मेरे अंतस के बुद्ध
बुद्ध ना सिर्फ कपिलवस्तु में थे और
ना ही मात्र कुशीनारा में,
बल्कि वो तो सदैव से ही साधनारत थे
मेरे भी मन की सुप्त गुफाओं में,
क्योंकि महसूस करती हूं मैंने भी अक्सर
वो असहनीय वेदना जो बूढ़े , बीमार और लाचार को देख कर उमड़ती है,
गरीबों की दयनीयता मुझे भी झझकोर के रख देती है,
मृत्यु अनेक प्रश्न
उठाती है मेरे भी भीतर,
हाँ , कई बार सांसारिक सुखों
से ऊब कर मेरा भी मन भर जाता है वितृष्णा से
और चाहती हूँ मैं भी
कभी जागूँ सारी रात
मणिकर्णिका के घाट पर और
निर्बाध जलती चिताओं से
पूछूँ मोक्ष का मार्ग
या मोहमाया का त्याग कर
किसी निर्जन गुफा में
लीन हो जाऊं ब्रह्म साधना में,
कई बार रातों की नीरवता में
ब्रह्मसाक्षत्कार की तीव्र उत्कंठा जाग जाती है मुझमें भी,
किन्तु पाती हूँ
स्वीकार नहीं है मुझे बुद्ध होना
मुझे तो ज्ञान की तमाम अनुभूतियों के बाद भी
आकर्षित करती है
सांसारिक मृगतृष्णा,
मुझे आकर्षित करते हैं
माया के अनेकों प्रलोभन
तभी तो गहन ज्ञान के उच्च शिखर पर भी क्षणिक भौतिक सुख अपनी बाहें पसारे बुलाता है मुझे
और फिर अपने अंदर के बुद्ध
को छोड़ आना चाहती हूँ किसी दिन
उसी बोधि बृक्ष के नीचे,
क्योंकि पाया है मैंने कि माया के जंगलों के बीच मेरा चंचल-मन
बुद्ध और उनकी ज्ञान भरी बातों को किसी घने वृक्ष के कोटर में छुपा
देना चाहता है
मुझे तो मृगमरीचिका के भंवर औरमाया की असीमित बातों में ही मुझे परं-सत्य और मोक्ष के द्वार दिखते हैं
और फिर मेरा कमजोर मन इन्हीं क्षणिक सुखों के पीछे चल पड़ता है
कदम दर कदम
मन की बाह्य यात्रा पर।
सत्या शर्मा ‘ कीर्ति ‘
साहित्यकार
रांची, झारखंड