पेच्ची
कितना मुश्किल है जीवन का यथार्थ ये तो सभी जानते हैं। इतना कि दुःख ही सत्य लगता है सुख नहीं!
हाट की चहल-पहल व धूल के बीच पेच्ची उदास बैठी है।साथ में लचकी खड़ी है।उसकी बड़ी-बड़ी आँखें ख़ुशी व्यक्त कर रहीं हैं या उदासी कहना कठिन है। सत्य यही है कि दोनों की आँखों में उदासी है और इसका कारण भी है। दोनों ही माँ नहीं बन पाई हैं, दूसरे शब्दों में बाँझ हैं। मैनपुर गाँव के लोग आड़े-तिरछे इस बात को व्यक्त कर ही देते हैं। पोंनय्यन के लिए कुछ लोग तो दूसरे रिश्ते भी लेकर आये। ये तो पोंनय्यन का बड़प्पन है कि वह इस दिशा में नहीं सोचता। कम से कम अभी तक तो नहीं।हाँ, लचकी का बाँझपन उसे मंज़ूर नहीं। बेच देना चाहता है उसे।पेच्ची को बिल्कुल नामंज़ूर है यह निर्णय! मैके से मिला स्त्रीधन है लचकी।पर करे क्या,जब स्वयं अधूरी महसूस करती है तो पति के सामने भी एक अनजान अपराध बोध उसे कमजोर ही कर देता है। इस समाज में नि:संतान होने का ख़िताब कठिन होता है।उसने पोंनय्यन को बताया नहीं पर आत्ता के गाँव में आनेवाली डोकटेरनी से कुछ दवाइयाँ ले कर आयी है। खलिहान में छिपाकर रखा है। रोज़ लेती है और उनका बताया कुछ व्यायाम भी करती है। सुनती है मेथी का अर्क लेने से अंडाशय में अंडे बन सकते हैं। पोंनय्यन को मालूम नहीं। माँ होना तो स्त्री की योग्यताओं में शामिल है और न हो पाना अयोग्यताओं में! इस मामले में पुरुष की सार्थकता के बारे कौन सोचता है? नहीं, खुद को उसके सामने वह और कमजोर करना नहीं चाहती।
हाट लगता है पशुओं के लिये पर कई चीजें ख़रीदने को मिल जाती हैं। पेच्ची ने लचकी को कुछ भूसा दिया और पानी भी सरका दिया। एक ख़रीदार आ रहा था सब्ज़ियों से भरा थैला लिए। पन्नैयार(ज़मींदार) का आदमी लग रहा था। उसके लाल गमछे से उसका ये ख़ास ओहदा प्रकट हो रहा था।पन्नैयार के आदमी सभी लाल गमछा पहनते हैं।पुलिस की वर्दी भी इस रौब के सामने झुकती है।
पास आकर बोला- लगता है पोन्नयन की है? बेचने क्यों लायी हो!
-जी पैसों की ज़रूरत है।
उसे भी क्यों बताएँ की बाँझ होने का अंदेशा है। आख़िर लचकी भी तो स्त्री जाति की है!
बोला – खेत में काम कर पाएगी? पैर देखूँ कैसे हैं… पुट्ठे तो मजबूत हैं।
-जी बिलकुल स्वस्थ है। माँ इसकी किशनगिरी की थी।
-कितने साल की है?
– तीन साल की।
थी तो वह चार साल की, पर सच बताके अपना सौदा क्यों बिगाड़ना? व्यापार में इतनी सफ़ाई कहाँ होती है, ख़ासकर जब बेचनेवाला ग़रीब हो।
-अच्छा! बछड़ा जनी है कि नहीं?
-जी नहीं , अभी तो दूसरा ख़रीदा नहीं न है।
-अच्छा! लगती तो ठीक है। काहे बेच रहे हो? कितने में बिक रही है?
– पाँच हज़ार ।
-हैं! ! ज़्यादा है। सोच के बताओ।
– ज़रूरत है तभी तो बेच रहे हैं।
-मैं आता हूँ, तीन में दोगी तो लूंगा।
-बहुत कम है, नहीं बस होगा।
वह ख़रीददारी करने आया था, क्यों माँगा हुआ दाम देता। चला गया अपना पासा फेंक कर!
पेच्ची ने भी उससे मुक्त होकर संतोष ही अनुभव किया।धाक दिखाता तो बेचारी क्या करती? कहीं लौट न आए।लचकी भी जाएगी और पैसे भी कम मिलेंगे।
पेच्ची को अब घर लौटना था। लचकी की रस्सी छुड़ाकर चल पड़ी घर की तरफ़। ईंधन जमा करना है, रात की लप्सी पकनी है। जोवार साफ़ करना है। दिया जलाना है।
चलते-चलते लचकी से बोली-मैं तुम्हें नहीं बेचूँगी, समझी। तू बहना है मेरी।
माँ न बन पाने का दुःख जब-जब कचोटता था वह लचकी से ही व्यथा बाँटती थी।
लचकी ने उसे सांत्वना भरी दृष्टि से देख कर सिर हिलाया जैसे जानती है सब।वह बिकना भी कहाँ चाहती है। स्नेह की मटकी क्यों फोड़े ! पता नहीं ख़रीददार कैसा आदमी है!
पर शायद दुःख उसे कुछ हुआ। अगले दिन अकेली चली गई मौक़ा पाकर पिछवाड़े के खेत में जहां अंबु के जानवर और खेत हैं।दुखडा सुनाने गयी होगी।
पेच्ची देर तक ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ देकर बुलाती रही तब लौटी।आते ही पेच्ची ने गर्दन सहलायी और बोली-कहाँ चली गयी थी! कहा न नहीं बेचूँगी तुम्हें।
अगले महीने फिर मवेशी हाट है, तब तक तो बात टल ही गई है।पशु ही तो है, उससे झूठ-सच कुछ भी कहा जा सकता है पर अपने दिल में टीस जरूर उठती है झूठ कहने से।
कल आत्ता के गाँव जाएगी जाँच के लिए।पोंनय्यन फसल कटाई में देर सुबह निकलेगा। लप्सी पीकर ही जाएगा।
वह शाम तक लौट जाएगी। दो कोस ही तो है।
सुबह हड़बड़ी में लचकी को बांधना भूल गई। जब घर लौटी तो याद आया । उसे वहीं पाया जहां छोड़ गयी थी। जाकर गले लग गई।लचकी ने यूँ देखा जैसे कह रही हो -इतनी ख़ुशी की क्या बात है? बोली-लचकी भगवान ने सुन ली। मैं पेट से हूँ। समझी? दवा काम कर गई।
– पोंनय्यन लौटा तो उसे उठाकर नाचने लगा।
-अरी लचकी देख, मैं बाप बननेवाला हूँ, तू मौसी।मेरी पेच्ची पेट से है।अब तो तू जाएगी ही। तुझे बेचकर ही हाथ में पैसे आयेंगे, समझी! अय्यनार(ग्राम देवता) को बलि चढ़ानी होगी।
लचकी को मुस्काना तो आता न था पर मुस्कुरा ही रही थी।आँखों में सवाल भी था!
आत्ता कुछ दिनों के लिए बेटी की तीमारदारी के वास्ते आ गयी। शुरू के महीनों में एहतियात रखना पड़ता है,पहलौठी है। हाँ, सातवें के बाद दोबारा आएगी और अपने साथ घर ले जाएगी।
लचकी का सारा काम आत्ता सम्भाल लेती है।एक दिन शाम को भूसा देने लगी तो पेच्ची से बोली-कल बैद को बुलाना तो। इसकी चाल ठीक नहीं लगती।ठीक से खाती भी नहीं है।कुछ हुआ तो बेचने लायक भी नहीं रहेगी।
बैद आया तो बिना पैसे लिए नहीं जाएगा, पर आत्ता की बात सही लगी।उसे और पोंनय्यन को मवेशी सम्भालने का इतना ज्ञान नहीं!
बैद आया अपने ख़ास भेस में, भूत-प्रेत को ललकारते, बीमारियों को मारीआत्ता(देवी) की क़सम दिलाते अपनी चमड़े की डुगडुगी बजाते।
लचकी को देखकर, कुछ जाँचके, सोचता बोला, “अरे ये तो गर्भ से है!
पेच्ची और आत्ता भौंचक्की हो गईं । हैं ! ये कब हुआ! ज़रूर अन्बु के खेत का साँढ होगा जो पिछले साल ही ख़रीदा गया था। वहीं तो जाती है लचकी अक्सर।पहले नहीं हुआ पर अब हुआ…! कैसे?’
डुग डुगी बजाते, कौड़ियों की माला खनकाते बैद घूम-घूमकर नज़र उतारते हुए, ग्राम देवता अयनार की दिशा में माथा टेकने लगा।गाय का गर्भवती होना बेटी या बहू के गर्भ धारण से अधिक महत्वपूर्ण होता है ग्रामीण के जीवन में।
सबने मिलकर लचकी के माथे कुमकुम तिलक लगाया, , फूल माला गर्दन में डाली , थाल में हल्दी कुमकुम के जल से आरती उतारी। मंगल गीत गाया। किसान की सबसे बड़ी सम्पत्ति उसकी ज़मीन,जानवर और मदद के हाथ। लचकी सबको देखकर कह रही थी, ‘…और मुझे बेचने जा रहे थे!’
रात को पोंनय्यन ने पेच्ची के कान में फुसफुसाते कहा-ये तो हमारे बच्चे का चमत्कार है। पेट में आते ही भाग खुल गए। मेरा बूढा बाप ही लौट रहा है।अच्छा है अब लचकी को बेचना न होगा।
आधी रात गए पेच्ची चाँदनी रात में जब उठी तब लचकी के पास गयी और गलबाँही डालकर बोली- मेरा बच्चा और तुम्हारा छौना साथ खेलेंगे। बता तो क्या जादू किया तूने!
लचकी उसे दीर्घ आँखो से निहार रही थी मानो कह रही हो … तुम्हारे पहले मैं कैसे बच्चा जनती ? हम तो बहने हैं ना?
इतना गहरा वात्सल्य छलक रहा था उसकी बड़ी पुतलियों में कि पेच्ची की आँखो से आँसू बहने लगे। मातृत्व का सौभाग्य दोनों को इस तरह बांध रहा था कि सारा प्रपंच मुस्कुराने लगा।
राधा जनार्धन
-पार्थिव, मज्झिम निकाय( दो कविता संग्रह)
-कुछ निबंध,कहानियाँ आदि हिंदी अंग्रेज़ी दोनों में प्रकाशित।
-कविता, कहानी, गीतिनाट्य, निबंध, नाटक आदि विधाओं में लेखन।