चलो, धरती को रहने योग्य बनाएँ
प्रकृति और मनुष्य – दोनों जैसे न जाने कैसा लुका छिपी का खेल खेल रहे हैं। प्रकृति मनुष्य को बार-बार आगाह करती है और मनुष्य जैसे सब कुछ समझकर भी अनसुनी कर रहा है। पर्यावरण दिवस यानि कि 5 जून को हर वर्ष हम अपनी प्रतिज्ञा दोहराते हैं कि पर्यावरण का संरक्षण करेंगे। हवा, मिट्टी, पानी का दुरूपयोग नहीं करेंगे। लेकिन फिर संसाधनों के उपभोग और उपयोग के खेल में लग जाते हैं। मनुष्य ने प्रकृति को अपनी दासी ही बना दिया है। कटते वन, सूखती नदियाँ, गंदे गैस उगलते कारखाने, समुद्रों में प्लास्टिक, मछली तथा अन्य जैविक संसाधनों का दोहन — ये तो इतनी लम्बी लिस्ट है कि शायद खत्म ही नहीं हो। पानी के लिए तीन-तीन किलोमीटर चलती बच्चियाँ, सूखा और बाढ़ की विभीषका से जूझते किसान, ये दृश्य अब हमें नहीं झकझोरते | ये भारत की ही नहीं, अन्य देशों की भी समस्याएँ हैं। अफीका, दक्षिण एशिया सहित भारत और पूर्व एशिया में यह गंभीर रूप ले रहा है। बढ़ती जनसंख्या और सीमित संसाधन यह एक ऐसा चक्रव्यूह है, जिसे हम काट ही नहीं पा रहे हैं। तो फिर क्या करें आदमी जिससे कि वह इस चक्र से निकल सके ? इसके लिए सबसे जरूरी है कि हम अपने आस पास के वातावरण को पहचानें।
इस बार विश्व पर्यावरण दिवस में कहा गया कि धरती के साथ सामंजस्य बना कर चलो। हमारे आस पास जो है, उसे बचाकर चलना ही होगा। तो शुरूआत के लिए क्या करे? नजरें घुमा कर देखें तो पड़ोस का पार्क नजर आएगा। गली मोहल्ले की सड़कें नजर आएँगी। पानी का पाइप नजर आएगा। शहरों से गाँव जाने के रास्ते में पानी के तालाब नजर आएँगे और नजर आएँगे पेड़-पौधे, मधुमक्खियाँ, चिड़िया इत्यादि ।
अगर धरती को रहने योग्य बनाना है तो शुरूआत अपने ही घर से करें। पानी का दुरूपयोग ना हो, यह संकल्प एक छोटा सा कदम होगा। इसके अलावा राष्ट्रीय स्तर पर एक जंग छेड़नी होगी। मनुष्य और पर्यावरण की रक्षा में पेड़ों का अभूतपूर्ण योगदान है। पेड़ ना केवल “कार्बन सिंक’ का कार्य करते हैं बल्कि और भी बहुत कुछ देते हैं। पेड़ तो लगाए जाते हैं लेकिन बचते कम है। एक-एक इंच जमीन, जो बची हुई हैं, वहाँ पेड़ लगाने का कार्य करना है। हमारे देश में लक्ष्य बनते हैं और उन पर अमल कम होता है। जरूरी है कि न केवल 5 जून को, बल्कि सालों भर हम इस जंग में जुटे रहें। तूफान ‘यास’ ने एक और कड़वी सच्चाई हमारे सामने रखी। ‘सुंदरी वृक्ष/ जो सुंदरवन का खास वृक्ष है, बडी संख्या में काट दिए गए हैं। आज वृक्ष ना होने के कारण समुद्री पानी खेतों में घुस आया है। वहाँ के किसानों की रोजी रोटी भी अब दुर्लभ होगी। अगर पेड़ वहाँ होते तो एक सुरक्षा कवच खेतों को मिल जाता। तटीय इलाकों में ‘मैनग्रोवः को काटकर ‘मछली’ की खेती की जाती है। अब पेड़ों को काटकर इस खेतों को बनाने की आवश्यकता कहाँ है ? लेकिन ‘प्रगति’ और ‘प्राकृतिक सुरक्षा’ में काटे की टक्कर है। क्या हम थोड़ा और सजग हो सकते हैं ?
धरती को रहने योग्य बनाने के लिए तीन बातों का संकल्प जरूरी है। एक, हम सारे दुरूपयोग रोकें और अनावश्यक उपभोग ना करें। इस मानसिकता से निकल ही हम आगे बढ़ सकेंगे। दूसरा, प्रत्येक काम की “प्रकृति संबंधी / पर्यावरण रक्षा” संबंधित ‘ऑडिट’ हो। जैसे कि, अगर एक कारखाना चलाते हैं तो क्या धुआँ प्रतिबंधित आंकड़ों के अंदर है ? अगर जमीन से पानी निकाल रहे हैं तो क्या हमने “जल संचय’ की नीतियाँ अपनाई हैं ? इस स्वचालित या सेल्फ ऑडिट से लोगों में जागरूकता बढ़ेगी और शायद लोग सोचने पर मजबूर होंगे। थोड़ा ही सही, विचारों में बदलाव आएगा। तीसरा, लोगों में ज्यादा से ज्यादा जागरूकता फैलाना और उनको पर्यावरण संबंधी कार्यों से जोड़ना। जैसा कि नदी, तालाबों की सफाई में जुड़ना, पेड़ लगाना। हर गली, मोहल्ले, गाँव में क्या पक्षी, पेड़, वन्य जन्तु मिलते हैं उनकी एक सूची तैयार करना। ‘बायोडाइवर्सिटी सूची” से हमारा परिचय अपने परिवेश से होगा और तभी हम उनकी रक्षा कर सकेंगे।
धरती को अगर फिर से रहने योग्य बनाना है, तो धरती की पुकार को समझना होगा। सरकारी तंत्र के अलावा गैर सरकारी ईकाइयों को भी जोड़ना होगा। एक ‘हरे अभियान’ की आवश्यकता महसूस की जा रही है। उसे एक स्वरूप देने का वक्त आ गया है। धरती के उत्सव को आत्मसात करना होगा। मुश्किल तो है, लेकिन उस राह पर चलना होगा जिसमें प्रकृति और मनुष्य का पूर्ण समन्वय हो सके।
डॉ. अमिता प्रसाद
दिल्ली