मेरी सुपर वूमन

मेरी सुपर वूमन

महिला दिवस पर मुझसे जब भी पूछा जाता है कि मैं किसी ऐसी महिला का नाम लूं जिसे देखकर लगता हो कि महिला दिवस ऐसी ही महिलाओं के व्यक्तित्व को सेलिब्रेट करने के लिए बनाया गया है तो मेरे दिलोदिमाग़, मेरे ज़ेहन में सिर्फ़ एक ही नाम आता है और वह नाम है सुश्री के. मंजरी श्रीवास्तव का जो आसमान में सुराख़ करने का माद्दा रखती हैं, विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में अपने लिए रास्ते बना सकती हैं, पत्थर तोड़कर पानी निकाल सकती हैं, रेगिस्तान में फूल खिला सकती हैं अर्थात जो ठान लें वो करके ही दम लेती हैं. मंजरी दी एक सफल कवि हैं, पत्रकार हैं विशेष रूप से नाट्य समीक्षक, कला समीक्षक और सौभाग्य से वे मेरी बड़ी बहन तो हैं ही.

बचपन से मैंने मंजरी दी को देखा है कि जब वो कविताएँ लिखतीं थी और अक्सर रात में मुझे सुनाया करती थीं. जैसे बचपन में सोने से पहले लोग कहानियाँ सुनते हैं वैसे ही मैं कविताएँ सुनती थीं. जब मैं थोड़ी बड़ी हुई तो मैंने नृत्य सीखना प्रारंभ किया. दीदी मेरे साथ मेरे डांस क्लास में जाती थीं. साहित्य में उनका रुझान बचपन से ही था. जब पटना नृत्य कला मंदिर में मेरी डांस क्लास चल रही होती थी तो दीदी साहित्य पढ़ा करती थीं घंटों. अपनी इसी हॉबी की तरफ निरंतर प्रयासरत रहीं और हिस्ट्री से एम्.ए. करने के बाद उन्होंने जर्नलिज्म में गोल्ड मैडल प्राप्त किया. इसे दौरांन मेरा एडमिशन दिल्ली कथक केंद्र में हुआ और मैं दिल्ली चली आई. उसी दौरान दीदी को आईसीसीआर की फ़ेलोशिप मिली और अब हम दोनों दिल्ली में थे और यहाँ से शुरू हुई एक नर्तकी और एक लेखिका की संघर्षमय यात्रा. रास्ते बहुत आसान नहीं थे. तमाम पारिवारिक परिस्थियों और सामाजिक कठिनाईयों को दायें-बाएं करते हुए हमने अपनी यात्रा निरंतर जारी रखी.

चूंकि मैं बचपन से मंजरी दी को जानती हूँ. वे बहुत जिद्दी हैं. जिस चीज़ की ज़िद ठान लेती हैं वो करके ही दम लेती हैं. उनके दिमाग पर फुल टाइम लेखक बनने का भूत पटना से ही सवार था इसलिए दिल्ली में मिली तमाम जॉब्स को उन्होंने ना कर दिया और अंततः लेखन को ही अपना प्रोफेशन बनाने का तय किया. कविताएँ लिखती रहीं और नवभारत टाइम्स, जनसत्ता जैसे बड़े अखबारों के लिए काम किया पर बतौर फ्रीलांसर. उन्हें किसी भी कीमत पर अपने लेखन से कोई समझौता पसंद न था. कभी-कभार कहीं जॉब भी किया तो ६ महीने के लिए जॉब करके २ साल के खर्चे जमा कर लिए फिर जॉब छोड़ दिया. बस मैंने उन्हें टिककर काम करते देखा एनएसडी के साथ शायद इसलिए क्योंकि ये उनके पसंद का काम था और दूसरा यहाँ उनका कोई बॉस नहीं था. वो किसी बॉस को कभी बर्दाश्त नहीं कर सकतीं. वे खुद अपनी बॉस हैं, अपनी मर्ज़ी की मालकिन. एनएसडी के साथ काम करते हुए उन्हें हर तरह की आज़ादी मिली रही. नाटक के साथ उनका लेखन जारी रहा. शायद यही वज़ह है कि वह कुछ सालों तक एनएसडी में रुक पाईं नहीं तो जहाँ तक मैं उन्हें जान पाई हूँ उनकी फितरत हवा और पानी की तरह है. वे लगातार बहने में यकीन रखती हैं. जब फिल्म थ्री इडियट्स का ये गाना सुना था तो लगा था यह मेरी दीदी के लिए ही लिखा गया है –
‘बहती हवा सा था वो…
पर एनएसडी में भी वो ज्यादा दिनों तक नहीं रुक पाईं. एनएसडी से अब भी जुड़ी हुई हैं पर अब वो फुल टाइम अपनी साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था कलावीथी पर ध्यान देती हैं. कलावीथी परफार्मिंग आर्ट, फिने आर्ट, अलाएड आर्ट के क्षेत्र में काम करने के साथ-साथ बुनकरों के विकास के लिए भी काम करती है और मंजरी दी ‘सेव आवर वीवर’ नामक एक कैम्पेन चला रही हैं २०१६ से, जबसे उन्होंने कलावीथी की स्थापना की हैं. वे खुद हैंडलूम लवर हैं, साड़ी लवर हैं इसलिए उन्होंने बुनकरों के विकास में खुद को झोंक दिया है और युद्धस्तर पर काम कर रही हैं. कोरोना काल से पूर्व वे महीने में २० दिन दिल्ली से बाहर रहती थीं भारत के अलग-अलग प्रान्त के बुनकरों के साथ.

मुझे एक सफल नृत्यांगना बनाने में उनका बहुत बड़ा योगदान हैं. मेरे संघर्षों में हर कदम पर वे मेरे साथ रहीं और २०१४ मेरे दुबई जाने के बाद ही उन्होंने अपने करियर की तरफ ध्यान देना शुरू किया. जबतक मैं भारत में थी उनका सारा ध्यान मेरे करियर पर था और न सिर्फ़ मेरे साथ परिवार के हर व्यक्ति के साथ वे हमेशा खड़ी रही हैं. परिवार तो परिवार, परिवार के अलावा भी कोई दोस्त, रिश्तेदार और यहाँ तक कि उनका कोई दुश्मन जिसने उनका कितना भी बुरा किया हो सब भूलकर उसके दुःख में उसके साथ खड़े होने का दीदी का जो गुण है वह मुझे उनका फैन बनाता है.

मेरी नज़र में मंजरी श्रीवास्तव सुपर वूमन इसलिए हैं क्योंकि वो स्यूडो फेमिनिस्ट नहीं. वे स्त्रीत्व की पूरी कमनीयता को बरकरार रखते हुए अपने वजूद की प्रतिस्थापना करती हैं. उनकी नज़र में फेमिनिज्म या वूमनिज्म पुरुषों की बराबरी या उनका समूल विनाश करना नहीं है. वे कहती हैं कि स्त्रियों को किसी फेमिनिन्ज्म या वूमेनिज्म की ज़रुरत नहीं क्योंकि उन्हें प्रकृति ने ही सर्वोच्च और सर्वोत्तम बनाया है और सृजन का गुण दिया है. न सिर्फ़ फेमिनिज्म बल्कि किसी भी मुद्दे पर उनका गहन अध्ययन और तार्किक विश्लेषण मुझे उनका मुरीद बना देता है हर बार. वे किसी भी मुद्दे पर हवा में बात नहीं करतीं, उनके पास ठोस सबूत होते हैं शास्त्रों, वेद-पुराणों और किताबों से.

उन्होंने तमाम कठिनाईयों के बावजूद लेखक बनने के अपने जूनून को सबसे ऊपर रखा.वो हिस्ट्री से नेट जेआरएफ़ हैं और कहीं प्रोफ़ेसर भी बन सकती थीं लेकिन उन्होंने लेखन के अपने जूनून को भौतिक सुविधाओं से और आर्थिक लाभ से ऊपर रखा. साथ ही साथ मेरे अबतक के सफल करियर में उन्होंने सम्पूर्ण सहयोग दिया. एक बहन के तौर पर, एक लेखक के तौर पर और एक साहित्यकार के तौर पर. और ऐसा भी नहीं था कि हमारी विचारधाराएँ समान थी पर तमाम वैचारिक भिन्नताओं के साथ हमने एक दूसरे की व्यक्तिगत विशेषताओं का सम्मान किया और उन्होंने खुद को एक सफल लेखिका के तौर पर स्थापित किया.
अपने करियर में उन्होंने अपने काम करने की शर्तों पर कभी समझौता नहीं किया. और इस विचारधारा पर वह प्रहार करती हैं कि कलाकारों से मुफ्त में काम न कराया जाए.

उनका कभी गिव अप न करनेवाला हौसला मेरी नज़र में उन्हें सुपर वूमन बनाता है. मंजरी दी को आम काम करने में मज़ा नहीं आता. वो हमेशा चैलेंजिंग काम करती हैं, उपेक्षित लोगों पर काम करती हैं. उनके शोध के विषय हमेशा नए और दुर्लभ होते हैं. उनकी कलम जो लिखती है सच लिखती है, सच के सिवा कुछ नहीं लिखती है. सबसे ज्यादा मुझे ही उनकी आलोचना का शिकार होना पड़ता हैं.

मुझे हमेशा इस बात का इंतज़ार था कि मेरी सुपर वूमन मेरे लिए कब लिखेगी. शुक्रगुज़ार हूँ गृहस्वामिनी की जिन्होंने मेरी सुपर वूमन से मेरे लिए कुछ शब्द लिखवा लिया.

पंखुड़ी श्रीवास्तव
कथक नृत्यांगना
दिल्ली

0