एक होली ऐसी भी
हो उठता है आसमान
लाल पीले गुलाबी रंगों से
सराबोर जब
फागुनी बयार और शुष्क पत्तों का शोर
हृदय को देता है झकझोर
जब फगुआ के गीतों के बीच
अश्रुओं की अविरल धारा
नयनों को देती है सींच
जो मां की आंखों का तारा था
एक पत्नी का अभिमान सारा था
राष्ट्र गौरव की सुरक्षा हेतु
अपनी शपथ की रक्षा हेतु
कर दिया सहर्ष बलिदान जिसने
एक माँ की आंखों की आस को
एक पत्नी के जीवन की उजास को
अभिमान के उस क्षण का कर सम्मान
दर्द को होंठों में लेती है भींच वह
जब तीन रंगों में
ज़िन्दगी के समस्त रंग
आकर हो गए थे विलीन
तिरंगे में लिपटी
जीवन भर की आशाएं उसकी
धरा पर पड़ी थी मलीन
माथे की बिंदिया और सुहाग नूपुर
राष्ट्रावेदी पर
हुए थे बलिदान उस दिन
पोंछ कर माँग की लाली अपने हाथ से
वह वीरांगना
निकल पड़ी है खेलने
राष्ट्राभिमान व फ़र्ज़ की होली
अभिमान से
डॉ. रत्ना मानिक
जमशेदपुर, झारखंड