बेबाकी और उन्मुक्तता का सशक्त स्वर : ममता कालिया
कुछ कहानियां श्रृंखलाबद्ध रूप में एक जगह एकत्रित मिली और जब पढ़ना शुरू किया तो पढ़ती ही चली गई । थोड़ा सा प्रगतिशील, अपत्नी, निर्मोही ,परदेशी, पीठ, बड़े दिन की पूर्व सांझ, बीमारी , कामयाब,बोलने वाली औरत ,मेला, आपकी छोटी लड़की इत्यादि-गजब का आकर्षण था कहानियों में ।रूमानियत की दुनिया से अलग , यथार्थ की सरजमीं पर, मानो कहानी के पात्र या तो हमारे चारों ओर घूम रहे हों या हम खुद कहानी की उस परिधि में सारे पात्रों में से कोई एक हों। प्रायः कहानी की पहली पंक्ति के साथ ही जो प्रवाह शुरू दिखा, वह अंत तक खुद में मुझ को बांधे रखा। गजब की लेखनी। लेखिका निम्न और मध्यमवर्गीय नारी आंचल को छूकर गुजरती है, ऐसा लगता है मानो उसके अपने ही घर आंगन की कहानी है, मानो खुद उस पर गुजरी है , खुद का भोगा हुआ, कई बार बहुत बेबाकी से, बड़े बोल्ड स्टाइल में। बड़े ही चुटीले अंदाज में समाज की बिगड़ी नब्ज पर भी हाथ रख देती हैं। जब मैंने लेखिका की कुछ कविताओं का भी रसास्वादन किया, बहुत बार ऐसा लगा जैसे भावनाएं खुद मुझ को ही छूकर निकल गई हों।जीवन के संघर्ष में हांफती हर औरत का संगीत हो वह जैसे ।लेखिका द्वारा रचित उपन्यास ” दुक्खम सुक्खम” के साथ भी कुछ वैसा ही अनुभव, कहानी ऐसे फिसलकर आगे बढ़ती है, जैसे तेज ढलान पर पानी फिसल रहा हो।
इन सब की लेखिका ममता कालिया जी, आधुनिक काल के हिंदी साहित्य की प्रमुख भारतीय महिला लेखिका हैं, जो कहानी ,नाटक, उपन्यास ,निबंध, कविता और पत्रकारिता-साहित्य की लगभग सभी विधाओं में हस्तक्षेप रखती हैं।हिंदी कहानी के परिदृश्य पर उनकी उपस्थिति सातवें दशक से निरंतर बनी हुई हैं। वर्तमान में वे महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की त्रैमासिक पत्रिका “हिंदी” की संपादिका हैं। 2 नवंबर, 1940 को वृंदावन, उत्तर प्रदेश में लेखिका का जन्म हुआ है। जीवन के लगभग अस्सी वसंत देख चुकीं ममता जी की रचनाधर्मिता आज भी अगर अबाध वेग से बह रही है तो वह अपने आप में एक अनुपम मिसाल है। साहित्य के प्रति यह समर्पण, यह अनुराग तो उनके रक्त में शामिल है,जो उन्हें अपने विद्वान पिता स्वर्गीय विद्याभूषण अग्रवाल जी से धरोहर के रूप में मिला था। ममता कालिया के पिता अध्यापन और आकाशवाणी से जुड़े रहें और इस कारण जैनेन्द्र से लेकर नए-नए रचनाकारों से उनकी मित्रता थी। ममता जी का बचपन मुक्तिबोध से भी परिचित रहा । इस कारण उनका ध्यान बचपन से ही लेखन कार्य में लग गया और नौ वर्ष की आयु में ही उन्होंने अपना लेखन कार्य आरंभ कर दिया।आपके चाचा भारत भूषण अग्रवाल भी उस समय के प्रख्यात साहित्यकार थे।मुंबई ,पुणे, नागपुर ,इंदौर आदि शहरों में शिक्षा पाती ममता ने एम.ए. अंग्रेजी की उपाधि दिल्ली विश्वविद्यालय से प्राप्त की।उपाधि प्राप्त करते ही दौलतराम कॉलेज दिल्ली में इन्हें प्राध्यापक की नौकरी मिली।बाद में 1973 ई.में इलाहाबाद में सम्प्रति महिला सेवा सदन डिग्री कॉलेज की प्राचार्या बन गईं। ममता के जीवन पर दो पुरुषों का बहुत गहन प्रभाव रहा-एक तो इनके पिता और दूसरे प्रख्यात रचनाकार श्री रवींद्र कालिया जी का, जिनसे स्थापित प्रणय संबंध को वक्त ने 12 दिसंबर, 1964 ईस्वी को परिणय में बदल डाला। इनके विवाह समारोह में हिंदी साहित्य जगत के बहुचर्चित रचनाकार जैनेंद्र, मोहन राकेश ,कमलेश्वर ,प्रभाकर माचवे ,मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती आदि शामिल हुए।रविंद्र कालिया जी के अपने जीवन में प्रवेश को लेकर ममता जी भी हैरान थी। पिता और पति के मध्य द्वंद को लेकर उन्होंने एक कहानी लिखी जिसका नाम था- ‘दो जरूरी चेहरे’। इस कहानी की नायिका भी अपने भाई और प्रेमी के बीच अंतर्द्वंद में फंसी है।
ईश्वर में गहन आस्था रखने वाली और तबीयत से एक घरेलू महिला ,जो जातीय संस्कारों में अटूट विश्वास करती है। रवायत जिसे सदा आकर्षित करती रही है और पारंपरिक जीवन शैली से प्रेम उन्हें सिंदूर, चूड़ी, बिंदी की ओर आकृष्ट करता रहा है, जब लेखन के क्षेत्र में आती हैं तो बहुत कुछ ऐसा लिख जाती हैं जो कि उनसे पहले किसी ने भी इतने उन्मुक्त अंदाज में नहीं लिखा-
“प्यार शब्द घिसते-घिसते चपटा हो गया है,
अब
हमारी समझ में सहवास आता है।”
उनकी यह कविता काफी लंबे समय तक चर्चा का विषय बनी रही,जिसे डॉक्टर रघुवंश अथवा लक्ष्मीकांत वर्मा ने प्रकाशित की।1960 ईस्वी से ही इन्होंने साहसी और उत्तेजक कविताओं की रचना की।
ममता ने ऐसा बहुत कुछ अनोखे अंदाज में लिखा जो उनसे पहले इस तरह नहीं लिखा गया था –
“उंगलियों पर गिन रही है दिन
खांटी घरेलू औरत
सोनू और मुनिया पूछते हैं
‘क्या मिलाती रहती हो मां
उंगलियों की पोरों पर’
वह कहती है ‘तुम्हारे मामा की शादी का दिन
विचार रही हूं
कब की है घुड़चढ़ी कब की बरात!’
घर का मुखिया यही सवाल करता है
तो आरक्त हो जाते हैं उसके गाल
कैसे बताए कि इस बार
ठीक नहीं बैठ रहा
माहवारी का हिसाब!”
ममता जी की लेखनी समाज के सच के कितने करीब रही-
खांटी घरेलू
“शादी के अगले रोज़ ही
वह शामिल हो गयी जमात में
खांटी और घरेलू बन कर
फंस गयी बिसात में।
उसी घर और बिस्तर पर
पुरुष ने भी बिताया समय
फिर भी किसी ने उसे नहीं कहा
खांटी घरेलू मर्द।”
निम्न और मध्यम वर्गीय औरतों का क्या खूब चित्र उकेरा है –
“एक नदी की तरह
सीख गई है घरेलू औरत
दोनों हाथों में बर्तन थाम
चौकें से बैठक तक लपकना
जरा भी लड़खड़ाए बिना
एक सांस में वह चढ़ जाती है सीढ़ियां
और घुस जाती है लोकल में
धक्का मुक्की की परवाह किए बिना
राशन की कतार उसे कभी लम्बी नहीं लगी
रिक्शा न मिले
तो दोनों हाथों में झोले लटका
वह पहुंच जाती है अपने घर
एक भी बार पसीना पोंछे बिना
एक कटोरी दही से तीन कटोरी रायता
बना लेती है खांटी घरेलू औरत
पाव भर कद्दू में घर भर को खिला लेती है
जरा भी घबराए बिना।”
इनकी कविताओं में छटपटाती घरेलू स्त्री का बखूबी चित्रण है।वह जितनी अपनी मुखर कहानियों के लिए जानी जाती हैं, उससे अधिक कविताओं में घरेलू और कामकाजी औरत के चित्र खींचने में एक कुशल कवयित्री के रूप में। अपनी कविताओं में घरेलू, कामकाजी औरत को कुछ इस तरह तस्दीक करती हैं –
कभी कोई ऊंची बात नहीं सोचती
खांटी घरेलू औरत
उसका दिन कतर-ब्योंत में बीत जाता है
और रात उधेड़बुन में
बची दाल के मैं पराठे बना लूं
खट्टे दही की कढ़ी
मुनिया की मैक्सी को ढूंढूं
कहां है साड़ी सितारों-जड़ी
सोनू दुलरुआ अभी रो के सोया
उसको दिलानी है पुस्तक
कहां तक तगादे करूं इनसे
छोड़ो
चलो आज तोडूं ये गुल्लक…
इस तरह इनकी हिंदी कविताओं के मूल भाव में उत्तेजना, साहस, आक्रोश , विवशता, घरेलूपन का रंग गाढ़ा रहा और अन्य साहित्यकारों को भी बरबस अपनी ओर खींचता रहा।
ममता कालिया की कहानियों में भी अनुभव और अनुभूति की दीप्ति दृष्टिकोण के खुलेपन के साथ मिलकर कहानी के स्वरूप को निर्धारित करती है। ‘बोलने वाली औरत ‘कहानी में उन्होंने लिखा है -“दुनिया भर में विवादित औरतों का केवल एक स्वरूप होता है उन्हें सहमति प्रधान जीवन जीना होता है——–हर घर का एक ढर्र्रा है जिसमें आपको फिट होना है——-घर को सुचारू रूप से चलाने के लिए सिर्फ दो शब्दों की जरूरत थी- ‘जी’ और ‘हां जी’।” ‘थोड़ा सा प्रगतिशील’ में दोहरे मानसिकता वाले पति का कितना सटीक चित्रण है-“(पत्नी) शिक्षित हो परंतु दब कर रहे, आधुनिक हो लेकिन आज्ञाकारी, समझदार हो परंतु अलग सोच- विचार वाली न हो”-क्या यह पंक्ति बहुत सारे भारतीय गृहस्थ घरों के लिए सत्य नहीं है? इसी कहानी से,”कितना अजीब होता है कि दो लोग बिल्कुल अनोखे- अकेले अंदाज में इसलिए नजदीक आयें कि वे एक- दूसरे की मौलिकता की कद्र करते हों, महज इसलिए टकराए क्योंकि अब उन्हें मौलिकता बर्दाश्त नहीं।”-पितृसत्तात्मक समाज का विद्रूप चेहरा उद्घाटित करती हुई है यह पंक्ति। अपनी कहानी “मेला” में कुंभ मेला के नाम पर होने वाले आडंबर पर व्यंग करते हुए वह कहती हैं-“मानो एक दिन आप नहा लें तो प्रतिदिन अपने -आप पाप फ्लश आउट होते रहेंगे-पापों का सुलभ इंटरनेशनल।”लेखिका भारतीय परंपराओं के प्रति पूर्ण सम्मान का भाव रखती हैं, उनकी भाषा में विरोध है तो ढकोसलों पर- “इतना विशाल मेला क्या कुछ भी कालातीत सिखा पायेगा या सब वैसे के वैसे अपने संकीर्ण सरोकारों में वापस हो जाएँगे। जो झूठ बोलता था, बोलता रहेगा, जो घूस लेता था, लेता रहेगा, जो मिलावट करता था, करता रहेगा, जो चोरी करता था,करता रहेगा, और जो कामचोरी करता था करता रहेगा। औरतों की जीवन में इस एक डुबकी से क्या हो जायेगा। उनकी हालत बदलेगी? गंगामाई में पाप सचमुच धुले या यह भी एक सरलीकरण है जिसकी स्वीकृति में ही फिलहाल निष्कृति है।”आपकी छोटी लड़की” स्वयं लेखिका के बचपन की आत्मकथा है, बड़ी ही रोचक प्रस्तुति, मनोभावों को मनोविज्ञान की कसौटी पर कसती हुई। ललित कलाओं में निपुण अपनी बड़ी बहन प्रतिभा की कुशलता और गतिविधियों के चलते इन्हें उपेक्षा का जो पात्र बनना पड़ता था उसके चलते इनके दिल को बड़ी ठेस पहुंचती थी।स्वयं ममता जी के शब्दों में,”आपकी छोटी लड़की’ मेरे अपने लड़कपन की कहानी है। इस लंबी कहानी को लिखने में ज़रा भी श्रम नहीं पड़ा। एक बार यादों की डिबिया खोली तो सारे पात्र बाहर निकल पड़े। जब यह कहानी पहली बार ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में छपी तो पाठकों के इतने पत्र आए कि तत्कालीन संपादक मनोहर श्याम जोशी को इस कहानी पर संपादकीय लिखना पड़ा। उन्होंने कहा कि ममता कालिया की कहानी ‘आपकी छोटी लड़की’ से संकेत मिलते हैं कि साहित्यिक रचना भी लोकप्रिय हो सकती है। हिमांशु जोशी ने मुझसे कहा, ‘‘आपकी कहानी छापकर हमारा काम बहुत बढ़ जाता है। हर डाक में डाकिया सिर्फ आपकी कहानी पर चिट्ठियों के बंडल डाल जाता है।’’ इन सब बातों से बड़ी हौसला अफज़ाई हुई, वरना लिखना तो सागर में सुराही उँडेलने के समान होता है। इतना विशाल हिंदी साहित्य का कोष-इसमें कहाँ मैं, कहाँ मेरी कहानियाँ।”
ममता जी ने “दुक्खम -सुक्खम” उपन्यास महात्मा गांधी के महिलाओं पर पड़े प्रभाव की पृष्ठभूमि में लिखा था। वह स्वयं कहती हैं कि इस उपन्यास को लेकर वह शुरू में काफी सशंकित थी कि आज के जमाने में उनकी दादी से जुड़ी कहानी को कौन पढ़ेगा।इसमें कोई आंदोलन, कोई उठापटक नहीं है।सीधी-सीधी सी कहानी है, लेकिन उनके स्वर्गीय पति की अपेक्षा के अनुरूप ही पाठकों ने इसे काफी पसंद किया।उन्होंने बताया कि यह महात्मा गांधी का ही प्रभाव था कि कई महिलाओं ने देश के स्वतंत्रता आंदोलन के समय रेशमी साड़ियों की जगह खादी की धोती पहनना शुरू कर दिया था। उनका कहना है कि महात्मा गांधी का महिलाओं पर क्या प्रभाव पड़ा, इस बारे में बहुत कम लिखा गया है।उनके विचारानुसार यह नये किस्म का फेमिनिज्म है जिससे समाज में सकारात्मक विचार आते है।
ममता कालिया जी अपने साहित्य लेखन की प्रेरणा के लिए मथुरा और मुंबई को विशेष मानती हैं-“मथुरा मेरी कहानियों में भी धड़कती रहती है; कभी आवेश बनकर, कभी परिवेश बनकर। मथुरा की यादें दराज में पड़े मुड़े- मुड़े कागजों की तरह है जिनमें तारतम्य नहीं बैठा पाई हूं।”
ममता कालिया जी की रचनाओं की जहां लंबी फेहरिस्त है, वहीं इनके सृजन को सम्मान देने वाले पुरस्कारों की भी।कहानी संग्रह में छुटकारा, एक अददऔरत, सीट नंबर 6 ,उसका यौवन, जांच अभी जारी है , प्रतिदिन , मुखौटा, निर्मोही, थिएटर रोड के कौवे, पच्चीस साल की लड़की आदि है। इनकी संपूर्ण कहानियां दो खंडों में “ममता कालिया की कहानियां” नाम से प्रकाशित हैं। बेघर, नरक दर नरक, प्रेमकहानी, लड़कियां ,एक पत्नी के नोट्स, दौड़, अंधेरे का ताला ,दुक्खम् सुक्खम् इनके उपन्यास हैं।खाटी घरेलू औरत, कितने प्रश्न करुं, नरक दर नरक, प्रेम कहानी- इनके कविता संग्रह हैं। नाट्य संग्रह में यहां रहना मना है ,आप ना बदलेंगे -उल्लेखित हैं।”कितने शहरों में कितनी बार” इनका संस्मरण है तो” मानवता के बंधन “प्रसिद्ध उपन्यास ‘सामरसेट मॉम’ का अनुवाद- कार्य है। “बीसवीं सदी का हिंदी महिला लेखन, खंड 3 ” का इन्होंने संपादन किया है। “ए ट्रिब्यूट टू पापा एंड अदर पोयम्स” नामक इनकी अंग्रेजी कविता संग्रह भी प्रकाशित है।अभिनव भारती सम्मान(१९९०), साहित्य भूषण सम्मान(२००४), यशपाल स्मृति सम्मान(१९८५, ‘उसका यौवन” कहानी संग्रह हेतु), वाकेशनल पुरस्कार(१९९०),महादेवी वर्मा अनुशंसा सम्मान(१९९८, “एक पत्नी के नोट्स” हेतु) , सावित्रीबाई फुले पुरस्कार(१९९९, “बोलने वालीऔरत” हेतु), अमृत समान, कमलेश्वर स्मृति सम्मान, जनवाणी सम्मान (२००८),लमही सम्मान(२०११, प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए) , द्वितीय सीता पुरस्कार(२०१२, “कितने शहरों में कितनी बार”),२७वां व्यास सम्मान(२०१७, उपन्यास दुक्खम् – सुक्खम् के लिए)-ऐसे कई सम्मानों से सम्मानित है इनका व्यक्तित्व।
श्री उपेंद्रनाथ ‘अश्क’ के शब्दों में-‘‘मैं यही कह सकता हूँ कि ममता की रचनाओं में अपूर्व पठनीयता रही है। पहले वाक्य से उसकी रचना मन को बाँध लेती है और अपने साथ बहाए लिए चलती है, कुछ उसी तरह जैसे उर्दू में कृशन चंदर और हिंदी में जैनेंद्र की रचनाएँ। यथार्थ का आग्रह न कृशन चंदर में था, न जैनेंद्र कुमार में, लेकिन ममता रूमानी या काल्पनिक कहानियाँ नहीं लिखती, उसकी कहानियाँ ठोस जीवन के धरातल पर टिकी हैं। निम्न-मध्यवर्गीय जीवन के छोटे-छोटे ब्योरों का गुंफन, नश्तर का सा काटता तीखा व्यंग और चुस्त-चुटीले जुमले उसकी कहानियों के प्रमुख गुण हैं। ममता की बहुत अच्छी कहानियों में तीन-चार कहानियों का मैं विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूँगा-‘वसंत-सिर्फ एक तारीख’, ‘लड़के’, ‘माँ’ और ‘आपकी छोटी लड़की’।’’
दो सौ से अधिक कहानियां लिख चुकी ममता कालिया स्वयं अपने लेखन के बारे में कहती हैं-“अपनी हर कहानी पर यह शपथ-पत्र लगा सकती हूँ कि यह मैंने बड़ी शिद्दत से महसूस करते हुए लिखी। हर कहानी को अपने कलेजे की गर्मी से सेंका और पकाया। कितना ही यथार्थ अपनी नसों पर झेला, कितना कुछ औरों को झेलते देखा। जिस वक्त जो लिखा उसमें अपनी पूरी ऊर्जा लगा दी। हर में लिखा, हर हाल में लिखा। अपना गुस्सा, अपना प्यार, अपनी शिकायतें, अपनी परेशानियाँ तिरोहित करने में लेखन को हरसू मददगार पाया। जो कुछ रू-ब-रू कहने में सात जनम लेने पड़ते, वह सब रचनाओं में किसी न किसी के मुँह में डाल दिया। मेरा यकीन है कि लेखन से सबसे अच्छा जीवन साथी मुझे क्या, किसी को भी नहीं मिल सकता।” उनके पति रविंद्र कालिया जी, जो उन्हें अपने बच्चों के ‘सांताक्लॉज’की संज्ञा से विभूषित करते थे, आगे कहते हैं,” ममता के लिए लेखन सबसे बड़ा प्यारा पलायन भी है। वह किसी बात से परेशान होगी तो लिखने बैठ जाएगी। उसके बाद एकदम संतुलित हो जाएगी।”
बतौर लेखिका ममता कालिया का कहना है कि
देखा जाए तो समाज में एक सकारात्मक किस्म का वातावरण बन रहा है।यह अच्छा संकेत है कि महिलाएं अपनी पीड़ा, संघर्षों और अनुभवों के बारे में खुलकर लिख रही हैं।
हिंदी में गल्प लेखन की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा, 10-15 साल पहले कहा जाता था कि स्त्रियां भी लिखती हैं।स्त्रियों ने इस बीच लिखकर यह साबित कर दिया कि स्त्रियां ही लिख रही हैं। मुझे एक तरह से लगता है कि कहानी लेखन में पुरुष लेखक माइनॉरिटी में आ गए हैं।आप उन्हें अंगुलियों पर गिन सकते हैं। इस स्थिति के पीछे कारण आप कह सकते है कि स्त्रियों की जिजीविषा हो।उनका अड़ियलपन हो… आप कुछ भी कह सकते हैं।
एक प्रकाश स्तंभ हैं ममता कालिया नवोदित होती आधुनिक महिला लेखिकाओं के लिए।
रीता रानी
शिक्षिका एवं साहित्यकार
जमशेदपुर, झारखंड
रीता रानी, शिक्षिका एवं शब्द- शिल्पीकार,जिनकी पुस्तकों एवं कलम से सदैव मित्रता रही।लॉकडाउन के अँधियारे में रोशनी तलाशती इनकी कलम गृहस्वामिनी के प्रकाश- स्तंभ का सान्निध्य ग्रहण करती हैऔर अनेक कविताएँ एवं आलेख पाठकों के समक्ष कालक्रम से प्रस्तुत होते रहे हैं।वान्या प्रकाशन ,उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित पुस्तक “लॉकडाउन : मेरे अनुभव, मेरे एहसास” में आलेख प्रकाशित एवं राजभाषा विभाग, भारत सरकार द्वारा निकाली जाने वाली पत्रिकाओं में प्रकाशन हेतु आलेख चयनित, (प्रकाशन प्रक्रियाधीन), दक्षिण समाचार पत्रिका (हैदराबाद), निर्दलीय सामाचार (भोपाल), अमृतविचार ( उ.प्र . ) में प्रकाशित विभिन्न रचनाएँ,अंतरराष्ट्रीय काव्य प्रेमी मंच, तंजानिया द्वारा आयोजित ऑनलाइन काव्य पाठ आयोजनों में सहभागिता।इस मंच के अधीन कुछ कविताओं के प्रकाशन को गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड से जोड़े जाने की प्रक्रिया में शामिल है।
प्रकृति का मौन अवलोकन, संगीत को आत्मा में रचा- बसा लेने की कोशिश, मानवीय संवेदनाओं को गहराई से समझने की ललक,निज दायित्वों के प्रति गहरा उत्तरदायित्व बोध और इन सबसे ऊपर ईश्वर में गहन आस्था-इनके व्यक्तित्व को विशिष्टता प्रदान करते हैं। बच्चों की दुनिया जहाँ इन्हें आकर्षित करती है, वहीं दूसरी ओर इनके लिए जीवन सौंदर्य को पाने के सोपान हैं-योग, अध्यात्म, पेड़- पौधें, पुस्तकें और पवित्र भावनाएँ।इनके अनुसार जीवन के यथार्थ का सम्बन्ध अंतिम साँस तक परिमार्जन की क्रिया से है और इसमें जो भी स्थूल एवं भौतिक, रिश्ते एवं संवेदनाएँ सहायक हों, उनके प्रति कृतज्ञता का भाव होना ही मनुष्यता की सही परिभाषा है।इनका मानना है कि हर व्यक्ति को अपने सामर्थ्यानुसार राष्ट्र के नवनिर्माण में ईमानदार अंश प्रदान करना चाहिए ताकि मातृभूमि की माटी के ऋण का कुछ तो मोल चुकाया जा सके।