प्रेमचंद -युग प्रवर्तक

प्रेमचंद -युग प्रवर्तक

प्रेमचंद उन साहित्यकारों में से हैं जिनकी रचनाओं से भारत के बाहर रहने वाले साहित्यप्रेमी हिंदुस्तान को पहचानते हैं। प्रेमचंद का साहित्य हमें सीखलाता है कि किस तरह क्रांतिकारी लफ्फेबाजी से बच कर सीधे सादे ढंग से जनता की सेवा करने वाला साहित्य रचा जा सकता है। अच्छी कहानी लिखने के लिए विषय वस्तु का महत्वपूर्ण होना जरूरी है ,लेखक को जीवन की गहरी जानकारी होनी चाहिए। प्रेमचंद में यह सब बातें थीं इसलिए वे ऐसी कहानियां लिख सके जिसमें जनता ने अपने जीवन की झलक देखी।
समाज की पीड़ित विधवाएँ, सौतेली माताओं से परेशान बालक, महतो और पुरोहितों से ठगे जाने वाले किसान और आमजन, दूसरों की गुलामी करके भी पेट न भर पाने वाले अछूत, महाजन का कर्ज भरते -भरते जिंदगी होम करने वाले किसान,दहेज जैसे दानव द्वारा कोमल बालिकाओं के सपनों को मसलने वाला समाज या मुंहमांगा दहेज देने में असमर्थ माता पिता का अपनी फूल सी नाजुक बेटी का विवाह उम्रदराज़ रईस से करवाने की विवशता इस तरह के और न जाने कितने यथार्थ की नग्नता उनकी कहानियों में देखने को मिलते हैं और इस तरह के सभी लोग कहानीकार प्रेमचंद में अपना एक अच्छा दोस्त,हितैषी और सलाहकार देखते हैं।
प्रेमचंद ने हिंदी में यथार्थवाद की शुरुआत की ,प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह ‘सोजे वतन’नाम से 1908 में प्रकाशित हुआ। ‘सोजे वतन’ यानी ‘देश का दर्द’ देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत होने के कारण इस पर अंग्रेजी सरकार ने रोक लगा दी इस कारण उन्हें नाम बदलकर लिखना पड़ा । उनके जीवनकाल में कुल नौ कहानी संग्रह प्रकाशित हुए।
सोजे वतन, सप्त सरोज, प्रेम पचीसी, प्रेम प्रतिमा ,मानसरोवर भाग 1 और 2 और कफन ।उनकी कहानियों में किसानों, मजदूरों ,स्त्रियों ,दलितों आदि की समस्याएं गंभीरता से चित्रित हुई हैं। उन्होंने समाज सुधार, देश प्रेम ,स्वाधीनता संग्राम आदि से संबंधित कहानियां भी लिखी हैं।पंच परमेश्वर , दो बैलों की कथा, ईदगाह, बड़े भाई साहब, पूस की रात, कफ़न, ठाकुर का कुआं, बूढ़ी काकी, दूध का दाम, मंत्र, सती,पिसनहारिन का कुआं,वेश्या,विचित्र होली, कैदी ,जादू हर कहानी का कथानक सामान्य व निम्न वर्ग की समस्याओं को छूता हुआ, उनकी पीड़ा को आवाज़ देता हुआ।
प्रेमचंद की सारी कहानियां एक से बढ़कर एक हैं उनमें से किसी एक पर मुहर लगाना कि यह मेरी पसंद की कहानी है बहुत ही कठिन कार्य है मुझे ईदगाह का हामिद भी प्रभावित करता है दो बैलों की कथा के हीरा और मोती भी प्रभावित करते हैं कफन कहानी तो उनकी सर्वश्रेष्ठ कहानियों में से एक है ही जिसमें दरिद्रता,अकर्मण्यता और प्रसव वेदना से तड़पती नारी की पीड़ा को सहज ही देखा जा सकता है । इसी क्रम में मैं मंत्र कहानी का भी जिक्र करना चाहूंगी जिसका कथा नायक भगत डॉक्टर चड्ढा की बेरुखी,लापरवाही और बदसलूकी के कारण अपने बेटे को तो खो देता है किंतु वक्त जब दूसरी करवट लेता है और उसी डॉक्टर चड्ढा के बेटे की जान पर बन आती है तो अपनी सारी पीड़ा किनारे रखकर भगत उसके बेटे की जान की रक्षा करता है लेकिन एक कहानी और उस कहानी की नायिका ‘चिंता’ मुझे अंदर तक आंदोलित करती है कहानी का नाम है ‘सती’ जिसमें नायिका चिंता एक निडर,साहसी वीरांगना के रूप में देखने को मिलती है ।मातृ सुख से वंचित चिंता अपने जांबाज, सिपाही पिता के साथ वनों, जंगलों में भटकती हुई बचपन बिताती है और पिता के वीरगति प्राप्त होने की सूचना पर आंसू बहाए बिना अपने पिता के सिपाही साथियों के साथ मातृभूमि की रक्षा का प्रण लेती है ।उसकी सेना में कई मनचले ऐसे भी शामिल थे जो सिर्फ उसके रूप का सानिध्य पाने के लिए उसके एक इशारे पर मर मिटने को तैयार थे लेकिन कुछ युवक ऐसे भी थे जो मौन रहकर मातृभूमि के प्रति अपना फर्ज निभाते थे और चिंता के प्रति आत्मीय, स्नेहिल भाव रखते थे। उसी में एक युवक था- रत्नसिंह जिसकी जांबाजी के किस्से दूर-दूर तक फैल चुके थे। शत्रुओं से चिंता की रक्षा करते हुए जब जांबाज़ रत्नसिंह घायल हो जाता है तब चिंता कई दिनों तक बिना थके दिन-रात उसकी सेवा करती है और एक कोमल क्षण में दोनों एक दूसरे को अपना सर्वस्व मान बैठते हैं किंतु यही जांबाज़ रत्नसिंह चिंता के प्रेम में उसके नैसर्गिक सानिध्य को पाने के लिए शत्रु के हमले के वक्त अपने साथियों को छोड़कर भाग खड़ा होता है, चिंता मारे लज्जा के सती होना स्वीकार करती है और उसी समय रत्नसिंह उसके सामने प्रकट होता है चिंता उसकी तरफ देखती तक नहीं है चिंता की बेरुखी और अपने कृत्य से लज्जित होता हुआ रत्नसिंह भी उसी चिता में कूदकर अपनी भी जान दे देता है।
आज जिस नारी सशक्तिकरण की बात हम कहते हैं उसकी झलक ‘सती’ कहानी में मुझे देखने को मिलती है एक ऐसी सती जो वीरांगना थी, जो स्वाभिमानी थी, निडर और साहसी थी।
आज के वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ऐसी ही महिलाओं की आवश्यकता है जो अपने दम पर ,अपने पैरों पर खड़े होकर, निडरता और साहस पूर्वक अपने स्वाभिमान के साथ-साथ अपने देश की, अपनी मातृभूमि की रक्षा कर सकें और पुरुषों के आधिपत्य वाले समाज में अपनी एक नई पहचान स्थापित कर सकें।

डॉ रत्ना मानिक
साहित्य का प्रवृत्तिमूलक अध्ययन
पुस्तक के रूप में अभी तक कोई भी रचना प्रकाशित नहीं हुई है।

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