अब नहीं, तो कब ?
बस के बगल वाली सीट बहुत देर से खाली थी। बस खुलने में अभी सात-आठ मिनट और रहे होंगे। खिड़की से बाहर की गहमा गहमी देख रही थी मृदुला। ऐसे हमारे यहाँ जैसा शोर वहाँ नहीं है। हमारे यहां तो चीखते खोमचे वाले, व्यस्त कुली, शोर करते बच्चे, झगड़ते परिवार बस स्टैंड की रौनक बड़ा देते हैं। न्यूयार्क का बस अड्डा ऐसे भीड़-भाड़ वाला तो था लेकिन सब कुछ तारतम्यता से तभी बगलवाली सीट पर वो आकर बैठ गई | मृदुला को वो थोड़ी नर्वस लगी। भूरे बाल, गहरी लाल लिपस्टिक, काली ड्रेस, जैकेट | ऐसे उसके बनाव श्रृंगार में कुछ अटपटा नहीं था। उसके इस घूरने की आदत को हमेशा टोकती है उसकी बेटी। अनन्या की याद आते ही एक मुस्कान तैर गई | उसी ने ज़िद कर भेजा उसे इस “लिटरएरी क्रिएटिव” में भाग लेने के लिए। अब नहीं, तो कब, मॉम? बस अपने ही लिए मत लिखो। जिद कर उसकी तीन कविताएँ भेज दी। बस ऐसे ही एक के बाद सब कुछ होता गया। उसे ना किस्मत पर यकीन है ना हाथ की लकीरों में । सब बदलते रहते हैं।
अपनी किस्मत को छोड़कर मृदुला ने चारों तरफ देखा। वही घूरने वाली आदत । सब लोग अपनी सीट पर बैठ ही चुके थे। बगल वाली महिला भी अपनी सीट में आराम से थी। अपने डफ बैग को गोद में लेकर कुछ निकाल रही थी। खिड़की के बाहर बस हरियाली, खेत, कहीं-कहीं लोग। सब एक लाइन में कार, ट्रक, बसें। उसने अब तुलना बंद कर दी थी। वो उनकी जिन्दगी थी। हमारी जिन्दगी ऐसे नहीं चलती। सैंडविच निकालकर खा रही थी वो। ऐसे हमारे यहां पराठा अचार भी लोग बांट कर खाते हैं।
मृदुला ने सोचा उससे बात करुँ। लगता है उसने उसके मन की बात पढ़ ली। डफ बैग ऊपर बने लॉकर में जा चुका था। वो उसकी तरफ देख कर मुस्कुराईं | अंग्रेजी में बोल कर उसने कहा- आय एम सैली। बहुत दिनों के बाद घर से निकली हूँ। थोड़ी नर्वस हूँ। अपने पति को तीन साल पहले कैंसर में खो दिया था। ये जिन्दगी क्या खेल दिखाती है। वो तो ऐसे चला गया जैसे उसे किसी बहाने की तलाश थी। मृदुला ने देखा उसकी आँखों की कोरें भीग गई हैं। रमेश भी तो ऐसे छोड़ गया, बिना बहाने के। सुबह अखबार पढ़ते हुए, बस जैसे उसी कुर्सी पर थम गया।
आगे बोलने लगी वो। जब जवान थे तो कभी बच्चों के बारे में नहीं सोचा। अब लगता है कि एक-दो बच्चे होते तो शायद अच्छा होता। कभी-कभी लिखती थी तो वही अब सहारा बन गया। ओह, वो भी उसी लिटरएरी क्रिएटिव में जा रही है। बिंदी देखकर उसने पूछा-इंडिया? कितनी अजीब बात है न? एक छोटी गैरमालूम बिंदी हमारे देश की सबसे बड़ी पहचान है।
तीन दिनों के उस वर्कशाप में मृदुला और सैली गाहे-बगाहे टकराते रहे। उसे एक आदमी के साथ रोज़ देखने लगी। फिर वही घूरने की आदत । हमारे यहां अनजान आदमी से शादी तो कर सकते हैं, बातचीत नहीं। अभी भी अनजान आदमी से बात करने में उसकी हालत खराब हो जाती है। उस शाम को सैली ने कॉफी लेते हुए बातचीत शुरू कर दी और कहा- मैं सैमुअल के साथ डेटिंग करने की सोच रही हूँ। सही गलत तो आदमी की सोच है, मृदुला सोच रही थी। सैली की बात उसे ठीक लगी। जीवन के सुख-दुख के कारण हम खुद ही होते हैं। जीने की तरकीब दूंढते हुए हम दो कितने अलग हैं ना। बिना नक्शे के आकाश में घूमते पक्षियों को वो बस की खिड़की से देख रही थी। सैली अभी दो-तीन दिन वहीं रुकेगी, सैमुयल के साथ | दोनों की कविताएँ चुन ली गई थी प्रकाशन के लिए। सैली ने वादा किया था कि वो ई-मेल के जरिए सम्पर्क में रहेगी।
हमारे जीवन की शतरंज कितनी अलग है, सोचती हुई मृदुला मुस्कुराई | प्रेम के कई रंग हैं, उसे एक नए प्रेम का आधार मिल गया है- शब्दों के, किताबों की । उसे अपनी किस्मत से कोई रंज नहीं है अब।
डॉ. अमिता प्रसाद
दिल्ली