ये पात्र हर तीसरे घर में हैं ….
प्रेमचन्द को याद करते ही ढेर सारे पात्र साथ साथ चले आते हैं, दिमाग में मन्डराने लगते हैं फ़िर चाहे वह धुनिया,झुनिया, गोबर, होरी, निर्मला, तोताराम हों या कहानियों में से झांकते हलकू, अलगू जुम्मन ,खाला, बड़े घर की बेटी, बुधिया, हामिद, दादी, हीरा मोती की जोडी ही क्यों न हो. सब उनके नाम के साथ ऐसे चिपके हैं कि चाह कर भी अलग नही किये जा सकते. और जब व्यक्ति किसी को सुघढता से गढ़ता है तो माँ सन्तान का रिश्ता जुड़ जाता है. नाल का सम्बन्ध है यह जिससे चाह कर भी छुटकारा नही पाया जा सकता. कफ़न, पूस की रात, गोदान, निर्मला, सेवा सदन, कर्मभूमि ,पंच परमेश्वर, बड़े घर की बेटी, ईदगाह, दूध का दाम ,बूढी काकी, दो बैलो की कथा सब सिरे से याद आते जाते हैं. हीरा मोती बैलो की जोड़ी सा प्रेम क्या भुलाने की वस्तु है जो रस्सी तुडा कर मालिक के पास दौड़े चले आते हैं. एक बार को मानुस भले धोखा दे जाए पर पशु अपना स्नेह नही छोड़ पाते, उन पर सान्सारिकता का मुलम्मा इतनी जल्दी नही चढ़ता. वे अपनी मूल प्रवृत्ति नही छोड़ पाते. पाशविक वृत्ति तो मनुष्य ने ओढ़ ली पर उसका रिश्ता नाता अभी तक पशु से ही जुडा हुआ है.
बड़े घर की बेटी तो आज भी दोनों घर को जोड़े रखती हैं, वे कलह पसंद नही हुआ. करती. पैसो से आज तक कौन बड़ा हुआ भला, ये तो संस्कार और सज्जनता है जो किसी को बड़ा बनाती है. हामिद की सी प्रजाति आज भी लुप्त नही हुई, बस हमारी नजरो पर पर्दा गहरा गया है, उसकी मासूमियत तो हमने छीनी है. पारिवारिक रिश्तो से दूर कर ऊँची पढाई के लिए घर से दूर करने वाला कोई दूसरा थोड़े ही है. रिश्ते जुडने ही कहाँ दिये जाते है बस जल्दी से उन्हें इन घरेलू धंधो से विलग कर बड़ा बनाने की बात जो मन में बस गई है. दादी पोते का प्यार तो आज भी जिन्दा है क्योंकि मूल से अधिक प्यारा ब्याज होता है .हामिद को अहसास तो हो कि दादी के हाथ चिमटे के बिना जल जाते हैं. अब के बेचारे हामिद के पास तो अपनी ओन लाइन क्लासेज से ही मुक्ति नही. और वे एकल परिवार में पलते हैं. दादी तो वृद्धाश्रम की शोभा हैं.
पूस की रात में आज भी खेती करते हलकू को अलाव की गर्मी में नींद आ ही जाती है और बेचारा जबरा भौंक भौंक कर नील गायो के द्वारा फ़सल नष्ट करने की सूचना देता रहता है. अब नींद तो नींद है रात की जगार के बाद सुबह के होन में आ गई तो आ गई उस पर किसका बस. गरीबी इतनी अधिक हो कि पेट की आग न बुझ सके और खेत से चुरा कर आलू भून कर खाने पड़े, आलसी इतने कि कमाने जाने में नानी मरती हो तो बुधिया के ऊपर कफ़न डालने के ब्याज से मिले पैसो से व्यक्ति पूरी हलवा खा ले ते हैं. ये भूख है जनाब, कुछ भी करा सकती है.
अलगू जुम्मन से जोड़ीदार तो आज भी मिल जाएंगे जो पंच की कुरसी पर बैठते ही मित्रता भूल न्याय की बात कर दें.पंच की कुरसी आपके मनोमस्तिश्क को झिझोडती जरूर है अब ये अलग बात है कि आप कानो में रूई थून्स लें, और आँखो पर काला चश्मा लगा के हवा में उडते फ़िरे, अपनी अन्तरात्मा की आवाज को गिरवी रख दे और अपना आत्मसम्मान बेच खाये. झुनिया गोबर जैसे चरित्र तो आम है और धुनिया जैसे चिराग लेकर खोजने पर ही मिलते हैं. हाँ, हमारे गाँव में ही धुनिया का प्रतिरूप है जो अञाय का पुरजोर प्रतिरोध करता है, खेतो में हाड तोड मेहनत करता है, ममत्व की मूर्ति है ,सबको अपने आंचल में समेटता है, उसके दिल में बहुतेरी जगह है पर अनाचारी के आगे झुकना नही सीखा. तीखा बोलती है, तेज तर्रार है, दुनिया के आगे भोला होरी भले घुटने टिका दे पर धुनिया जैसी तो आरपार कर ही दम लेती है. कहता रहे कोई कुछ भी उन्हें पहले अपना घर देखना है. भाई डालता रहे भाई की गलत बात पर पर्दा पर धुनिया जैसी स्त्री सब पर्दाफ़ाश कर देती है. इतनी हिम्मत वाली है लेकिन पति के धरती पर गिरते ही हाथ पैर फ़ुला बैठती है ,वही तो जीवन सर्वस्व है, उसके बिना जीवन की कैसी कल्पना. गोदान का सामाजिक दबाब है पर वह क्या करे. आडम्बरो से तो उसे सख्त वैर है, कोई समझौता नही कर पाती. बस थक हार कर घर में कुल बची कमाई तीन आना पंडित जी के हाथ रख देती है कि बस ये ही है चाहे गोदान कराओ या कुछ और. उपन्यास विराम लेता है पर पाठक के आगे बडा प्रश्न छोड़ जाता है.
निर्मला तो कभी नही भुलाई जा सकती. गरीब माता पिता सब जान बूझ कर किन परिस्थितियो में उसे तीन किशोर बच्चों के पिता दूजिया वर के हाथों सोन्पते हैं .निर्मला परिस्थितियो से पूरी तरह समझौता कर लेती है पर दुनिया का क्या करे .घर के दामाद की कुद्रश्टि उस पर है, वह तो सब बनाने आई थी पर उसे ही पिता पुत्र के मध्य दीवार समझ लिया जाता है. कितना दुखद अन्त होता है निर्मला का कि आंख छलक आती है.
क्या क्या याद किया जाये और किसे बिसराया जाये, सब पढा लिखा जब यादो के झरोखे से झाँकता है, खुलता है तब समेटना मुश्किल हो जाता है, आंख गीली हो जाती है और सारे पट झटाक से बन्द कर दिये जाते हैं.
डॉ.बीना शर्मा
निदेशक केन्द्रीय हिंदी संस्थान,
भारत