कैसे लिखूं तुम्हें मैं

कैसे लिखूं तुम्हें मैं

कैसे लिखूं तुम्हें मैं,
कैसी तस्वीर बनाऊँ?
मन और काय की भाषा,
परिभाषा लिख न पाऊँ।

उंगली थाम सिखाया चलना,
सतपथ की दिशा बताई।
साहस नित ही रहे बढ़ाते,
तुमने जीत की राह दिखाई।
हर कठिनाई सरल बनी,
हर सम्भव हल बतलाया।
संस्कार भरे संस्कृति सिखलाई,
स्वाभिमान का अर्थ बताया।।

उसी भाव की महिमा के,
कुछ अनुभव आज बताऊँ।
देवतुल्य हे!पिता हमारे,
नित श्रद्धा सुमन चढ़ाऊँ।

कैसे लिखूँ तुम्हें मैं—–

अपनी व्यथा जो पीड़ा,
हँस हँस कर थे सह जाते।
जीवन की हर बाधा का,
चुटकी में हल बतलाते।
धीरज दुख में सिखलाते,
शीतल चन्दा जैसी तुम साया,
जीवन से हर ताप मिटाया।
तुम थे जैसे कल्पतरु की छाया।।

सुखमय छाँव पिता की,
सारे जग से यही बताऊँ।
कभी न भूलो जीवन में,
मैं सबको यही सिखाऊँ।

कैसे लिखूँ तुम्हें मैं–

निःछल प्रेम पिता का,
मैं सबसे यही बताऊँ।

स्मृति चौधरी
संस्थापक शैक्षिक आगाज़
कस्टोडियन रेडियो मेरी आवाज

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