विश्व रंगमंच दिवस
के. मंजरी श्रीवास्तव थिएटर और कविता का जाना-माना नाम है. मंजरी इसलिए विशेष हैं कि वे थिएटर नहीं करतीं बल्कि थिएटर करनेवालों की बखिया उधेड़ती हैं अर्थात नाट्य समीक्षक हैं, नाट्य आलोचक हैं और एक मुकम्मल शब्द में कहें तो नाट्यविद हैं, कलामर्मज्ञ हैं.
मंजरी पिछले 17 वर्षों से दिल्ली में रह रही हैं और दिल्ली के साथ-साथ देश-दुनिया का थिएटर भी देख रही हैं. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा आयोजित किये जाने वाले सबसे बड़े महोत्सव भारत रंग महोत्सव के लिए नाटकों की चयन समिति से लेकर कालिदास सम्मान और थिएटर ओलंपिक्स के लिए बनाई गई चयन समिति की सदस्या रह चुकी हैं. प्रख्यात रंगकर्मी रतन थियाम के नाटकों के सौन्दर्यबोध के स्रोतों पर शोध करने के लिए मंजरी को संस्कृति मंत्रालय की जूनियर फ़ेलोशिप से नवाज़ा गया है. २०१७ से अबतक मंजरी को हर वर्ष किसी न किसी नाट्य समूह द्वारा ‘बेस्ट थिएटर क्रिटिक’ अवार्ड से सम्मानित किया जाता रहा है.
नाट्य और कला मर्मज्ञ होने के साथ-साथ मंजरी ‘कलावीथी’ नामक अपनी साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था चला रही हैं और सैफ़ो बुक्स नामक प्रकाशन संस्थान भी चला रही हैं.
कविता-कहानी से नाटक की यात्रा बहुत लोग करते हैं क्योंकि वह बहुत आसान है लेकिन नाटक से कविता की यात्रा थोड़ी मुश्किल है और पिछले दिनों मंजरी ने इसे बहुत कुशलतापूर्वक कर दिखाया है. उन्होंने कुछ विदेशी नाटकों से गुज़रते हुए कुछ शानदार कविताएँ लिखी हैं.जिसमें एक काव्य संग्रह तो प्रकाशित भी हो चुकी है और उसका नाम है ‘एक बार फिर नाचो न इज़ाडोरा’.
काव्य संग्रह के अलावा अनुवाद की कुछ पुस्तकें नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित हुई हैं और कुछ पुस्तकें प्रकाशनाधीन हैं। जल्दी ही आने वाली है। तो आईये इस वर्ष विश्व रंगमंच दिवस (२७ मार्च) पर करते हैं के. मंजरी श्रीवास्तव से एक ख़ास बातचीत : –
प्रश्न – मंजरी जी विश्व रंगमंच दिवस के इस विशेष मौके पर गृहस्वामिनी की ओर से आपको बहुत बधाई और आपका बहुत-बहुत स्वागत. बात आपकी कविताओं से शुरू करते हैं. सबसे पहले ये बताईये कि आपने नाटक से कविता की इस विपरीत यात्रा का कैसे निश्चय किया और कैसे उसे साधा ?
उत्तर – धन्यवाद. आपको भी विश्व रंगमंच दिवस की बहुत बहुत शुभकामनाएं और बधाई. देखिए मुझे कोई भी आम या साधारण काम करने में मज़ा नहीं आता है. पर मैंने इस यात्रा की कोई योजना पहले से नहीं बनाई थी. ये कुछ नाटक थे ही ऐसे कि इन्होने मुझसे कविता लिखवा ली. दरअसल हुआ यह कि इन नाटकों को देखने के बाद मैंने इनपर समीक्षा भी लिखी जो जनसत्ता में प्रकाशित हुई लेकिन फिर भी ये पांच नाटक मुझे बेचैन करते रहे. मुझे ऐसा लगता रहा कि कुछ तो है जो मुझे पाठकों से कहना था इन नाटकों के बारे में वो रह गया, वो मैं कह नहीं पाई हूँ. और वही जो मैं कह नहीं पाई थी उसी ने कविताओं की शक्ल इख्तियार कर ली और मेरे भीतर से ये कविताएँ फूट पडीं. उसके बाद मुझे पता चला कि मैंने एक ऐसी यात्रा कर ली है जो आसान नहीं, बेहद दुर्गम है. हालांकि, इससे पहले भी मैंने बंगलादेश के एक प्रख्यात निर्देशक श्री कमालुद्दीन नीलू के नाटक ‘ मैकाबरे’ पर तीन कविताएँ एक ही शीर्षक के तहत लिखी थीं जिनका शीर्षक मैंने रखा था ‘डांस ऑफ़ डेथ’. पर मैकाबरे मेरे दिमाग में बहुत बरसों तक घूमता नहीं रहा था. मैकाबरे पर कविता लिखने के बाद उसका भूत मेरे दिमाग से उतर गया. लेकिन ये जो पांच नाटक हैं इनका भूत कविताएँ लिखने के बावजूद मेरे दिलोदिमाग, मेरे जेहन से नहीं उतरा है. ऐसा लगता है जैसे अभी भी बहुत कुछ इन नाटकों पर लिखा जाना बाक़ी है या कुछ ऐसा कि मैं शायद इनपर कितना भी लिख दूं वह कम ही होगा. इन नाटकों का नशा अब अभी मुझपर तारी है.
प्रश्न – वे पांच कौन से नाटक थे जिन्हें आपने अपनी कविताओं के लिए चुना ?
उत्तर – यह कहना सहीं नहीं होगा कि मैंने अपनी कविताओं के लिए नाटकों को चुना बल्कि सच तो यह है कि इन नाटकों ने मुझे चुना कविताएँ लिखने के लिए. ये पाँचों विदेशी नाटक हैं. पहला एक इतालवी नाटक है जिसका शीर्षक है ‘ला गिओइआ’ जिसके एक पात्र बोबो को मैंने कविता के रूप में एक ख़त लिखा है, दूसरा एक फ्रांसीसी नाटक है जिसका शीर्षक है ‘ले चैन्त्स दे ई उमई’, तीसरी कविता एक इतालवी नाटक ‘रैग्ज़ ऑफ़ मेमोरी’ को याद करते हुए लिखी है मैंने, चौथी कविता भी एक इतालवी नाटक ‘द सस्पेंडेड थ्रेड’ को ज़ेहन में रखकर लिखी गई है और अंतिम कविता ‘वा नो कोकोरो’ जापानी नाटक ‘सकुरा’ से गुज़रते हुए मैंने लिखी है.
प्रश्न – आपकी इन पांच कविताओं में ३ इतालवी नाटकों से प्रेरित हैं इसकी कोई खास वज़ह ?
उत्तर – नहीं ऐसी कोई ख़ास वज़ह नहीं. बस इटली के नाट्य निर्देशकों और अभिनेताओं का काम मुझे पसंद हैं और विशेष रूप से ये तीन नाटक तो मेरे दिल में बस गए.
प्रश्न – विदेशी नाटकों को ही कविता के लिए चुनने की कोई खास वज़ह ? क्या आपको नहीं लगता कि भारत में ऐसे नाटक हो रहे हैं जो आपकी कविता का विषय बनें ?
उत्तर – जैसा कि मैंने आपसे पहले भी कहा है कि मैंने नाटकों को नहीं चुना कविताएँ लिखने के लिए. नाटकों ने मुझे चुना और जब मैं इन नाटकों को देखने गई थी तो सोचकर नहीं गई थी कि मैं इनपर कविताएँ लिखूंगी. इन नाटकों में वह बात है कि इन्होने मुझे कविता लिखने के लिए मजबूर कर दिया.
मैंने ऐसा नहीं कहा कि भारत में अच्छे नाटक नहीं हो रहे हैं. यदि भारत का भी कोई काम मुझसे अपने ऊपर कविता लिखवा ले जाएगा तो मुझे बेहद ख़ुशी होगी. मैं योजना बनाकर तो कविता लिखती नहीं. कविता तो दिल से उमड़ती है. जिस दिन भारत का कोई काम देखने के बाद कविता दिल से उमड़ेगी वह भी आपके सामने होगी.
प्रश्न – मंजरी जी आप पिछले 17 वर्षों से दिल्ली में हैं और देशी-विदेशी हर प्रकार के नाटक देख रही हैं. आपके हिसाब से भारत और विदेश के नाटकों में क्या फर्क है ?
उत्तर – देखिए, भारत और विदेश के नाटकों में बहुत स्तरों पर फर्क है. पहली बात भारत में नए प्रयोग बहुत कम लोग करते हैं या करना चाहते हैं. आप हिंदी पट्टी में चली जाईये तो हिंदी नाटक अभी तक गोदान और दो बैलों की कथा के इर्द-गिर्द ही घूम रहे हैं. हाँ, थोड़े बहुत लोग इनमे नए प्रयोग कर रहे हैं. इन प्रस्तुतियों को नए तेवर और कलेवर में पेश कर रहे हैं लेकिन ज़्यादातर प्रस्तुतियां पहले हो चुकी प्रस्तुतियों की एक हद तक कॉपी ही है. वही हालत बंगाली नाटकों की है. बंगाली नाटक रवीन्द्रनाथ टैगोर और नटी बिनोदिनी से आगे नहीं बढ़ा है कुछेक नाटकों को छोड़कर. दक्षिण भारत और उत्तर-पूर्व भारत के नाटकों में निस्संदेह नए प्रयोग हो रहे हैं लेकिन मणिपुर के युवा निर्देशकों के नाटकों पर रतन थियाम की छाप दिखती है. कुल मिलाकर भारत में कॉपी ज्यादा हो रही है और एक्सपेरिमेंटल यानि कि प्रयोगवादी नाटकों में प्रयोग के नाम पर कुछ भी किया जा रहा है. दूसरी बात यह है कि भारत में नाटकों में नई नाट्य तकनीक और प्रविधियों का उपयोग न के बराबर हो रहा है. जबकि वहीँ दूसरी ओर विदेश के नाट्य निर्देशक और अभिनेता-अभिनेत्रियाँ नए-नए विषयों को उठाते हैं, उनका पाठ करते हैं, उन पर शोध और मेहनत करते हैं और हर बार कोई नई चीज़ लेकर दर्शकों के सामने उपस्थित होते हैं. वे शारीरिक गतिविधियों और मुद्राओं पर काम करते हैं, वे प्रकाश और वेशभूषा पर काम करते हैं, वे सेट डिजाइनिंग पर काम करते हैं. नई नाट्य प्रविधियों और तकनीकों का अपने नाटकों में इस्तेमाल करते हैं. जैसे मैं आपसे पोलैंड के एक नाटक ‘सम्वेहेयर इन किखोते’ का ज़िक्र करना चाहूंगी जिसकी प्रकाश व्यवस्था कमाल की थी. पूरे मंच पर अँधेरा था और एक अभिनेता खुद को प्रकाशित करने के लिए एक हाथ में टॉर्च पकडे हुआ था और दूसरे हाथ से अभिनय कर रहा था. वैसे ही मैं आपसे ‘द सस्पेंडेड थ्रेड’ का ज़िक्र करना चाहूंगी जिसमे मंच पर प्रकाश के लिए एक ही बल्ब का उपयोग किया गया था और उस बल्ब से निलते प्रकाश से बनती छाया में पूरा नाटक परफॉर्म किया गया था. वैसे ही मैं आपसे ज़िक्र करना चाहूंगी नाटक ‘एडिथ पियाफ़’ का जिसमे पूरा नाटक एक बड़े से बक्से के अन्दर तलवार की धार के इर्द-गिर्द खेला गया था. तलवार की धार के इर्द-गिर्द ही अभिनेता और अभिनेत्री परफॉर्म कर रहे थे. बांग्लादेशी निर्देशक कमालुद्दीन नीलू के भी नाटकों के सेट लाजवाब और भव्य होते हैं और मंच सज्जा के लिए वे नई नाट्य तकनीकों का उपयोग करते हैं. उनके नाटक ‘मैकाबरे’ और ‘नेटिवपीयर’ दोनों में उनका ये कमल मैं देख चुकी हूँ जबकि ‘नेटिवपीयर’ में उनके अभिनेता और अभिनेत्री राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के विद्यार्थी ही थे लेकिन इन्ही भारतीय अभिनेता-अभिनेत्रियों को लेकर उन्होंने मंच पर कमाल कर दिया था. मेरा सवाल सिर्फ यह है यही कमाल भारतीय निर्देशक क्यों नहीं कर पाते उन्हीं संसाधनों और उन्हीं अभिनेता-अभिनेत्रियों के साथ ?
प्रश्न – भारत में आपको किन नाट्य निर्देशकों का काम पसंद है और क्यों ?
उत्तर – भारत में मुझे निस्संदेह रतन थियाम और पियाल भट्टाचार्या का काम सबसे ज्यादा पसंद है. इन दोनों के अलावा सुनील शानबाग, सौरभ अनंत, राजेश तिवारी, हैप्पी रणजीत, साजिदा साजी, संगीत श्रीवास्तव, ओएसिस सौगैजम, स्वीटी रूहेल, श्याम कुमार सहनी इत्यादि. ये वे नाट्य निर्देशक हैं जो अपने नाटक के हर पहलू पर सामान रूप से ध्यान देते हैं और अपने नाटकों में न सिर्फ़ नए विषय उठाते हैं बल्कि उनका प्रस्तुतिकरण भी बिलकुल नए तरीके से करते हैं. इनका ट्रीटमेंट पारम्परिकता को खुद में समेटे होने के बावजूद नया होता है. इनमे से कुछ निर्देशक मुझे नाटकों के नए ट्रीटमेंट के साथ नाटकों में संगीत, नृत्य और आंगिक मुद्राओं को बचाए रखने की वज़ह से भी बेहद पसंद हैं और उन्होंने रंग संगीत की एक नई परिभाषा गढ़ी है. ऐसे निर्देशकों में दो नाम विशेष रूप से लिए जा सकते हैं – सौरभ अनंत और ओएसिस सोगैजम.
प्रश्न – इस विश्व रंगमंच दिवस पर आप रंगकर्मियों से क्या कहना चाहेंगी ?
उत्तर – नाटक पर मेहनत करें, प्रयोग ज़रूर करें और प्रयोग के नाम पर कुछ भी न करें और एक बहुत ज़रूरी चीज़ संगीत (जो मुझे लगता है) जो इन दिनों नाटकों से गायब होता जा रहा है उसका समावेश अपने नाटकों में करें.
बहुत बहुत धन्यवाद मंजरी जी.
आपका भी बहुत धन्यवाद अर्पणा जी.
प्रस्तुति-अर्पणा संत सिंह
संपादक
गृहस्वामिनी