वो प्यारी पाती
वो कलम का उठाना उसके नीचे एक कॉपी का रखना
आधा खत लिखकर सिरहाने धर लेना,
फिर कुछ और मन की बातें लिखना,
लिफाफे पर पता लिखकर वो गोंद पर ओंठ को घुमाना या फिर गीली उंगली से चिपका देना।
वो प्यारा सा लाल डिब्बा जो बाहे पसारे इंतज़ार करता था।
जिसका नाम लिखा, साईकिल की घंटी टनतानाता ,
थैले से खुशियां बांटता
वो भूरी वर्दी वाला डाकिया कितना भला लगता था।
कभी होली और दीवाली दे कर उसका शुक्रिया अदा कर दिया करते थे।
ख़त के पन्नों में ना जाने कितने ख्वाब पिरो लेते थे।
पुराने होने पर वो और भी दिल के करीब लगते थे।
क्योंकि ऐसी निशानियां अक्सर
“साटिंन ” के थैले में संजो लेते थे।
इधर उधर छुपा कर ,मां ,पापा की आंखों से बचा कर।
कभी बक्से तो कभी कपड़ों में दबा दिया करते थे।
हां ! ये वो प्यार भरे ख़त हुआ करते थे ,जिनको हम पढ़ कर सुर्ख हो जाया करते थे।
वो आपस का मिलना जुलना, दो पल बैठ हंस कर ठहाका लगा लेना।
वो छोटी सी दुनिया थी जिस पर हम जान निछावर करते थे।
ऐसे नीले पीले टिकट लगे लिफाफे कभी कभी खुशियों के साथ साथ, शोक संदेशा भी तो लाते थे।
कभी वो पोस्टकार्ड होते या फिर टेलीग्राम कहलाते थे।
या तो उनको काली स्याही लिख भेजा जाता या फिर ,अशुभ को चिन्हित करता “एक कोना” फाड़ दिया जाता था।
जिनको अब RIP कह कर हाथ जोड़ लिया करते है।
अब वो पचास रुपए या पांच रुपए वाला लेटर पैड और लिफ़ाफे ना जाने कहां गुम हो गए है।
वो खत, वो मन ,वो कलम दवात
वो ख्याल सब घरों में कैद से हो गए है।
हाथों और गोदी में बिठा लिया है,
जिसको ” मोबाइल लैप टॉप ” में दर्ज किए जाते है।
शब्द, खुशियां, रिश्ते – नाते और यहां तक कि अपने पते भी अब
” गूगल” के हवाले कर दिया करते हैं।
वक्त हुआ करता था ,किसी के इंतज़ार में घड़ियां गिनना,
उसको भी “टाइमर’ में बांध दिया करते है।
मिलने का इज़हार कुछ यूं जताया करते हैं।
ज़ूम के आगे सज धज कर बैठ जाया करते हैं।
चलो! वक्त को कटा यह सोच मन को बहलाया करते है।
कैसे बंधे है अपनी दिनचर्या में
जिस मन को रखते थे अपने पास,
वो अब उस “नाचीज़ ” के हवाले कर दिया करते हैं।
तसल्ली हुई है दिल को जबसे कुछ मिले हैं हमकदम साथ निभाने को ।
लिख लेते है दिल की बातें
कभी कीपैड तो कभी कागज के पन्नों पर
कुछ उनकी सुनने और कुछ अपनी बीती सुनाने को।
जोड़ लेते है दिल के तार!
देश ,विदेश के वो सारे साथी
गृहस्वामिनी में अपना वक्त
बिताने को।
विनी भटनागर
नई दिल्ली