सशक्तिकरण नहीं एकीकरण

सशक्तिकरण नहीं एकीकरण

यदि बात करें महिला दिवस की तो मुझे लगता है कि, महिलाओं का कोई एक दिन नहीं हैं उसके तो सभी दिन है।
महिलाओं के बिना तो कोई दिन होता ही नही।उसके उठने से ही हर घर की सुबह होती है और उसके आंख बंद करने पर रात।
लेकिन हां यदि महिलाओं को डेडीकेटेड एक दिन विशेष अर्थात “महिला दिवस” दिया गया है ,तो यह भी अच्छा ही है कम से कम एक दिन के लिए ही सही उसके कामों को भी कोई रिकॉग्निशन तो मिलता है। वरना कई बार पूरे जीवन भर घर की जिम्मेदारियों तले दबे रहने के बावजूद उसे तारीफ के २ सराहनीय शब्द भी नसीब नहीं होते।
हालाकि अब जमाना बदल रहा है पुरुष समाज भी कहीं न कहीं महिलाओं की वेदना को पूरी तरह से नहीं तो कुछ प्रतिशत ही सही पर समझ तो रहा है और बदले में प्यार एवं संवेदना भी रखता है।

महिला दिवस पर मैं महिला सशक्तिकरण जैसी कोई बात नही करना चाहूंगी।मुझे नहीं लगता कि महिलाओं को सशक्तिकरण करने की जरूरत है क्योंकि वो तो खुद आदिशक्ति है।उसने तो इतनी वेदना और पीड़ा को सहकर इस संसार का निर्माण किया है।
असल मायने में उसे जरूरत है तो अपने अंदर सोई हुई शक्ति को जाग्रत करने की।उसे अपने अधिकार और न्याय किसी से मांगने की जरूरत नहीं है।वो तो खुद सक्षम है दूसरों को प्यार,अधिकार और न्याय देने में।लेकिन वो भूल जाती है अपने लिए खड़े होना। वो भूल जाती है के वो रणचंडी है। जिस दिन वो युद्ध क्षेत्र में अपने पूरे बल और आत्मविश्वास से उतरेगी उस दिन कोई माई का लाल उसका दामन दागदार नहीं कर पाएगा।

महिला सुरक्षित नही है इसीलिए नहीं की वो कमजोर है बल्कि इसीलिए की जब किसी महिला पर कोई अत्याचार होता है तो कोई दूसरी महिला शायद सही समय पर उसके लिए किसी पुरुष के खिलाफ खड़ी नही होती।जब भी कोई महिला समानता के अधिकार की बात करती है या गलत के खिलाफ आवाज बुलंद करती है तो उसका सामना किसी पुरुष से नहीं बल्कि दूसरी महिला से ही होता है जो उसे कहती है कि क्या हुआ अगर इतना सा गलत हो गया ?हम महिलाओं का तो काम ही है सब कुछ चुपचाप सहना क्योंकि सदियों से यही तो होता आया है।

जब भी किसी महिला के साथ बलात्कार जैसा दुर्भाग्यपूर्ण हादसा होता है तो कुछ महिलाएं सबसे पहले उस पीड़ित महिला के चरित्र पर शंका करती है। और इस तरह कुछ गलत पुरुषों को मौका मिल जाता है भूखे भेड़िए समान घूमने का।जो बस अपने अहंकार का पोषण करना जानता है।

जब भी कोई महिला समाज की किसी सड़ी गली कुरीतियों पर चलने से इनकार कर देती है तब हम में से कुछ महिलाएं,उन्हे बताती है कि त्याग और सहनशीलता ही स्त्री का धर्म है।और हां जो स्त्री जितना अधिक गलत सहन कर सकती है वो करें क्योंकि इससे ही समाज में उसे एक आदर्शवादी महिला,पत्नी या बहु-बेटी का दर्जा मिलेगा।

बस इस तरह यह कारवां बढ़ता जाता है और हम महिलाएं अपनी असली शक्ति को भूल कर भेड़चाल में शामिल हो जाते हैं और इस बात का प्रत्यक्ष लाभ मिलता है पुरुष समाज को।और महिलाओं को पीढ़ी दर पीढ़ी मानसिक गुलामी का जीवन जीना पड़ता है। उसे शिकार होना पड़ता है कभी शारीरिक तो कभी आर्थिक और मानसिक शोषण का।

हमे महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों को रोकने के लिए बहुत बड़ा कुछ करने की जरूरत नहीं है।जरूरत है, तो बस एकदूसरे के साथ खड़े होने की।जब भी किसी महिला के साथ किसी भी तरह से कुछ भी गलत हो तब हम खुद महिला हो कर उस पर सवाल उठाने की बजाय आरोपी पुरुष के गिरेबान तक पहुंचे या सीधे उसका बहिष्कार करें।फिर चाहे वो आरोपी पुरुष हम में से किसी का बेटा,भाई,पति या पिता ही क्यों न हो? हम उस पुरुष से अपना रिश्ता भूलकर, पीड़ित महिला को न्याय दिलाने का प्रयास करें और उसे सहारा दें।

हम महिला सशक्तिकरण की बात ना करते हुए बस महिला एकीकरण अर्थात फीमेल युनिटी भी कर लें तो भी व्यवस्था सुधार सकती है।

यदि हम इस पद्धति से चले तो यकीन मानिए हमारी सामाजिक व्यवस्था की संरचना और भी मजबूत होगी और साथ ही महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों में कुछ हद तक कमी आ सकेगी।

तो यही था मेरा महिला दिवस पर,अपनी साथी महिलाओं को संदेश।

परिधि रघुवंशी
साहित्यकार
मुम्बई

0
0 0 votes
Article Rating
9 Comments
Inline Feedbacks
View all comments