प्रेमचंद की युग चेतना
कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद का साहित्य हिंदी साहित्य के इतिहास में टर्निंग प्वाइंट के रूप में माना जाता है ,जहां साहित्य जीवन और समाज के यर्थाथ से जुड़ता है ।प्रेमचंद्र का उद्देश्य जीवन और समाज को समझना था। उनकी पैनी दृष्टि जीवन के अनछुए पहलुओं को हमारे सम्मुख लाती हैं ,जो मनुष्य को उत्प्रेरित कर प्रगतिशील सोच की ओर उन्मुख करती है। इस प्रकार उनका साहित्य मनुष्य को जादुई दुनिया से निकाल उसे यथार्थ से जोड़ते हुए समस्याओं से रूबरू कराती है तथा उसकी संवेदना और चेतना को जगाने का प्रयास करती है। हिंदी कहानी तथा उपन्यास के क्षेत्र में 1918 से 1936 तक के कालखंड को प्रेमचंद के काल से जाना जाता है ।कलम के सिपाही के नाम से जाने जाने वाले प्रेमचंद्र को आधुनिक हिंदी कहानी का पितामह माना जाता है ।प्रेमचंद ने जीवन के यथार्थ को पात्रों के माध्यम से चित्रित किया और सामाजिक जीवन को नई गति एवं नई दिशा प्रदान किया। वे साहित्य को जीवन का आधार मानते थे। साहित्य का आधार कल्पना नहीं है उसका स्रोत अवचेतन भी नहीं है बल्कि उसका आधार जीवन है यह प्रेमचंद की साहित्य के प्रति सोच थी।वे ऐसा साहित्य रचना चाहते थे जिसमें जीवन की सच्चाई हो और यहीं पर उनका साहित्य उनके पूर्ववर्ती साहित्यकारों के साहित्य से अलग दिखता है, जिसमें तिलस्मी कहानियां ,भूत प्रेत की कथा तथा प्रेम वियोग के अख्यानो से पाठकों का मनोरंजन किया जाता था। प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों में मानव मन के अनेक दृश्यो चेतना के अनेक छोरो ,सामाजिक कुरीतियों तथा आर्थिक उत्पीड़न के विविध आयामों के साथ राष्ट्र प्रेम भी अपनी संपूर्ण कलात्मकता के साथ अनावृत होती दिखती है।
साहित्य के प्रति प्रेमचंद की अवधारणा उपयोगितावादी है उनका मानना था कि साहित्य न तो बुद्धि विलास है ना ही केवल मनोरंजन का साधन है बल्कि यह एक ऐसा सृजन पक्ष है जिससे समाज को और अधिक चैतन्य और बेहतर बनाया जा सकता है। उनके अनुसार एक सच्चा साहित्यकार वही है जो समाज को विकास की ओर ले जाता है। सेवा सदन से गोदान तक प्रेमचंद ने सामाजिक यथार्थ से पाठकों को परिचित करा कर समस्या की जड़ तक पहुंचाया है। तथा उन्हें उसके समाधान के लिए नई दृष्टि प्रदान की है साहित्य का लक्ष्य लेख में प्रेमचंद ने लिखा है ‘साहित्य का लक्ष्य केवल महफिले सजाना नहीं उसका दर्जा इतना निचा ना गिराइये। वह देश भक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती चलने वाली सच्चाई है।’ वास्तव में प्रेमचंद सहित्यकार के इस गुण पर स्वयं खरा उतरते दिखते हैं उनकी कथनी और करनी में जितनी सामानता है वैसे विरले सहित्यकार में ही होता है ।प्रेमचंद समय के द्वन्द की पहचान कर अपनी भूमिका सुनिश्चित करते थे।
प्रेमचंद्र जिस समय लिखना शुरू किए थे उस समय भारत ब्रिटिश गुलामी का दंश झेल रहा था। उन्होंने परतंत्र भारत के लोगों को कष्ट ,शोषण ,अन्याय ,अत्याचार और विषमता आदि की आग में झुलसते देखा था। जीवन की इस कड़वी सच्चाई को देखकर वे समझ रहे थे की इस बदहाली का कारण अंग्रेजों की दासता और अपने समाज में व्याप्त आर्थिक विषमता है। यही कारण है कि उन्होंने अपनी कलम ब्रिटिश साम्राज्यवादी नीतियो, जमींदारों एवं पूंजीपतियों के विरुद्ध हमेशा धारदार बनाए रखा। प्रेमचंद्र विदेशी दासता के विरुद्ध साहस और वीरता से जेहाद बोला था।
इस संदर्भ में हमें प्रेमचंद्र की पुस्तक सोजे वतन की याद आती है जिसकी प्रथम कहानी ‘दुनिया का सबसे अनमोल रत्न’ स्पष्ट करती है कि मातृभूमि पर निछावर होने वाले वीर सैनिको का खून ही दुनिया का सबसे बडाअनमोल रत्न है। राष्ट्र की संप्रभुता एकता अखंडता और अस्मिता की सुरक्षा के लिए जो अपनी जान देते हैं उससे अमूल्य वस्तु और कुछ हो ही नहीं सकता ।’सोजे वतन’ किताब के विषय में जब ब्रिटिश सरकार को पता चला तो सोजेवतन की सारी प्रतियों को आग के हवाले कर दियागया और प्रेमचंद को यह चेतावनी दी गई आगे से ऐसी कहानियां और रचनाएं लिखने का अंजाम बहुत बुरा होगा अब तक प्रेमचंद्र नवाब राय के नाम से साहित्य की रचना कर रहे थे ।इस घटना के बाद भी उनके सृजनात्मकता में कमी नहीं आई अब वे नवाब राय नाम से नहीं प्रेमचंद्र के नाम से लिखने लगे प्रेमचंद के नाम की उनकी पहली कहानी बड़े घर की बेटी है। प्रेमचंद्र क्रांतिकारी चिंतक थे अन्याय और कुरीतियों पर उन्होंने चारों तरफ से आक्रमण किया एक तरफ जहां वे ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद् भारत के जनता मे अपनी लेखनी के द्वारा क्रांतिकारी बीज बो रहे थे वही वे मजदूर और किसानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हुए थे ,वे पंडित के विरोध में अछूत के संग और सामाजिक तानाशाह केविरुद्ध मे विधवा स्त्री के साथ खड़े हुए नजर आते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रेमचंद्र निरंकुशता के सभी रूपों के विरुद्ध संघर्ष में जुटे हुए थे।प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में स्वाधीनता आंदोलन के संघर्ष के लिए जिस रूप की कल्पना की कालान्तर मे
सारे रूप हमारे सामने आए। यह इस बात का साक्ष्य है कि सहित्यकार अंधकार से प्रकाश की ओर असत्य से सत्य की ओर ले जाने वाला टॉर्च वियरर होता है यानी आगे मशाल दिखाती चलने वाली सच्चाई।
समृद्ध चेतना के स्वामी प्रेमचंद्र ने परतंत्र भारत के लोगों को कष्ट ,शोषण ,अन्याय, अत्याचार और विषमता आदि की आग में झुलसते हुए देखा था ।जीवन की इस कड़वी सच्चाई को देख कर वे समझ रहे थे कि इस बदहाली का कारण अंग्रेजों की दासता और अपने समाज में व्याप्त आर्थिक विषमता है। यही कारण है कि प्रेमचंद ने अपनी कलम को ब्रिटिश साम्राज्यवाद और जमींदारों एवं पूंजी पतियों के विरुद्ध हमेशा धारदार बनाए रखा।
प्रेमचंद्र पराधीन बनाने वाले शक्ति केंद्रों के षड्यंत्र को अच्छी तरह समझते थे और उन्हें तार-तार कर देने के साथ विवेक भी रखते थे ।एक तरफ जहां उनकी रचनाओं में औपनिवेशिक शक्तियों के प्रति तीव्र आक्रोश है तो वहीं दूसरी ओर सामंती व्यवस्था, धार्मिक पाखंडता, महाजनी सभ्यता आदि समस्याओं के लिए गहरी वितृष्णा भी है। साम्राज्यवाद एवं सामंती पाटों के बीच पिसती हुई बहुलiश जनता की बेचैनी और छटपटाहट ने ही प्रेमचंद की
‘रंगभूमि ‘, ‘कर्मभूमि ‘, ‘गोदान ‘, ‘कथन’ ,’ पूस की रात ‘, ‘सवा सेर गेहूं’ एवं ठाकुर का कुआं जैसी रचनाओं को जन्म दिया जिसमें उस समय का सामाजिक यथार्थ अपनी संपूर्णता में व्याप्त है।
प्रेमचंद के साहित्य का उद्देश्य मात्र समाज की दुर्बलताओ ,समस्याओं और दोषो को देखना ही नहीं था वरन् उसमें समाज के परिवर्तन की प्रेरणा का समावेश करना भी था ।अपने हर उपन्यास में प्रेमचंद्र जनता को उसके असफल संघर्षों से एक नया सबक सिखा कर पुनः संघर्ष की ओर प्रेरित करते हैं ।उनके हर पात्र हर जगह संघर्ष करते दिखते हैं जो न सिर्फ साम्राज्यवाद से ,सामंतवाद से, बल्कि नारी मुक्ति एवं सामाजिक व्यवस्था की खाइयों से भी है। इस प्रकार प्रेमचंद ने साहित्यएवं समाज के परस्पर संबंधों की अपरिहार्यता की स्थापना कर एक नई विचारधारा का शंखनाद किया।
प्रेमचंद की प्रथम प्राथमिकता भारत को साम्राज्यवादी शासन से मुक्ति दिलाने की थी जो मजदूरों और किसानों के सहयोग के बिना कतई संभव नहीं था ।वे किसानों और मजदूरों की स्वतंत्रता संग्राम में प्रमुख भूमिका चाहते थे ।साम्राज्यवाद एवं उसके पिट्ठू शोषक वर्ग के विरुद्ध मजदूरों और किसानों की सेना खड़ी करने की पैरवी की। इसके बाद ही संपूर्ण भारत में किसान सभा का गठन होने लगा 1935 में उत्तर प्रदेश में किसान सभा का गठन हुआ जिसने जमीदारी प्रथा के उन्मूलन का नारा दिया । 1935 में ही मद्रास प्रेसिडेंसी में किसान सभा का गठन हुआ । इसके पूर्व 1935 में ही अखिल भारतीय किसान कांग्रेस की बैठक हुई जिसमें सर्वोच्च किसान संगठन का निर्णय लिया गया। यद्यपि कांग्रेस अलग स्वतंत्र पार्टी का विरोध करती थी, मगर समाजवादियों के दबाव के कारण 1936 में अखिल भारतीय किसान कांग्रेस की स्थापना हुई। इस प्रकार किसान आंदोलन पूरे देश में फैल गया।
किसान आंदोलन के प्रमुख दो पहलू स्वतंत्रता आंदोलन से संबंधित थे ।पहला किसानों का राष्ट्रीय आंदोलन में शरीक होना, संघर्ष को व्यापक जनाधार प्रदान कर उसे जन आंदोलन में परिणत करना और दूसरा किसानों को जमींदारों ,महाजनों तथा सरकार के शोषण से मुक्ति दिलाना। अतः राष्ट्रीय आंदोलन का एक लक्ष्य किसानों की समस्याओं को प्रमुखता से स्वीकार करना था ।परिणामतः पूरे देश में किसान विद्रोह होता रहा यहां तक की 1931 में किसानों ने अपना सैनिक दल बनाकर श्रीनगर को घेरा भी।
प्रेमचंद किसानों एवं मजदूरों से रहित किसी भी स्वतंत्रता आंदोलन की कोई परी कल्पना नहीं कर सकते थे ।इसीलिए’ प्रेमाश्रम ‘में उन्होंने स्पष्ट शब्दों में राम कमलानंद के द्वारा ज्ञान शंकर को कहा लाया है ‘ जमींदार अंग्रेजो के दलाल हैं।’ प्रेमचंद समय के प्रभाव को समझने वाले जागरूक एवं सशक्त रचनाकार थे उन्हें आभास हो गया था कि जनता के दृढ़ मनोबल को खूनी होली या क्रूर यातना से तोड़ा जाएगा इसलिए वे जनता को अत्याचार सहकर भी दो मनोबल से संघर्ष की ओर बढ़ने को प्रेरित कर रहे थे रंगभूमि 1924 में सूरदास का सृजन कर संघर्ष कि सशक्त चेतना देने की चेष्टा की है मिठूआ और सूरदास के संवाद में यह पूरी तरह स्पष्ट है:–
मिठुआ:- दादा अब हम रहेंगे
कहा ?
सूरदास:–दूसरा घर बनायेंगे।
मिठूआ :- और कोई फिर आग
लगा दे ?
सूरदास:-तो फिर बनायेंगे।
मिठूआ:- कोई हजार बार लगा दे?
सूरदास :-तो हम हजार बार
बनायेग।
मिठुआ :– और जो कोई 100
लाख बार आग लगा दे?
सूरदास :– तो हम भी100लाख
बार घर बनायेगे।
सूरदास के उत्तर में दृढ़ता और संकल्प के साथ सृजन की तीव्र आकांक्षा है। सच कहा जाए तो संघर्ष की चेतना है ।सूरदास को गर्व है कि वह मैदान छोड़कर भागा नहीं ।उसे अपने संघर्ष पर पूरा विश्वास है, और वह जीतेगा ही । सूरदास कहता है हम हारे तो क्या हुआ ?मैदान छोड़कर तो नहीं भागे ,रोए तो नहीं ,धांधली तो नहीं की। फिर खेलेंगे ,जरा दम तो लेने दो। हार- हार कर तुम ही से खेलना सीखेंगे और एक न एक दिन जीत हमारी होगी। प्रेमचंद ने ऐसे संवाद रंगभूमि (1930 )में स्वतंत्रता आंदोलन के छिडने के पहले लिखा था।उन्होंने सूरदास के रूप में भारतीय जनता की ओर से चुनौती दी थी।
प्रेमचंद के उपन्यास कर्मभूमि 1932 एवं गोदान 1936 में यह संकेत स्पष्ट है कि स्वतंत्रा संग्राम अपनी आखरी मंजिल पर तभी पहुंचेगी जब संपूर्ण भारतीय जनता एकजुट होकर इस संघर्ष में शामिल हो ।गोदान में पढ़े-लिखे युवकों एवं किसानों की एकता का संकेत है ,साथ ही महाजनी संस्कृति द्वारा शोषण के विभत्स रूपो का वर्णन है ,जिनका किसान आंदोलन में विशेष उल्लेख ना था। अछूत किसानों एवं खेत मजदूरों को लेकर कर्मभूमि मे भूमि समस्या को जोरदार ढंग से उठाया एवं लगान बंदी को मुख लड़ाई बताते हुए प्रेमचंद ने किसानों एवं मजदूरों के एकीकरण की बातें की। द्वितीय महायुद्ध के परिणाम स्वरूप ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने भारत की स्वतंत्रता का जो निर्णय लिया उसमे मजदूर आंदोलन का निर्णायक प्रभाव था।
‘मृतक भोज ‘जैसी कहानियों में प्रेमचंद ने प्रचलित कुरीतियों पर करारा प्रहार कर समाज के सामने यह स्पष्ट किया कि इनसे लोगों को कितना नुकसान होता है। साथ ही धार्मिक अंधविश्वासों से पंडित पुरोहित किस किस तरह का लाभ उठाते हैं ,यह भी अच्छी तरह सामने में रखा ।इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रेमचंद अपनी कहानियों के लिये पारिवारिक समस्याओं से लेकर राजनीतिक आंदोलन तक के क्षेत्रों से विषय वस्तु लेते है। उनकी कहानियों का संबंध उन समस्याओं से है जिनका सामना आए दिन लोगों को अपने जीवन में करना पड़ता है। उनका कहानी साहित्य हमारे जातीय जीवन का दर्पण है। हिंदी भाषी जनता के उत्कृष्ट गुण उनके पात्रों मे झलकते हैं ।
प्रेमचंद्र ने अपने युग की चिंता को सिर्फ कथा ,कहानियों एवं उपन्यासों के माध्यम से ही नहीं स्पष्ट किया वरन् अपने अग्रलेखो, टिप्पणियों एवं पत्रों के माध्यम से भी सम सामयिक सामाजिक प्रश्नों को सर्वदा उठाते रहे। उन्होंने अपने पत्रकारिता के धर्म का भी वाखूबी निर्वहण किया है , जिसे हम विविध प्रश्न नामक पुस्तक संकलन में देख सकते हैं ।अपने सजग सामाजिकता में प्रेमचंद का स्थान भारतीय साहित्यकारों में अन्यतम है। समाज का शायद ही कोई ऐसा प्रश्न होगा जो उनकी नजरों से बच पाया हो वास्तव में प्रेमचंद का लेख अपने समय का संपूर्ण इतिहास बयां करता है।
ज्योत्सना अस्थाना
जमशेदपुर, झारखंड