पर्यावरण
हे मानव! अब क्यूँ करता है क्रन्दन?
पर्यावरण दूषित करने का तू ही तो है कारण,
मैं पेड़…
क्या कसूर था मेरा?
मैने तो दिए फल और सदा ही छाँह।
और बच्चों के झूले की खातिर
फैला दी अपनी बाँह।
पर तुमने?
काट कर मेरी शाखाएं
अपंग मुझको कर दिया।
घोंसलों को तरसे पंछी,
बेघर उनको कर दिया।
मैं हवा…
क्या कसूर था मेरा?
अल्हड़ सी चलती थी मैं
बाग और बगीचों में
गाती फिरती मन-मोहना राग
पर तुमने?
काट डाले पेड़ और जंगल
उजाड़ डाले बाग।
मैं बादल …
क्या कसूर था मेरा?
जब गरजता और बरसता,
नाच उठते मोर वन में।
खुश हो जाता किसान,
प्राण फूँक देता जन-जन में।
पर तुमने?
उजाड़ डाले वन उपवन,
रोक डाला मेरा गरजन।
मैं नदी …
क्या कसूर था मेरा?
इठलाती, बलखाती, बहती,
फसलों को नवजीवन देती।
मेरा दामन स्वच्छ और निर्मल,
प्राणदायनी मेरा जल।
पर तुमने?
डाल कर कूड़ -करकट,
बना डाला मुझे मरघट।
मैं पर्वत …
क्या कसूर था मेरा?
मैं अचल अविरल खड़ा,
रक्षा करता तुम्हारी।
प्रकृति की अनमोल धरोहर,
आन-बान और शान तुम्हारी।
पर तुमने?
कर दिया मुझे क्षत-विक्षत,
छाती मेरी रौंद डाली,
कर दिया मुझको आहत।
हे मानव!
अब क्यूँ करता है क्रन्दन?
पर्यावरण दूषित करने का
तू ही तो है कारण।
मत काट इन पेड़ों को,
ये प्रकृति का श्रंगार हैं।
जीवन दूभर हो जायगा,
ये जीवन का आधार हैं।
प्रगति की आड़ में तू
विज्ञान का कद इतना नहीं बढ़ा पाएगा,
कि दूषित कर पर्यावरण को,
प्रकृति की आपदा से बच पायगा।
पेड़, हवा,नदी,पर्वत और बादल,
महत्व इनका तू जान ले।
मोल तेरा कुछ नहीं,
इनके बिना तू मान ले।
मोल तेरा कुछ नहीं,
इनके बिना तू मान ले।
समिधा नवीन वर्मा