मेरी प्रिय कहानी: ईदगाह

मेरी प्रिय कहानी: ईदगाह

अब एक बड़ी विचित्र बात हुई। हामिद के इस चिमटे से भी विचित्र। बच्चे हामिद ने बूढ़े हामिद का पार्ट खेला था। बुढ़िया अमीना बालिका अमीना बन गई।वह रोने लगी।दामन फैलाकर हामिद को दुआएँ देती जाती थी और आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदें गिराती जाती थी। हामिद इसका रहस्य क्या समझ पाता।
– ईदगाह, प्रेमचंद

साहित्य से मेरे अनुराग की नींव प्रेमचंद जी की कहानियाँ ही हैं। मान सरोवर के आठों भाग पढ़े। पूस की रात, दो बैलों की कथा, बड़े भाई साहब, बड़े घर की बेटी जैसी कितनी ही कहानियाँ सदा के लिए स्मृतियों में बस गईं किन्तु ‘ईदगाह’ को अपनी सबसे पसंदीदा कहानी बताने के पीछे एक विचित्र कारण है। अपने बचपन से लेकर अपने बच्चों के बचपन के सफ़र में जाने कितनी ही बार यह कहानी पढ़ी है किंतु कभी इसे बिना रुके पूरा न पढ़ सकी। एक अबोध अनाथ बच्चे के कोमल मन का सजीव चित्रण सदा कंठ अवरुद्ध कर देता है। जो लोग प्रेमचंद की कहानियों को यथार्थवादी और आदर्शोन्मुख होने के कारण नीरस मानते हैं उन्हें यह कहानी अवश्य पढ़नी चाहिए। करुण कथा को यूँ रस में डूबा कर कहना मन बाँध लेता है। कहानी आरम्भ में ही कह देती है कि
उत्सव का उल्लास आर्थिक बेड़ियों में बाँधे नहीं बँधता। समूचा गाँव इसमें डूबा है। उल्लास की यह भावना धर्म और धार्मिक नियमों से भी ऊपर है। बालमन की सुंदर छवि प्रस्तुत करते वे लिखते हैं रोज़े बड़े-बूढ़ों के लिए होंगे. इनके लिए तो ईद है। बच्चों के इसी उल्लास को बचाए रखने, बड़े अपने अहम की भी बलि दे, विनय की मुद्रा में आ गए हैं। निम्न वर्ग की कठिनाइयों और दुश्वारियों से बच्चों को क्या लेना। बड़े गणना कर रहे हैं, हिसाब बिठा रहे हैं।

‘हामिद, वह चार-पाँच साल का ग़रीब-सूरत, दुबला-पतला लड़का, जिसका बाप गत वर्ष हैजे की भेंट हो गया और माँ न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर गई।किसी को पता क्या बीमारी है।कहती तो कौन सुनने वाला था? दिल पर जो कुछ बीतती थी, वह दिल में ही सहती थी ओर जब न सहा गया तो संसार से विदा हो गई।’

इन कुछ पंक्तियों में पूरा नारी जीवन समा गया है। ईदगाह से लौटते बच्चों का परस्पर हास-परिहास सहजता से कितना कुछ कह देता है। किसी गृहणी को ऐसी सहजता और कुशलता से लिख देने वाली कलम दुर्लभ हैं-

‘महमूद ने कहा,‘हमारी अम्मीजान का तो हाथ काँपने लगे, अल्ला कसम।’
मोहसिन बोला,‘चलो, मनों आटा पीस डालती हैं। ज़रा-सा बैट पकड़ लेंगी, तो हाथ कांपने लगेंगे! सैकड़ों घड़े पानी रोज निकालती हैं। पाँच घड़े तो तेरी भैंस पी जाती है। किसी मेम को एक घड़ा पानी भरना पड़े, तो आँखों तले अंधेरा आ जाए।’
महमूद,‘लेकिन दौड़ती तो नहीं, उछल-कूद तो नहीं सकतीं।’
मोहसिन,‘हाँ, उछल-कूद तो नहीं सकतीं; लेकिन उस दिन मेरी गाय खुल गई थी और चौधरी के खेत में जा पड़ी थी, अम्मा इतना तेज़ दौड़ीं कि मैं उन्हें न पा सका, सच।’’

बच्चों के बहाने चोरों को बढ़ावा देने वाले चौधरी, अकड़ में रहने वाले वकील व सिपाही के व्यवहार का भी चरित्र चित्रण खेल ही खेल में कर दिया गया है। समाज और मन की कितनी ही परतों को स्पर्श करते चलती है यह कहानी।

हामिद के साथ हम भी पूरा मेला घूमते हैं। उसे ललचाता देखते हैं। अपनी जेब टटोलते देखते हैं। एक हूक उठती है मन में। ईश्वर से लड़ने का मन होता है। आख़िर एक बच्चे से माँ-बाप छीन लेना कहाँ का न्याय है? अपनी अक्षमता पर क्षुब्ध होते हैं। काश की सम्भव होता इन पृष्ठों में प्रवेश कर हामिद को दोना भर मिठाई दिला देना। खिलौनों से उसके दोनों हाथ भर देना। आँखों के आँसू पोंछते अहसास होता है कि इन पृष्ठों के भीतर ही तो प्रवेश कर गए हैं हम। तभी तो बच्चों की निर्दोष बातों पर मुस्कराते हैं, हामिद के संकोच पर व्यथित होते हैं, रोते हैं। हामिद की दादी की ही तरह चिमटा खरीदते हामिद से हमारा जी जुड़ जाता है। स्नेह आता है उस मासूम की व्यस्क सोच पर। प्रेमचंद जी के शब्दों में कहूँ तो-

‘… और स्नेह भी वह नहीं, जो प्रगल्भ होता है और अपनी सारी कसक शब्दों में बिखेर देता है।यह मूक स्नेह था, ख़ूब ठोस, रस और स्वाद से भरा हुआ।’

जो दशकों बाद भी मन को तरल किए रहता है।


डॉ. निधि अग्रवाल

डॉ निधि अग्रवाल, पेशे से चिकित्सक, झाँसी में निजी रूप से कार्यरत हैं। साहित्यिक पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित होती रहती हैं। आकाशवाणी के भोपाल और छतरपुर (मध्य प्रदेश) केंद्र तथा स्थानीय ऍफ़ एम गोल्ड के कार्यक्रमों में रचनाओं का पाठ।

‘अपेक्षाओं के बियाबान’ प्रथम कहानी – संग्रह
काव्य संग्रह ‘अनुरणन’ प्रकाशनाधीन
‘अप्रवीणा’ उपन्यास प्रकाशनाधीन।

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