ओ नरभक्षी
1.
ओ विषाणु,
सुन, तुझे रक्त चाहिए
आ, आकर मुझे ले चल
मैं रावण-सी बन जाती हूँ
हर एक साँस मिटने पर
ढेरों बदन बन उग जाऊँगी
तू अपनी क्षुधा मिटाते रहना
पर विनती है
जीवन वापस दे उन्हें
जिन्हें तू ले गया छीनकर
मैं तैयार हूँ
आ मुझे ले चल।
2
ओ नरभक्षी,
हर मन श्मशान बनता जा रहा है
पर तू शान से भोग करता जा रहा है
कैसे न काँपते हैं तेरे हाथ
जब एक-एक साँस के लिए
तुझसे मिन्नत करते हैं करोड़ों हाथ
और तेरा खूनी पंजा
लोगों को तड़पाकर
नोचते-खसोटते हुए
अपने मुँह का ग्रास बनाता है
अब बहुत भोग लगाया तूने
जा, सदा के लिए अब जा
अंतरिक्ष में विलीन हो जा।
डॉ. जेन्नी शबनम
साहित्यकार
दिल्ली, भारत