सास का दम्भ अपने आप उसके व्यक्तित्व में समा जाता है । माथे पर चमक ,आँखों में अनुशासन ,होठों पर आदेश ,चाल में अकड़ ,यही तो वर्षों से सास के व्यक्तित्व की परिभाषा रही है । बरसों से खुद पर हुए तमाम जुल्मों का बदला अपनी बहू से लेकर वह सुकून पाती है ।सास का पद ग्रहण करते ही ये सारी चीजें मेरे व्यक्तित्व में भी उभरने लगी थी। शादी का सारा काम बहुत ही अच्छे से संपन्न हो गया था । चार दिन तो आपा धापी में गुजरे, सबों को बिदाई दे कर पुरे सम्मान के साथ विदा किया। मेरी बहु रागनी भी सबों से बहुत प्यार से मिली , पाँव छू कर सबों से आशीर्वाद लिया।
बहुत दिनों बाद आज घर खाली हुआ था। सभी मेहमान चले गए थे। रात काफी हो गयी थी । हम सब भी काफी थक गए थे । सब गुड नाईट कर अपने अपने कमरे में सोने चले गए। यूँ तो शरीर थक कर चूर था पर आखों से नींद कोसों दूर थी। अपने नए पद की गरिमा बनाये रखने की कश्मकश में बीते तीस साल का मेनोफेस्टो उलटती पुलटती रही । अपनी सास का अनुशासन ,उनका गुस्सा ,उनके प्यार को याद कर सब को खुद में आत्म सात करती रही । कल से मेरे नए जीवन की नई शुरुआत होने वाली थी । इतिहास अपने आप को दुहरा रहा था। अब मैं सास बन गई हूँ ,,,,,,, सोचते सोचते न जाने कब आँख लग गयी पता भी नहीं चला। सुबह आँख खुली तो देखा घड़ी सात बजा रही थी। मै हड़बड़ा कर उठी । आज रागिनी का चूल्हा पूजन करवाना है। जल्दी जल्दी फ्रेश हो कर मैं बाहर निकली तो देखा दीपक के कमरे का दरवाजा बंद था। मैंने धीरे से खट-खट किया , अंदर से रागनी की अलसाई सी आवाज सुनाई दी ” हाँ माँ ”। ”अरे उठो बेटा आज चूल्हा पूजन करना है ” मैंने सयंत स्वर में कहा।
”हाँ माँ ” रागनी ने दबी आवाज में कहा । जब तक रागिनी फ्रेश होगी तब तक मैं अपनी पूजा पाठ और कुछ काम नपटा लूँ। ये विचार कर मैं काम में व्यस्त हो गयी। दिन के ग्यारह बज गए थे । मै दीपक के कमरे में गयी देखा तो रागनी अस्त वयस्त हालत में बिस्तर पर लेट कर मोबाइल देख रही थी। उसे ऐसे देख कर मुझे बहुत गुस्सा आया ”अरे अभी तक तैयार नहीं हुई ” मैंने थोड़े कड़े स्वर में कहा , मेरी आवाज की गर्मी भाँपते हुए। उसने नाराजगी भरे लहजे में कहा ”अभी तो घर खाली हुआ है। हम रिलेक्स कर रहे है ,आप भी रिलेक्स करो ,,,,,,,,,,,” उसका ये व्यवहार मुझे अंदर तक कचोट गया। मुझे उससे ऐसे जबाब की उम्मीद नहीं थी।
बचपन से देखती आई थी मायके में, पापा ,भैया का शासन था । उनके एक आवाज पर हम दौड़ जाते थे । कभी थोड़ी देर होती भैया गाल लाल कर देते थे । किसी भी काम को इंकार करने की हिम्मत हममे नहीं थी । बगावत नाम का कोई शब्द भी होता है हम नहीं जानते थे। ससुराल भी कुछ वैसा ही था। घर में सास ससुर जी का दब दबा था । सुबह चार बजे से रात बारह बजे तक !सबों के पीछे घिरनी बनी घूमती रहती । सबों की फरमाइशें पूरी करती और आज अपनी बहू रागिनी को ऐसे पड़े देख ” ये तो हद हो गयी ” मन ही मन बुदबुदाते हुए मैं कमरे से बाहर आगयी थी। ये पहला पत्थर मेरी उम्मीदों पर पड़ा था। मुझे उम्मीद थी सुबह सुबह मेरी बहु नहा धो कर सूंदर से तैयार हो कर हमारे लिए चाय बनाकर लाएगी । हा हा हा ,,,,,,,,,क्या कहें इसे,,,,,,,मुंगेरी लाल के हसीन सपने । पर असलियत ये थी की अब तो ये सिलसिला सा चल पड़ा था, मैं कुछ कहती वो इन्कार कर देती। आराम से उठती ,आराम से नहाती ,मन है तो काम करती, नहीं मन है तो नहीं करती। मेरे टोकने पर बहुत चिढ जाती। हमारे बीच तनाव बढ़ने लगा था । उसे मैं ऑर्थोडक्स लगती। धीरे धीरे हम एक दूसरे से कन्नी काटने लगे थे । हमारे बीच बातों का दायरा बहुत सिमित हो गया था। इन सब के बीच कुछ ऐसा था जिसे हम अनदेखा कर रहे थे वो था मेरा दीपक। हम दोनों उसकी दो आँखें थीं। हमेशा खिलखिलाने वाला दीपक मायूस हो गया था।कमरे के बाहर वह मेरा उतरा चेहरा देख कर उदास हो जाता और कमरे के अंदर रागिनी की उदासी उसे तोड़ देती। उसने कई बार कोशिश की हम दोनों को समझाने की पर हमेशा हमारा ईगो सामने आजाता और तनाव औऱ बढ़ जाता। अब दीपक की उदासी मुझे अंदर तक खाने लगी थी।उसकी आँखों में बहुत प्रश्न थे मानो कहना चाहता हो ‘मेरा क्या कसूर है ,,, ? क्यों मेरी शादी की आपने ,,,,? मैं आपको उदास नहीं देख सकता ,,,,,मैं रागनी से भी बहुत प्यार करता हूँ मैं क्या करूँ ,,,,, ,, ? उसके अनकहे शब्द बार बार मेरे कानों से टकरा रहे थे। उसे उदास देख कर मेरा मन पसीज गया।। मैं अपने हमेशा मस्त रहने वाले बेटे को ऐसे नहीं देख सकती थी ।
मैंने पुरे घटना क्रम का आंकलन करना शुरू किया । कहाँ गलत हूँ मैं ,,,,, और कहाँ गलत है रागनी ,,? बहुत सोचा ,,,,और बहुत सोचने पर इस निष्कर्ष पर पहुंची ,,,,,,,,,”रागनी कहीं गलत नहीं थी। हमने अपनी पूरी जिंदगी दूसरों के शर्तों पर जी है पर आज के बच्चे अपनी जिंदगी अपने शर्तों पर जीते है। हम दोनों के बीच इस शीत यूद्ध के दौरान मैंने अपनी कमजोरियों को भी परखा वो था हमारा ईगो ,,,,,,जिसे मैं नहीं छोड़ पा रही थी तो उसे छोड़ने का उपदेश मैं दूसरे को कैसे दे सकती थी। मेरी जिंदगी संस्कार और रूढिवादिताओं की ईंट से बनी वो ईमारत थी जहाँ सिर्फ अनुशासन था , जिम्मेदारियां थी। अनुशासन और जिम्मेदारियों के बीच दबी मै अपने ज्जबातोँ को ,अपनी इक्छाओं को कब का दफ़न कर चुकी थी और उस दर्द के अहसास को भी भूल चुकी थी । मैंने इसे ही नियति मान लिया था । अब जमाना बदल गया था। बदलते वक्त के साथ हवा ने भी अपना रुख बदल लिया था।
अब नई पीढ़ी के टकराओ से मेरी पुरानी खोखली ईमारत हिलने लगी थी। मैंने भी निश्चय किया की यदि मुझे मुझमें बदलाव लाना है तो मुझे अपनी इस जर्जराती ईमारत को बम के धमाके से उड़ाना पड़ेगा। अपनी आशाओं के पुलिन्दे को दरिया में बहाना होगा ,अपने रुतवे की ,अपने अहंकार की ,अपने बर्चस्व की होली जलानी पड़ेगी। बहुत सुई चुभा चुभा कर हमारी पुरानी पीढ़ी ने ये संस्कार के लिबास हमें पहनाये थे और अब ये नई पीढ़ी बड़ी बेमुरुआत से उसे उतारने में लगी थी । कुछ समय के लिए मैं जरूर बौखला गयी थी पर शांति से विचार कर , मै निकल पड़ी उस राह पर जहां मै जान सकूँ आखिर ये नई पीढ़ी है क्या बला ,,,,? ये चाहती क्या है .,,,,,,,,,,,,,? जितना मैं इनके करीब आती गयी उतना ही इन्हें समझने लगी,,,,,,,,,, और मुझे उनसे प्यार होता चला गया। कितनी गलत फेमियाँ पाल रखी थी हमने इनके प्रति। हममें और नई पीढ़ी में बस फर्क इतना है कि नई पीढ़ी किसी दवाब में नहीं रह सकती । वे विशाल गगन में उन्मुक्त परिन्दे की तरह उड़ना चाहती है। उन्हें बेड़ियों में बांधा नहीं जा सकता। ये ‘ना’ करना जानते है । इनका व्यक्तित्व पारदर्शी है । जो इनके दिल में है वो उनके मुँह पर है। उन्हें जानने के इस सफर में मैं खुद को भी जानने लगी थी। उनका आलस्य ,उनका मस्त मौला पन ,उनकी बेबाकी ,उनका आत्म विश्वास मेरी उन दबी भावनाओं को छू रहा था । जिसे जाने अनजाने मैंने बरसों पहले दफना दिया था। ऐसी कई घटनाएं आँखों के सामने तैर गयी ,,,,जब चाहते हुए भी मैं कुछ नहीं कर पाई थी और कई बार न चाहते हुए भी हमें बहुत कुछ करना पड़ता था । मुझमें ‘ना ‘ कहने का साहस नहीं था या कहो मुझमे आत्म विश्वास की कमी थी। इस सफर के दरमियाँ मेरे अंदर बहुत कुछ बदलने लगा था। मेरे अंदर उठते प्यार और स्नेह की हवा ने नफ़रत की बूंदों को कब सूखा दिया पता ही नहीं चला। मेरे मरे हुए अहसास फिर से करवट लेने लगे थे। मैं फिर से जी उठी थी अपने आधे अधूरे सपनों के साथ । यह अहसास की मैं सास हूँ ,मेरी इज्जत करनी होगी , मैं जो कहूँगी बहु को मानना पड़ेगा ,इस तरह की तमाम दकियानूसी भावनाओं की पोटली बना कर मैंने गंगा में बहा दिया। यह सफर ,यह फैसला मुश्किल जरूर था पर नामुमकिन नहीं था। मैं हर छोटी बड़ी चीजों में रागनी की राय लेने लगी । हर चीज का निर्णय हम आपसी सामंजस्य से लेते। अब हम सास बहु के बंधन से मुक्त हो कर एक अच्छी सहेली बन गए थे। धीरे धीरे रागनी भी मुझसे खुल गयी थी। एक दूसरे को खुश करने के लिए हम हर कुछ करने को तैयार रहते। इस रिश्ते में स्वार्थ नहीं था ,ईगो नहीं था ,यदि कुछ था तो था सरलता से ,स्वेक्छा से अपना पूर्ण समर्पण। पहल जरूर हमने की पर अगला कदम बढ़ा कर हम राही नई पीढ़ी बनती चली गयी।
” माँ ,आप कहाँ हो ,जल्दी आओ ,आपके लिए हम पानी पूरी लाये है ” रागनी की आवाज कानों से टकराई तो मेरी तन्द्रा टूटी। आवाज लगाते हुए रागनी और दीपक कमरे में आगये थे ।
”अरे ये क्या माँ ” बिखरे कागज को देख कर दीपक ने कहा।
”कुछ नहीं बेटा, गाड़ी के कागज खोजते खोजते मन अतीत के गलियारों में भटक गया था। ” मैंने बिखरे कागज समेटते हुए कहा ।
”माँ वर्तमान में लौट आओ , आप के लिए मस्त पानी पूरी लाई हूं ,जल्दी आओ मुझे भूख लगी है। ‘रागनी ने मुस्कुराते हुए कहा।
‘अरे मेरे साथ तुमने वहाँ खाया क्यों नहीं ”दीपक ने आश्चर्य से कहा।
‘मुझे माँ के साथ खाना था ,आओ माँ ”
‘अरे मेरा बच्चा लव यू ”मैंने उसके सर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा।
”आई लव यू टू माँ ” कहते हुए वो मेरे गले से लिपट गयी। ” और माँ पता है कार के पेपर कार मेही थे ।ये आपको इतना परेशान किया । इसे जम कर
डांट लगाओ आप । उसकी मासूमियत भरी बातों को सुन कर सब खिल खिला कर हंस पड़े । हंसी ठहाके के बीच पानी पूरी की चटपटाहट ने माहौल को और खुश गँवार बना दिया था । बच्चों के चेहरे पर खिली मुस्कराहट में मुझे आदर्श सास का सर्टिफिकेट मिल गया था। इस राह में मैंने जितना खोया उससे कई गुणा ज्यादा मैंने पाया है।
गीली माटी पर बिखरे रिश्तों के बीज में कभी अहँकार का खाद न डालें। ये अहंकार ,ये ईगो ,प्यार के पौधों को घुन की तरह चाट जाते है ।।देने का सुख हमेशा पाने से कहीं ज्यादा होता है ।

मंजू भारद्वाज
हैदराबाद, भारत

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