मातृत्व की कुर्सी
शरीर पर निशान हैं कुछ जो सर्जरी के है मातृत्व के जो स्थाई है रहेंगे ताउम्र..अच्छे लगते हैं शायद मेरी संपूर्णता को इंगित करते.. !! हर स्त्री के जो माँ है…!!
स्त्री के ममत्व को परिभाषित करते, स्त्री पुरूष के भेदभाव से कोसो दूर..वे निशान जो नही जानते पुरूष औऱ स्त्री में मतभेद..!
दोनो को जनते वक्त एक सी पीड़ा थी, नौं महीने का गर्भधारण के साथ एक सी हलचल नही जानती थी वह गर्भस्थ शिशु का लिंग ….!
स्नेह से रोज तो सींचती थी वह।स्नेह की कुर्सी पर बैठी ममता बस जानती थी कि जो भी उसके अंदर सृजित हो रहा है वह सलामत हो..!!
भेदभाव से दूर वह जनती है एक कृति खूबसूरत सी…!
अचंभित होती वह ममता उठ बैठती है अपने कुर्सी से हो अभिमानित अरे वाह मैं भी कर सकती हूँ सृजन..!बेतहाशा चूमती है उस नन्हे से उत्तराधिकारी को लगा सीने से..!!
सारे संस्कार मंत्रोचार से सुशोभित देती है उसे एक नाम… जो बनेगी पहचान!आँखे खोलती मासूम सृष्टि..मुस्कान भरती है जननी को देख..आहा ख़ुशी के अश्रुधारा से भींच अपने सृजन को विराजमान हो जाती है अपने सर्वश्रेष्ठ स्थान पर..गर्व से निहारती है अपना सिंहासन कुर्सी…। सलामत रहेगी यह कुर्सी बगैर भेदभाव के पीढ़ी दर पीढ़ी सिंहस्थ रहेगी अपनी मर्यादा रूपी पुत्री सँग मर्यादा थामे बल रूपी पुत्र सँग…!!मर्यादित बल संतुलित रहता है और जहाँ संतुलन हो वह कुर्सी कभी रिक्त नही रहती..!!
सुरेखा अग्रवाल