रूहानियत
‘एक कहानी लिखनी है मुझे, सच्ची कहानी.. मेरे और आपके प्यार की।’
‘क्या दुनिया हज़म कर पाएगी इसे? और फिर लिखोगी क्या इसमें?’
‘सिर्फ दर्द, मेरा और आपका..’
‘फिर तो भूल ही जाओ.. कोई नहीं पढ़ेगा इसे।’
और यही चुनौती तो वह शुरुआत थी मेरी और अरुण जी की कहानी की, जिसे मैं न जाने कब से सांझा करना चाहती थी अपने सब पाठकों से। अपने पिछले तीन उपन्यासों की सफलता के बाद मेरे पाठकों को बहुत उम्मीदें बंध गई थी मुझसे, मेरी लेखनी से; मेरे जज़्बात से। पता नहीं क्यों वे मुझसे इतनी अपेक्षाएं रखने लगे थे। अपने पत्रों से, ईमेल के जरिए और यहां तक कि सोशल मीडिया के पटल पर अनेकों बार एक नए विषय पर रुमानियत से भरे नए उपन्यास के इंतजार की उनकी आस मुझे बहुत बेबस सा महसूस करवा रही थी। अपनी काल्पनिक कहानियों की रुमानियत में बांधे रखने की क्षमता वाले मेरे उपन्यासों के बाद क्या सच में वे मेरी इस कहानी को हज़म कर पाएंगे? रुमानियत से रूहानियत की ओर जाना क्या इतना आसान होगा? यह परीक्षा सिर्फ मेरी कलम की ही नहीं होगी, बल्कि मेरे उन सैंकड़ों पाठकों की भी होने वाली है, जो मेरी इस कहानी से रूबरू होंगे, जो न जाने कब से कहीं मेरे मन में दबी सिमटी व्याकुल हो रही है अब पन्नों पर निखर या फिर बिखर जाने के लिए।
१.
शाम गहरी हो चुकी थी। आसमां में सूरज बादलों से आंख मिचौली खेलता हुआ कहीं दूर क्षितिज में छिप जाने को बेकरार हो रहा था। मैं अपनी रोज की दिनचर्या की भांति ही लाॅन में आकर बैठ गई थी अपनी इकलौती साथी अपनी व्हील चेयर पर। हवा में थोड़ी सी ठंडक थी, जैसे अमूमन नवंबर की खुशनुमा शाम को महसूस होने लगती है। अंधेरा तो ज्यादा नहीं था, पर रोशनी भी तो नहीं थी। वैसे भी अब क्या फर्क पड़ता है, जब दुर्भाग्य के बादलों ने आपकी जिंदगी में एक गहरी पैठ बना ली हो।
सोना चाय का कप और मेरी डायरी और पेन रखकर चली गई थी। पर आज कुछ भी लिखने का मन नहीं हो रहा था।आज पापा की पहली बरसी थी। पिछले साल ही तो.. कैंसर की भयावह पीड़ा से लड़ते-लड़ते अंत में मुक्ति पा ही ली थी उन्होंने।माँ का तो चेहरा तक याद नहीं था मुझे। सिर्फ चार साल की रही हूंगी, जब एक सड़क दुर्घटना में.. नहीं उसे दुर्घटना तो हरगिज़ नहीं कह सकते। वह तो एक भयंकर तूफ़ान था, जिसने मेरी जिंदगी ही तहस नहस कर दी थी। ननिहाल में छुट्टियां बिताने के बाद ड्राइवर के साथ दिल्ली से वापस लखनऊ आते हुए, नींद का झोंका आ जाने की वजह से ड्राइवर के हाथों गाड़ी बेकाबू सी हो गई और गलत दिशा से आते एक ट्रक में मार दी। एक पल में ही सब कुछ खत्म हो गया।और इसी के साथ बेकाबू हो गई मेरी संपूर्ण जिंदगी। माँ को तो खो ही दिया और साथ ही खो दी अपने सहारे पर चलने की क्षमता। एक पांव के कट जाने के बाद पूरी टांग में जहर फैल जाने की वजह से घुटने तक टांग काटनी पड़ी। पापा ने कितनी भागदौड़ की थी मेरे लिए कि मेरी टांग बची रहे और बचा रह सके मेरा वजूद भी, पर..!”
“मेडम! चाय हो गई, तो बर्तन ले जाऊं?” सोना ने पूछा, तो अतीत से बाहर आई और चाय का कप उठाकर घूंट भरने लगी, पर जिंदगी की तरह यह भी एकदम बेस्वाद हो चुकी थी। किसी तरह से एक ही घूंट में खत्म कर कप ट्रे में रख दिया। बाहर डोर बेल बजने पर सोना ट्रे लेकर चली गई और मैं लॉन में लगे रात की रानी के फूलों को बेमतलब ही निहारने लगी। अभी उनके खिलने की प्रक्रिया पूरी नहीं हुई थी। मेरी कहानी भी अधूरी थी अभी।
“आइए! यह रहीं मेडम!”सोना की आवाज़ सुनकर थोड़ा अचकचा सी गई मैं कि किसे यहां ले आई है?” पीछे मुड़कर देखा, तो चालीस पैंतालीस साल के एक अजनबी शख्स को अपने सामने पाया। चेहरे पर एक सौम्य सी मुस्कान लिए, साधारण वेशभूषा में, पर आकर्षित व्यक्तित्व वाले इस इंसान को मुझसे क्या काम हो सकता है? और बिना सूचित किए ही इस तरह घर के भीतर तक किसी का यूं चले आना मुझे अच्छा नहीं लगा। मैंने सोना को थोड़ा घूर कर सवालिया नज़रों से देखा, तो वह मेरे पूछे जाने से पहले ही बोल पड़ी,” मेडम! मैंने तो कहा था बाहर बैठक में इंतजार करने को, पर यह मेरे पीछे ही यहां..!”
“क्षमा कीजिएगा, मिस काजल सिंघानिया जी, मैं बहुत उत्सुक था आपसे मिलने के लिए, इसलिए खुद पर काबू नहीं रख पाया और बिना सूचित किए ही आ गया।” उस अजनबी शख्स ने अपनी मधुर आवाज में कहा, तो ऐसा प्रतीत हुआ मानो कानों में मिश्री सी घुल गई हो।”
“पर आप हैं कौन?” मैंने कुछ बेरुखी से ही पूछा था, मुझे याद है।
“जी, मैं अरुण श्रीवास्तव, जयहिंद पब्लिकेशन हाउस से…”
ओह! अब समझी। मैंने खुद ही तो अर्पणा के हाथों अपने पहले उपन्यास की पांडुलिपि प्रकाशन हेतु भेजी थी। उसी ने बातों बातों में बताया था कि उसके ममेरे भाई का पब्लिकेशन हाउस है। दो महीने पहले ही खत्म किए इस उपन्यास को छपवाने का फिलहाल कोई इरादा नहीं था मेरा, पर वह तो जिद्द पर ही अड़ गई थी। मैंने सोना को चाय लाने को कहा, और सामने खाली पड़ी कुर्सी की तरफ इशारा करते हुए बैठने को कहा।
“मिस काजल, अर्पणा ने आपका उपन्यास दिया था। । इतनी रोचक कहानी, प्रवाहमयी भाषा, एकदम दिल को छू जाने वाली;पढ़ने बैठा, तो बस एक ही बार में सारा खत्म करने के बाद ही उठा। वैसे तो साहित्य पर ज्यादा पकड़ नहीं है मेरी, बस अलग अलग विषयों की पुस्तकें छापना तो मेरा बिजनेस है, पर पठन पाठन का थोड़ा बहुत शौक रखता हूँ।” बिना सांस लिए वह जारी रखे हुए थे अपनी बात और मैं सम्मोहित सी उनके चेहरे को ही देखे जा रही थी। उसके बाद पुस्तक के प्रकाशन के विविध पहलुओं पर उनसे लंबा चौड़ा विचार विमर्श हुआ। अपना विजिटिंग कार्ड देकर लगभग एक घंटे के बाद अरुण जी ने विदा मांगी।
अरुण जी तो चले गए थे, पर जाते जाते मुझ पर अपने धीर गंभीर व्यक्तित्व की एक गहरी छाप छोड़ गए थे। उसके बाद उपन्यास के छपने तक उनसे बहुत बार मिलना हुआ। कभी मेरे घर पर, तो कभी अर्पणा के साथ उनके दफ्तर में। इन मुलाकातों का सिलसिला लगभग एक महीने तक लगातार चलता रहा, जब तक कि मेरा पहला उपन्यास “रूबरू” प्रकाशित होकर पाठकों के हाथ में नहीं आ गया। इस बीच पापा की इन्वेस्टमेंट की वजह से मुझे कभी आर्थिक तंगी का कोई सामना नहीं करना पड़ा। एम एस सी करने के बाद विद्यार्थियों को आनलाइन कोचिंग देने के मेरे फैसले की वजह से मैं खुद को व्यस्त रखने और आर्थिक रूप से और सुदृढ़ करने में सक्षम हो चुकी थी।
“साइंस और हिंदी साहित्य, अद्भुत संगम है मिस काजल!” अरुण जी ने कहा, तब मैं सिर्फ मुस्कुरा कर रह गई थी।कब और कैसे दो विपरीत धाराएं साम्यता प्राप्त कर लेती हैं, कुछ पता नहीं चलता, पर अब धीरे धीरे इसका एहसास होने लगा था मुझे। एक अनोखे सम्मोहन में बंधती चली जा रही थी मैं और यह अजीब सा रिश्ता हर मुलाकात में गहराता सा चला जा रहा था। पर जैसे ही उपन्यास छपने का काम खत्म हुआ, एक अजीब सा खालीपन महसूस होने लगा। यह रिक्तता खाली समय की थी, या अपने अधूरेपन की, कुछ समझ नहीं आ रहा था।
“तुम इसी तरह अपना लेखन जारी रखो काजल! देखो न पहले उपन्यास की प्रतियां ही हाथों हाथ बिक गई।” यह अर्पणा थी।
“हम्म! पर इस सबका श्रेय तुम्हारे भाईसाहब को जाता है। वैसे दूसरा उपन्यास “ख्वाबगाह” भी लगभग पूरा होने वाला है। पर कब तक यूँ ही पन्नों पर अपने ख्वाबों को बुनता रह सकता है कोई?” मैंने जैसे अपने आप से ही बात करते हुए कहा था। पर सच तो यह है कि यह उपन्यास फटाफट खत्म करने के पीछे मेरी बेकरारी का कारण सिर्फ एक ही था और वह था अरुण जी से दोबारा मिलने की ख्वाहिश। और किस बहाने से मिल सकती थी भला मैं उनसे? मुलाकातों का यह सिलसिला फिर से शुरू हुआ और तीसरे उपन्यास के पूरा होने तक लगातार चलता रहा। उपन्यास की कहानी, शिल्प, भाव, प्रकाशन की पूरी प्रक्रिया, पाठकों की प्रतिक्रियाएं… बस यहीं तक सीमित रहती थी हमारी बातचीत, पर उन बोरिंग बातों में भी अरुण जी के प्रति मेरा रूझान दिन प्रतिदिन बढ़ रहा था। हाँ! एक बात थी कि इन छह-आठ महीनों में हम में से किसी ने भी एक दूसरे की निजी जिंदगी को जानने की बिल्कुल भी कोशिश नहीं की। सब कुछ इतना तीव्र गति से चल रहा था कि सांस लेने तक कि भी फुर्सत नहीं थी।
२.
आज फिर काजल जी से मुलाकात हुई कल होने वाले उनके उपन्यास के विमोचन के सिलसिले में।तब से एक पल भी उनका ख्याल दिल से जा ही नहीं रहा। न जाने कैसा सम्मोहन है उनकी आंखों में, बिल्कुल उनके नाम की मानिंद एकदम कजरारी बिन काजल के भी। बहुत कुछ बोलती हैं हरदम खामोशी से; मानो कितना कुछ कहना चाहती हों। नहीं नहीं ऐसा क्यों सोच रहा हूँ मैं? क्या यह उचित है? और वह भी मेरे लिए..इन भावनाओं का तो कहीं कोई छोर नहीं होता। हरदम तूफान सा मचाने लगती हैं मन के किसी भी कोने में। कुछ ख्वाब सिर्फ ख्वाब ही रहें, तो अच्छा। वैसे भी मुझे तो ख्वाब देखने का भी हक कहाँ है? और वह भी काजल जी के साथ? उनके सामने तो पूरी जिंदगी पड़ी है। एक खुला आसमां है, जिसको छूने के लिए वह दिन रात लगी हुई हैं। उनके तो अपने ही ख्वाब होंगे। मैं भला उनके ख्वाबों का हिस्सा कैसे हो सकता हूँ?
उम्र के इस पड़ाव पर आकर; जब मां बाबूजी जी भी साथ छोड़ चुके हैं, मेरे लिए तो मेरा काम और फिर यहीं शौक जीने के लिए बहुत हैं। पर कागज़ पर तो अपने ख्वाबों की ताबीर बना ही सकता हूँ न? उसके लिए तो कोई कायदे कानून लागू नहीं होते? कोई नहीं रोक सकता मुझे इन पन्नों पर मेरे ख्वाब बुनने से..कागज और पेंसिल से बनी इन आढ़ी टेढ़ी रेखाओं से उभरकर आया यह अक्स कितना खूबसूरत है! मेरे ख्वाबों से भी ज्यादा.. इससे तो अपने दिल की बात कह ही सकता हूँ?..और फिर उसके नीचे ही कुछ पंक्तियां लिखकर वह ड्राइंग शीट वहीं तह लगा कर रख दी, काजल जी द्वारा रचित उपन्यास की छप कर आई पहली प्रति में, जिस पर काजल ने अपने हस्ताक्षर किए थे यह लिखकर “मुस्तकबिल” पहली प्रति अरुण जी के नाम..इसका मतलब.. नहीं नहीं, बेकार की बातें सोच रहा हूँ मैं, जिन्हें सोचने का हक मुझे नहीं है। और उपन्यास वहीं कोने में रख आँखें मूंद ली।
३.
आज ” मुस्तकबिल” का विमोचन था, जिसका सारा प्रबंध भी अरुण जी ने किया था। सब कुछ बहुत खुशी खुशी से निपट गया था। विमोचन के बाद जब अर्पणा ने मुझे और अरुण जी को अपने साथ अपने घर पर डिनर के लिए चलने को कहा, तो इंकार की कोई गुंजाइश नहीं थी। अर्पणा घर पहुंचते ही अपनी मम्मी के साथ रसोईघर में खाने की तैयारियों में व्यस्त हो गई और ड्राइंग रूम में मैं और अरुण जी चुपचाप अकेले बैठे थे। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या बात करें?
“अब आगे क्या सोचा काजल जी?”
“क्या सोचना? अब थोड़ा थक गई हूँ। ब्रेक चाहती हूँ। दिन रात वहीं डायरी, लेपटॉप.. क्या यही जिंदगी है मेरी?” उधर से जवाब आने की प्रतीक्षा में थी, पर सिर्फ एक खामोशी थी प्रत्युत्तर में। उसके बाद डिनर पर भी कोई खास बात नहीं हुई। रात में अर्पणा की मम्मी ने मुझे वहीं रुक जाने को कहा, तो उनके स्नेहिल आमंत्रण को ठुकरा नहीं सकी। सोने के लिए शयनकक्ष में आए, तो अर्पणा अपने बचपन की तस्वीरों वाली एल्बम उठा लाई और मुझे दिखाने लगी। एक तस्वीर देखते हुए जोर जोर से ठहाका लगाते हुए हंसने लगी,” समय कितनी तेजी से दौड़ता है, है न काजल? यह देख मेरे बचपन की तस्वीर। तब दो साल की रही हूंगी। तुम्हें पता है किसकी गोद में हूँ, अरुण भईया की।” मैंने भी उत्सुकता से देखा, तो चौदह पंद्रह साल के लड़के की गोद में दो साल की नटखट बच्ची की तस्वीर देख मुस्कुरा उठी। ” यह अरुण जी उम्र में तुमसे काफी बड़े हैं!”
” हां! पूरे बारह साल का। दरअसल मेरे मामा जी और मम्मी की उम्र में भी लगभग पंद्रह साल का अंतर है। पहले के जमाने में भी न लोग..! ” और बिना बात पूरी किए फिर जोर से हंस पड़ी।
“तब तो अरुण जी पैंतालीस से ऊपर के होंगे न? शादी नहीं हुई अब तक उनकी?” पता नहीं कब से मेरे मन में दबा सवाल जुबां पर आ गया। एक पल में ही अर्पणा की हंसी गायब हो गई मानो किसी ने तुषारापात कर दिया हो उसकी खुशनुमा यादों पर।
“नहीं, उन्होंने शादी नहीं की।” एक संक्षिप्त सा उत्तर था।
“कोई खास वजह..मेरा मतलब कोई अफेयर वगैरह?”
“हद करती हो काजल! सबकी जिंदगी रूमानी कहानियों से भरी नहीं होती। तुम्हें तो कहानियां ढूंढने की आदत पड़ गई है सबकी जिंदगी में।” अर्पणा ने गुस्से से सारी एलबम समेटते हुए कहा। मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि मैंने ऐसा क्या ग़लत पूछ लिया था।
“माफ़ करना काजल, कुछ ज्यादा ही गुस्सा हो गई थी मैं।पर तुम्हें अरुण भैया की जिंदगी के बारे में जानने की इतनी इच्छा क्यों है?” थोड़ी देर बाद अर्पणा ने अपनी गलती महसूस करते हुए पूछा।
“क्योंकि मैं उनसे प्यार करने लगी हूँ और उनसे शादी करना चाहती हूँ।” अपनी प्रिय सखी से कुछ भी छिपाने का मेरा कोई इरादा नहीं था, इसलिए मैंने उसे स्पष्ट बताना ही बेहतर समझा। अर्पणा के चेहरे पर उलझन के भाव मैं स्पष्ट रूप से पढ़ पा रही थी।
“वह तुमसे उम्र में दस बारह साल बड़े हैं। भूल जाओ उन्हें।”एक ठेस सी लगी यह सुनकर। अर्पणा उसके बाद दूसरी तरफ मुंह करके सो गई, पर मेरी नींद उड़ गई थी।
४.
अरुण जी के साथ अपने रिश्ते को लेकर मेरे मन में किसी भी तरह तरह की उलझन नहीं थी। यह मात्र ऊपरी आकर्षण भी नहीं कहा जा सकता था क्योंकि वे उम्र से मुझसे काफी बड़े होने के साथ साथ धरातल से जुड़े इंसान थे। बहुत लोगों से मिलना जुलना होता होगा उनका, फिर भी किसी की तरफ आकर्षित नहीं हुए होंगे, यह समझ नहीं पा रही थी मैं। मेरे सपनों में मैंने भी तो किसी आकाश से घोड़े पर सवार होकर आने वाले राजकुमार की कल्पना कहाँ की थी? अपनी तन्हाइयों में सदा खुश रहने वाली मैं अरुण जी की ओर ही क्यों खिंची जा रही थी? कुछ तो भावनात्मक लगाव था, जो हर मुलाकात के साथ बढ़ता ही जा रहा था। वैसे तो मैंने कल ही उपन्यास की प्रति उन्हें तोहफे के रूप में देते हुए इस बात का संकेत तो दिया था उन्हें आटोग्राफ लिखते हुए, पता नहीं वो समझे भी होंगे या नहीं? पर अब और इंतजार नहीं कर सकती। फिर अपनी इन्हीं भावनाओं का सामने से इज़हार किए बिना कैसे हार मान लेती भला? मन ही मन ठान लिया था कि इस सवाल का जवाब तो मुझे जानना ही है कि क्या अरुण जी के मन में भी मेरे लिए वैसी ही भावनाएं हैं या फिर यह सिर्फ एकतरफा मोहब्बत की कोई दास्तां बनकर रह जाएगी?और अगर मेरे अपाहिज होने की वजह से..तो क्या हुआ? जहाँ इतने दर्द सहन किए हैं, एक और सही, यही सोचते सोचते अब पलकें मुंदने लगीं थीं।
५.
अगले दिन सुबह अर्पणा के घर से नाश्ते के बाद जब ड्राइवर मुझे लेने आया, तो शांत चित्त से मैंने उसे गाड़ी सीधे अरुण जी के घर की ओर ले जाने को कहा। इससे पहले मैं कभी उनके घर नहीं गई थी, हालांकि अशोक नगर में उनके दफ्तर जाते हुए रास्ते में उनके एरिया से ही गुजरते हुए जाना होता था, यह अर्पणा से ही पता चला था मुझे। माडल टाउन में उनकी कोठी के सामने गाड़ी से उतर मैंने ड्राइवर को वापस भेज दिया यह कहकर कि मेरा काम खत्म होते ही उसे बुलवा लूंगी। वाॅकर के सहारे अपनी नकली टांग को लगभग घसीटते हुए मैंने दरवाजे पर पहुंच कर थोड़ा हिचकिचाहट के साथ घंटी बजा दी। आज रविवार था, इसलिए कहीं वे देर तक सोए हुए ही न हों, यह सोचकर भी थोड़ी झिझक सी महसूस हुई। पर अब यहां तक आ गई थी, तो वापस लौटने का तो सवाल ही नहीं था। दो मिनट बाद ही दरवाजा खुला, तो सामने अरुण जी ही थे, सिर्फ बनियान और लुंगी पहने हुए। मुझे यूँ सामने देख एकबार तो झेंप से गए।
“अरे आप काजल जी! और वह भी इतनी सुबह..मेरा मतलब..आइए न, बाहर क्यों खड़ी हैं?”
‘सुबह कहाँ है अरुण जी? ग्यारह बज रहे हैं। दरअसल अर्पणा के घर से लौट रही थी, तो सोचा आपसे मिलती चलूँ। कल तो आपको ढंग से धन्यवाद भी नहीं कह सकी।” अंदर ड्राइंग रूम में आते हुए यही कहा, और कुछ सूझ नहीं रहा था।
“हां हां, कोई बात नहीं। आप बैठिए, मैं दो मिनट में आया.. सिर्फ दो मिनट।”
मैंने खुद को लगभग सोफे पर पटक ही दिया। मन की उथल-पुथल और तेज हो रही थी। करीने से सजा यह छोटा सा ड्राइंग रूम उनकी उपलब्धियों को दर्शाती हुई ट्राफियों से भरा हुआ था। सामने की दीवार पर एक बुजुर्ग दंपति की तस्वीर लगी हुई थी, जिसपर फूल माला चढ़ी हुई थी। गौर से देखा, तो याद आया कि यही तस्वीर कल अर्पणा ने मुझे अपनी एल्बम में दिखाई थी। मतलब उसके मामा मामी..! सारे कमरे में हल्के रंग के पर्दे लगे थे। सजावट के तौर पर और कुछ खास नहीं था। क्या मुझे इस तरह यहां आना चाहिए था, वह भी बिना सूचित किए। पता नहीं घर में कोई और है भी या नहीं? अकेले ही हुए तो..क्या उनसे बात कर भी पाऊंगी? यही सब सोचते हुए सोफे के कुशन पर सिर टिका दिया।
“यह लीजिए पानी। ” सामने हाथ में ट्रे लिए अरुण जी खड़े थे। मैं एकदम से अचकचा गई और अपने आप को संभालते हुए ट्रे से पानी का गिलास उठा लिया और एक ही घूंट में खत्म कर दिया। बहुत जल्दी से पीने की वजह से गले में कुछ अटक गया और खांसी सी होने लगी। अरुण जी ने फटाफट ट्रे मेज पर रखी और मेरी पीठ पर हल्का हल्का थपथपाने लगे,” अरे आराम से, ऐसी भी क्या जल्दी है?” फिर फटाफट अपना हाथ हटाकर सामने वाले सोफे पर बैठ गए। इस जरा से स्पर्श ने मुझे भावविभोर सा कर दिया। ऐसे स्नेहिल स्पर्श के लिए तो कब से तरस रही थी मैं। पर अब पूरी तरह से संभल कर बैठ गई थी। अरुण जी अब टी शर्ट और पजामा में मेरे सामने बैठे थे। वे भी मेरे इस तरह बिना बताए चले आने से शायद कुछ कंफर्टेबल महसूस नहीं कर रहे थे।
“माफ़ कीजियेगा, मुझे शायद इस तरह से यहां नहीं आना चाहिए था।”
“अरे नहीं, नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। आप चाय काफी कुछ लेंगी? अनिता तो शनिवार शाम को अपने घर चली जाती है छुट्टी लेकर और फिर रविवार दोपहर को ही आती है। वैसे भी मुझे रविवार को कोई जल्दी नहीं होती उठने की। चाय नाश्ता मैं खुद ही बना लेता हूँ तब तक।”
“ओह, इसका मतलब आपने नाश्ता नहीं किया अभी तक। चलिए मैं बना देती हूं कुछ आपके लिए।” पता नहीं कैसे मैं इतनी अनौपचारिक सी हो गई थी।
“जी, मेरा नाश्ता तो तैयार ही है। मैं रसोई में ही था,जब आप आईं। पर अभी भूख नहीं है। चलिए एक एक कप चाय हो जाए।” अरुण जी दोबारा रसोईघर में चले गए थे और मैंने समय बिताने के लिए वहीं मेज पर रखे अपने ही उपन्यास, जिसकी पहली कॉपी छपते ही अरुण जी ने मुझसे मेरे आटोग्राफ समेत मांग ली थी, उठा ली। पन्ने पलटने लगी, तो पुस्तक के भीतर तह लगा एक कागज देख खुद को रोक नहीं पाई और उसे खोलकर देखा, तो आंखें फटी की फटी रह गई , एक ड्राइंग शीट पर बना इतना खूबसूरत पेंसिल स्केच, यह तो मैं थी..पर बिल्कुल कोने पर लिखी कुछ पंक्तियां
“काजल जी!
कुछ जज्बात, कुछ एहसास निभाने इतने भी आसान नही होते
कुछ मजबूरियों, कुछ रिवायतों में बँधा हर इंसान है..”
ऐसी भी कौन सी मजबूरी है, जो खुलकर हम अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त तक नहीं कर सकते? आज तो पूछकर ही रहूंगी। अरुण जी चाय लेकर आ चुके थे। मैंने किताब पहले ही अपनी जगह पर रख दी थी। खामोशी में चाय भी निपट गई। समझ नहीं आ रहा था कि बात कहां से शुरू करूं? क्या सोचेंगे मेरे बारे में? पर पहल तो मुझे ही करनी थी, यह तो तय था।
“आप यहां अकेले ही रहते हैं, मेरा मतलब कोई और नहीं है घर में? बीवी बच्चे?” बहुत ग़लत भी लगा यह सब पूछते हुए, जबकि अर्पणा से पहले ही पता चल चुका था कि उनकी शादी नहीं हुई है।
“क्यों? शादी करना क्या इतना जरूरी है?” इस सीधे सपाट प्रत्युत्तर की मुझे उम्मीद नहीं थी,” क्या इंसान अकेले जीवन नहीं काट सकता? जीवनसाथी से क्या मतलब है आपका? आप तो ज्यादा जानती होंगी मिस काजल, आखिर आप तो तीन तीन रूमानी उपन्यास रच चुकी हैं।” पता नहीं यह सवाल था या फिर तंज? कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या जवाब दूं। थोड़े क्षणों के लिए अपने भीतर के हौसले को इकट्ठा किया और फिर सीधे ही अगला सवाल दाग दिया बिना किसी लाग-लपेट के,” और अगर कोई आपसे मोहब्बत करने लगा हो, तो?”
“कौन मोहब्बत करेगा मुझसे? सैंतालीस का होने वाला हूँ काजल जी,और अब यह कोई उम्र नहीं है प्यार मोहब्बत था फिर शादी की। बाय द वे, आप क्यों ये सवाल कर रही हैं? जरूर कोई कहानी का नया प्लाट घूम रहा होगा आपके मन में, है न?” अरुण जी थोड़ा तैश में आकर बोले। मैं थोड़ा सा सहम गई थी। लग रहा था कि मन में दबी हुई सारी संवेदनाएं धूमिल इतिहास न बन जाएं कहीं। मेरे जज़्बात कहीं इंकार की तपिश से झुलस तो नहीं जाएंगे? मैं अरुण जी के करीब आ गई थी। मेरी धड़कनें तेज होने ही लगी थी कुछ और हिम्मत जुटा कर शब्दों को लगभग चबाते हुए इतना ही कह पाई,”आय लव यू अरुण जी!” बस इतना कहने की देरी थी कि उन्होंने हल्का सा धक्का देकर मुझे पीछे धकेल दिया और मैं अपमानित होकर भी रो तक नहीं पाई। हाँ! आंसुओं का एक कतरा आंखों की कोर पर तैर सा गया।
“माफ़ करना काजल जी, ऐसा असंभव है। दरअसल आपने यह जो तीन शब्द कहें हैं न, वो मेरी जिन्दगी में ऐसे शब्द हैं, जिन्हें सुनने के लिए तो मैं सारी उम्र बहुत तरसा हूँ, ।”अरुण जी के शब्दों में एक बेबसी थी।
“फिर भी.. फिर भी क्या और यह क्या है?”मैंने किताब में से वह ड्राइंग शीट निकाल कर दिखाते हुए पूछा।
“पहले मुझे मेरी बात खत्म करने दीजिए। जो मैं आपको बताने जा रहा हू़ँ, उसके लिए बहुत हिम्मत चाहिए। मैं इस सभ्य समाज का वह अंग हूँ,जिसकी सच्चाई जानने के बाद यह समाज ही उसे स्वीकार नहीं कर पाता है। प्रेम के लिए दो लोगों का होना जरूरी है स्त्री और पुरुष, पर मुझमें.. बचपन से ही मेरे शारीरिक संरचना में ये दोनों ही आधे अधूरे रूप में मौजूद हैं। कहते हैं कि इस सापेक्ष जगत में सिर्फ ईश्वर ही हैं, जो निष्पक्ष, निर्विकार और संपूर्ण है। पर उसी प्रभु की ही गलती का परिणाम हम जैसे लोग इस धरती पर एक सजा के रूप में भुगतने के लिए पैदा हुए हैं।पर ऐसे में भी उसकी रजा को मानने के अतिरिक्त कोई चारा है क्या हम इंसानों के पास? बोलिए काजल जी, क्या मेरे आधे अधूरे प्रारूप को आप अपना पाओगी? मैं आपको वह सब नहीं दे पाऊंगा, जो आप एक पति से पाना चाहोगी। ऐसे में तरस खाकर आप मुझसे शादी कर भी लो, तो क्या जिस्म से परे जाकर वो रुहानी प्यार दे पाएंगी मुझे जो मैं आपसे चाहता हूँ? क्या स्वीकार कर पाएंगी मेरे आधे अधूरे वजूद को?” यह कहते हुए हांफते हुए से अरूण जी वहीं सोफे पर बैठ गए। कुछ पलों के लिए तो मेरी भी आंखों के सामने अंधेरा सा छा गया। बहुत कुछ था कहने को, पर जुबां साथ नहीं दे पा रही थी, फिर भी आज तो सब कुछ कहना ही था।
“अरुण जी! यह सब तो हमारी किस्मत ने हमारे साथ एक खेल खेला है। मैं तो खुद ही आपके प्यार के सहारे खुद के इस अधूरेपन को खत्म करना चाहती हूँ।” मैंने किसी तरह खुद को संभालते हुए अपनी टांग की तरफ इशारा करते हुए बोलना शुरू किया,”पर अब तो यह महसूस हो रहा है कि शायद ईश्वर ने कुछ सोच समझकर ही हम दोनों को मिलाया है। जिस प्रेम की कमी को हम दोनों ने सारी जिंदगी झेला है, उसे हमें लौटाना चाहते हैं वो। यह तो उसकी रहमत का एक इशारा है, जिसे हमें समझना होगा।”
“काजल जी! यह आपके उपन्यास के वे पात्र नहीं हैं, जिनकी जिंदगी को आप सिर्फ़ खुशियों भरे गीतों के इंद्रधनुष से सजाने संवारने में लगी रहती हैं। किताबों की दुनिया से बाहर निकल वास्तविक जिंदगी में झांक कर देखिए। आप एक पढ़ी लिखी आत्मनिर्भर महिला हैं। यह एक पांव का न होना कोई बहुत बड़ी कमी नहीं है। बहुत ही अच्छा जीवनसाथी मिल जाएगा आपको ,पर कुछ नहीं है मेरे पास आपको देने के लिए। न शारीरिक सुख, न मातृत्व की आस.. उम्र में भी आपसे बहुत बड़ा हूँ, जाने किस मोड़ पर छोड़ जाऊंगा..।”
“श..श.. प्लीज़ ऐसा मत कहिए। और वैसे आप भी तो मुझे चाहते हैं न ? प्यार करने का हक तो आपको भी है..है न?” मैंने उनकी आंखों में झांकते हुए पूछा” सिर्फ एक बार अपने दिल पर हाथ रख कर सच कह दीजिए। आपकी कसम खाकर कहती हूँ कि आपका प्यार ही बहुत है मेरे जीवन के आसमां में सतरंगी इन्द्रधनुष बिखेरने के लिए। वैसे भी अगर जिस्मानी संबंध ही रिश्तों की मजबूती का आधार होते, तो समाज में तलाक के मामले बिल्कुल नहीं होते। रही बात संतान सुख की, तो उसके लिए भी और बहुत से रास्ते खुले हैं। कितने मासूम हैं, जो ममता की छांव के लिए तरसते अनाथालयों में अपना जीवन बिता रहे हैं, क्या हम मिलकर किसी एक का भी जीवन सुधार इंसानियत का फ़र्ज़ नहीं निभा सकते? आप साथ देंगे तो सब राहें आसान हो जाएंगी मेरे लिए। बोलिए, देंगे न मेरा साथ?” अरुण जी के और करीब जाकर उनके हाथों में हाथ देते हुए पूछ लिया था मैंने। आंसुओं से भरी आंखों से हम दोनों के जीवन की सारी कालिमा धुल चुकी थी। मेरे चेहरे पर हल्की सी चपत लगाकर पूछ बैठे
“और फिर आपके अगले उपन्यास का क्या होगा?” उसकी तो पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी।..
सीमा भाटिया
जन्मतिथि – 5फरवरी,
शिक्षा – स्नातकोत्तर (हिन्दी)
लेखन की विधाएँ – गद्य और पद्य दोनों में
प्रकाशित पुस्तकें – सांझा संग्रह_ संदल सुगंध, लम्हों से लफ्ज़ों तक, सहोदरी सोपान, अल्फाज़ ए एहसास (काव्य संग्रह)
सफर संवेदनाओं का,आसपास से गुजरते हुए, लघुतम-महत्तम, सहोदरी लघुकथा २, लघुकथा कलश, समकालीन प्रेम विषयक लघुकथाएं और समय की दस्तक ( लघुकथा संग्रह)
शुभ तारिका, सत्य की मशाल, स्वर्णवाणी ,नूतन कहानियां, प्रखर गूंज, कलमकार जैसी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन
पुरस्कार/सम्मान – “शुभतारिका”पत्रिका में मेरी कहानी “सात वचन” को 2017 में तृतीय पुरस्कार और “जुगनू अम्मा” के लिए “गृहस्वामिनी- कलम के उपविजेता २०२०” चुना गया।
वर्तमान में महिला काव्य मंच लुधियाना इकाई में महासचिव और गृहस्वामिनी में पंजाब एम्बेसडर के रूप में कार्यरत हूँ।