मां कभी अबला नही होती
स्त्रियों को देवी कह कर पूजने वाले भारत में महिलाओं का जीवन अत्यंत ही संघर्षपूर्ण रहा है।हमारे जिस समाज में महिलाओं को हमेशा एक अबला नारी के रूप में देखा जाता है।आज मैं उसी समाज की एक ऐसी महिला की बात करूंगी, जिसको मैंने अपने बचपन से लेकर आज तक देखा और गुना,या यूँ कहें कि आज मैं जो कुछ भी हूं उसी के बदौलत हूं।
आज ‘मदर्स डे’ पर मैं अपनी मां की बात करूंगी जो अबला होते हुए भी सबला थी।जी हाँ ! आज मैं अपनी मां के बारे में बात करना चाहती हूं।मुझे,आज भी अच्छी तरह याद है ढलती हुई वो साँझ और आंगन में तुलसी के चौरे पर रखा टिमटिमाता हुआ दिया जो अचानक आये तूफान से बुझ गया था।नियति का क्रूर अट्टहास…रोड एक्सीडेंट में पापा के मृत्यु की खबर से हमारे जीवन में भूचाल आ गया था और एक अनचाहा ग्रहण हम सबके जीवन पर लग चुका था । चांदी की तरह दमकती माँ की मुस्कान जाने कहाँ खो गई।जो उसने सोचा नहीं था ….जो उसने चाहा नहीं था…. अब उन्हीं चुनौतियों से माँ का सामना होने वाला था।
माँ की निर्जन और बीहड़ आंखों में,अब हमें पिता दिखाई देने लगे थे।हम 6 भाई-बहन माँ को देखकर स्वयं नजरें झुका लेते।
मौन की प्रत्यंचा पर साध हृदय के कोलाहल को 8वीं क्लास पास मां ने, वो सारे फर्ज पूरे किए जो पिता को करना था।मां ने तय कर लिया कि चाहे कुछ भी हो जाए हर बाधाओं का सामना करेगी। अपने कोमल अंतस को ठोक-पीटकर अलग तरह के साँचे में ढालेगी और किसी भी कीमत पर अपना आत्मविश्वास नहीं खोने देगी।
जो जिंदगी ! उसके लिए कई परतों में लिपटी हुई एक रहस्यमयी किताब हुआ करती थी । अब उसी जिंदगी के हर पन्ने पर मां की दमदार उपस्थिति दर्ज होने लगी थी।
हम सब भाई-बहन अपने कैरियर के दोराहे पर खड़े थे।
मैं भाई -बहनों में सबसे छोटी थी।समझ नहीं आ रहा था अब क्या और कैसे होगा।
मां ने अपनी कुशलता और बुद्धिमता से न सिर्फ अपने- आपको संभाला बल्कि खामोश और खूंखार समाज की परवाह न करते हुए अपने बच्चों की जिंदगी को भी सींच कर पल्लवित किया।उसका बस चलता तो अपने बच्चों के लिए सूरज पर भी छा जाती।कुछ नहीं पढ़ा था उसने, न रामायण,न महाभारत बस कुछ सूक्तों के अर्थ को अंश-अंश पढ़ा और गढ़ा था । और जिसके परत दर परत को अपने जीवन में उतार कर सावधानी पूर्वक हमें घुटाया करती थी।अनपढ़ होकर भी वह पढ़ लेती थी हमारी आत्मा के सारे अक्षर।
व्यथा, पीड़ा,भय और विलाप जैसे शब्दों से अब दूर-दूर तक उसका कोई नाता नहीं था।नहीं चाहती थी पलट कर देखना। उसे पता था कि पलटते ही लोग पूछेंगे अंतिम इच्छा।
कभी धूप की तरह प्रखर तो कभी चांदनी की तरह शीतल ।कभी शालवन की तरह कठोर और कभी पारिजात की तरह झर कर बिखर जाती थी।मां अपने क्रोध ,प्यार और मनुहार को अपने भीतर ही भीतर परिपक्व होने तक पालना जानती थी।आँसुओं की मोती को मुस्कानों की माला में कैसे गढ़ा जाता है। ये बखूबी पता था माँ को।
माँ के धैर्य,धर्म,तप, साधना के कारण ही आज हम सब भाई-बहन एक सफल इंसान के रूप में इस समाज में स्थापित हैं।
अपने जीवन भर की संचित अनुभव-निधि का कोष, जीवन दर्शन का पाठ, गृहस्थी का मर्म,रीति-रिवाज, मान-मर्यादा, जीने का सलीका सब सौंपकर…. सीखा कर…. व्योम की क्षतिज रेखा पर थक कर सो गई मां।
मदर्स डे हो या कोई भी खास दिन बरबस माँ याद आ जाती है।आज सब कुछ है हमारे पास बस माँ नहीं है।
नंदा पाण्डेय
रांची, झारखंड