प्रेम बंधन
तुमने कम समझा है मुझे
या शायद समझने की जरूरत ही नहीं समझी
चलो जाने दो इस नासमझी पर भी मुझे तो प्यार ही आया सदा
अब तुम समझो, न समझो ये तुम्हारी समझ
और तुम्हें समय भी कहाँ समझने समझाने का
पर देख लेना, एक दिन अपने दुपट्टे के कोने से
बांध लूंगी समय को, प्रेम बंधन में और फिर
फिर क्या तब तक नहीं खोलूंगी वह गाँठ
जब तक सुबह की लालिमा से चमकती
तुम्हारे रक्ताभ होंठो पर ठहरी ओस की बूंद को
अपनी पलकों में न समेट लूँ
चंद्र किरणों में लिपट कर, नदी की वर्तुल धारा पर
तुम्हारे हाथों में हाथ लिए किसी इठलाती नाव में
नाविक के कंठ से फूटी स्वर लहरियों के संग न बह लूँ
दरिया किनारे किसी पत्थर पर
लहरों के शोर के बीच शांत लेटे मेरी गोद में सिर रखकर
बालों में फिरती अंगुलियों की अठखेलियाँ
जाड़े की गुनगुनी धूप में डोलते और बरखा की बूंदों में भीगते
फाल्गुनी बयार की सिहरन
जेठ की गर्मी से बेहाल मन
किसी गौरया के घोंसले के बनने तक
सागर की लहर के जाकर फिर वापस आने तक
रेत पर लिखती न मिटने वाली स्याही से
अपनी ही तकदीर अपने हाथों में
मेंहदी के सुंदर बूंटे सी सुर्ख लाल
तुम्हें पसंद हैं ना मेंहदी लगे मेरे हाथ
लेकिन उससे भी ज्यादा पसंद है
समय के साथ दौड़ लगाना
जब वही बंधा होगा, तब तो देखोगे
ढलती शाम का सूरज मेरी बिन्दी सा है बिल्कुल
गायें भी लौट आती हैं गौधुली बेला में
और पंछी भी कतार में जाते नीड़ की ओर
हाँ मछली अब भी चंचल है तुम्हारी तरह
ठहरती नहीं पलभर कहीं
स्थिरता उसका स्वभाव नहीं या भटकना उसकी नियति
कौन जाने उसके मन की
मैं खोल दूंगी वह गाँठ जब तुम्हारी आँखों में
जमी झील का पानी पिघल कर बहेगा
नीरवता को ध्वस्त कर खिलेंगे जब नीलकमल
स्वर्ण सरोवर में
रागीनियाँ बजेंगी सप्त स्वरों को धारण कर
तुम्हारे पसंद की धुन पर
जब होंठों पर आई मुस्कान छद्म न होगी
और फैली हुई बाहों में समा जाएंगे पर्वत शिखर
शीतलता बरसेगी और स्नेह के अंकुर हँसेंगे
बस उसी क्षण में खोल दूंगी वह गाँठ
और ले लूंगी समय से मोहलत
फसल के बड़े होने की…
डॉ. अन्नपूर्णा सिसोदिया
लेखिका
कोटा, राजस्थान