चक्र

चक्र

आठ मार्च आते ही निमंत्रणों का सिलसिला बढ़ जाता है। पिछले तीन फोन कॉल बस ‘विलासिनी, प्लीज, लड़कियाँ हैं, आप बोलेंगी तो अच्छा लगेगा’। विलासिनी ने सोचा कि ये आजकल की फेसबुक-द्विटर-इंस्टाग्राम की लड़कियों को सब पता है। उनके फेमिनिज्म की परिभाषा भी अलग है। वो अब दराजों में नहीं, गले में बोर्ड लगाकर चलती हैं। फिर भी ‘हाँ’ कर दिया। पहली बार “ऑफ लाइन प्रोग्राम का मौका मिला था साल भर बाद। जीवंत लोगों के साथ बैठूंगी। विलासिनी पैदल चलते हुए ही घर लौट आई थी पार्क से।

‘पहचाना नहीं, दीदी ? पीछे से एक आवाज आई। चालीस पैंतालिस साल की महिला होगी। करीने से साड़ी बांध रखी थी। माँग में सिंदूर, बड़ी गोल चिपकाने वाली बिंदी, चूड़ियाँ और पर्स भी। मुँह पर मास्क था। पर उसके गोल आँखों का कोई दर्द शायद बाकी था। ‘इतवारी?” विलासिनी को एकदम से याद आ गया। मास्क के नीचे से मुस्कुराई होगी। ‘तुम यहाँ क्या कर रही हो? “आपको सुनने आई हूँ।’ मेरा भी एक छोटा काम है और हम भी आपसे पुरस्कार लेंगे। “हाँ हाँ – इतने दिन कहाँ रही तुम? इसी शहर में, दीदी, जिंदगी के चक्र में चलती रही |
इतवारी हमारे घर में झाड़ू पोछा किया करती थी। घर के पीछे बने दो क्वार्टर में एक में वो परिवार के साथ रहती थी। अक्सर, देर से आती थी। हम उसे गाहे बगाहे बुलाने जाया करते थे। “दीदी अभी आती हूँ बीस बाईस साल की इतवारी हम आठ नौ साल की बच्ची को ‘दीदी’ बुलाती थी क्योंकि हम ठहरे मालिक के बच्चे और वो एक झाडू पोछे वाली। ममी हमेशा टोकती थी हमें – “दीदी क्यों नहीं बुलाती उसे | इतवारी के कभी सिर बंधा होता, कभी अंगुलियों पर सफेद मोटी पट्टी होती। ममी की आवाज आती रहती – तुम्हीं ने सिर पर चढ़ा रखा है, उसे | दो दिन दरवाजा बंद कर दो और अक्ल ठिकाने आ जाएगी | इतवारी ने वैसा ही किया। फिर वो लौटा ही नहीं। थाने रपट भी हुई पर पता नहीं चला उसका।

इतवारी अब पास आ गई थी और बगल वाली कुर्सी खींच कर बैठ गई थी। वो चला गया दीदी तो अंदर से मैं बहुत खुश ही हुई। मन मरजी की जिंदगी जीने की उम्मीद जगी थी। फिर आप लोग भी चले गए। जाने के पहिले मेम साब ने एक सिलाई स्कूल में नाम लिखवा दिया था। हाँ ममी, बड़ी मददगार थी। छोटे, जोड़े-तोड़े, छुपाए पैसों से कुछ मदद करती ही रहती थी। ऐसे उनकी डायरी में “एक रुपया का धनिया’ भी लिखा देखा है मैंने। जीवन के चक्रव्यूह से निकलने का गुरुमंत्र दे गई थी मेमसाब। यही कि आगे बढ़ते रहो, रास्ते बनते जाएंगे।

वहीं सिलाई स्कूल में फिर काम करने लगी। रहने के लिए कोठी का झाड़ू पोछा करती रही | बाद के लोग भी ठीक थे। किसी ने कहीं रोका नहीं। फिर एक ग्रुप बना लिया और आगे बढ़ते हुए सिलाई-कढ़ाई, स्वेटर बनाना सब करते रहे | अभिमन्यु की तरह चक्रव्यूह से निकलना सीख लिया, दीदी। दो पैसे हुए तो दोनों बच्चे पढ़ गए। अब बेटा भी साथ काम करता है। बिटिया भी पढ़ रही है।
इतवारी थोड़ा मास्क उतार कर मुस्कुराई। ‘दीदी, मेम साहब के वो तीन सौ रुपए कितने काम आए।’ आज आपसे पुरस्कार लूंगी तो मेरा चक्र पूरा हो जाएगा। इतवारी को देखते हुए विलासिनी सोचने लगी औरत, तेरा नाम ही जीना है। जीवन को चक्र मानते हुए उसने चक्रव्यूह पार कर ही लिया।

डॉ.अमिता प्रसाद
दिल्ली

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