बसंत
“सकल बन फूल रही सरसों,
टेसू फूले अम्बुआ बौरे,
कोयल कूकत डार डार,
और गोरी करत सिंगार,
मालनियाँ घरवा ले आयी करसों।”
अमीर खुसरो का जाना माना कलाम, जो उन्होंने तेहरवीं और चौदहवीं शताब्दियों के बीच लिखा, और जो आज भी संगीत प्रेमियों के मानस में गूँज रहा है | राग बहार में लयबद्ध यह बंदिश आपको मंत्र मुग्ध कर देगी | सात सौ – आठ सौ साल पहले लिखी हुई इन पंक्तियों का नशा वही महसूस कर सकता है जिसने माघ – फाल्गुन के महीनों में सरसों के फूलों से खिलें हुए पीले पीले खेत देखे हैं | जहाँ तक निगाह जाये, हरे हरे खेत और उन पर फैली हुई सोने सी दमकती सरसों; ऊपर, जाती हुई सर्दियों का, फिरोज़ी आसमान | जैसे जैसे पूस की कड़कड़ाती हुई सर्दी अपनी ठिठुरन खोती जाती है और फाल्गुन की खुशनुमा गर्मी संपूर्ण प्रकृति में फिर से जीवन चेतना का संचार करती है, इन दोनों के बीच में आता है माघ का महीना | इसी माघ के महीने के शुक्ल पक्ष की पंचमी को वसंतोत्सव मनाया जाता है|
पाश्चात्य संस्कृति का अनुसरण करते हुये आधुनिक भारतीय युवा वेलेंटाइन्स डे से इतना प्रभावित हो गया है कि माँ सरस्वती के पावन पूजन दिवस को भूल ही गया है | बच्चों को वैलेंटाइन्स डे से पहले के सात दिन, चॉकलेट डे, टेड्डी बेयर डे, किस डे इत्यादि सब भली भांति याद हैं परन्तु बसंत पंचमी की महत्ता से वह अनजान हैं | पहले ऐसा न था |
मैंने नर्सरी और प्राइमरी कक्षाओं में अध्ययन लखनऊ के मॉडल मोंटेसरी स्कूल से किया था | तत्पश्चात मिडिल स्कूल और हाई स्कूल एक प्रख्यात क्रिस्चियन मिशनरी स्कूल से और इंटरमीडिएट भी उसी संस्था के कॉलेज से |
मिस इसाबेला थॉबर्न, अमेरिका की पहली महिला मिशनरी, भारत १८६९ में आयी थीं |मेथोडिस्ट एपिस्कोपल चर्च से जुडी इस महिला ने लखनऊ में लड़कियों की शिक्षा के लिए बहुत सराहनीय काम किया था|लाल बाग़ गर्ल्स हाई स्कूल और जाना माना आई टी कॉलेज उन्हीं की देन है | जब मेरा दाख़िला इन संस्थाओं में, एक के बाद एक, हुआ तो वह अपनी स्थापना के ९० से ९७ वर्ष मना रहे थे| शिक्षा का स्तर अच्छा था| ज़ाहिर है अमेरिका का और ईसाई धर्म का गहरा प्रभाव था। मेरा प्रवेश लाल बाग़ स्कूल में छठी कक्षा में हुआ था | नया स्कूल बहुत पसंद आया था पर दिन का आखिरी पीरियड आर एम ई (RME -Religious and moral education) होता था और मेरी कुछ नई समस्याएँ इसी पीरियड से संबंधित थीं | पाठक सोच रहे होंगे कि बसंत का इन समस्याओं से क्या संबंध हो सकता है? वही जो आत्मा का शरीर से, वृक्ष का उसकी जड़ से और किसी भी संस्कृति और सभ्यता का उसके मूल से होता है |
शायद अत्याधिक सरलीकरण के कारण हमारी छठी क्लास की अध्यापिका मूर्ति पूजा को ईश्वर के प्रति द्रोह कहती थीं। मेरे घर में सुबह पूजा और साँझ की आरती होती थी | मुझे यह बात बिलकुल रास नहीं आयी और मैंने उसका जम कर खंडन भी किया | माँ और बड़ी बुआ जी गीता और वेदांत की छात्रा थीं| सनातन धर्म के मौलिक सिद्धांत मुझे बचपन में ही विरासत में मिल गये थे| मैंने मूर्ति पूजा के प्रतीकात्मक महत्त्व को पूरी कक्षा के समक्ष निडर होकर बता दिया | हवा तो भगवान की भांति हर जगह हैं, पर हम पंखे के नीचे क्यों बैठते हैं ? क्योंकि वहां हवा अधिक महसूस होती है | वैसे ही मंदिर, मस्जिद और गिरजा घर में भगवान के ऊपर ध्यान केंद्रित करने में आसानी होती है | गिरजा घर में भी तो ईसा मसीह की मूर्ति और क्रॉस होता है।
निडरता और आत्मविश्वास मुझ में बचपन से ही कूट कूट कर भर दिया गया था, इतना कि १० साल की उम्र में भी अपनी बात निःसंकोच सबके सामने कह सकूं| मोन्टेसरी स्कूल की अध्यापिकाओं ने इस आत्मविश्वास को और भी मज़बूत बनाया था | यह आत्मविश्वास बाद में भी मेरे जीवन में बहुत काम आया पर उन अध्यापिका के लिए मैं एक अजूबा ही थी| बात यहाँ तक बढ़ी कि सालाना परीक्षा में गणित में मेरे १०० प्रतिशत को संपूर्ण (कुल) अंकों में जोड़ने के समय उन्होंने दो शून्य तो जोड़ दिए पर एक जोड़ना भूल गईं |यह एक फ्रेयडीअन (Freudian slip) था, जहाँ हम वह गलती करते हैं जो हम करना चाहते हैं | नतीजा हमारे गणित के नंबर १०० प्रतिशत के बजाय ० प्रतिशत हो गए |
कक्षा में परिणाम सुनाने के समय बड़े ही व्यंग्यात्मक तरीके से उन्होंने कहा, “नीरजा! बहुत अच्छा प्रदर्शन किया है| २५ वां स्थान मिला है|” कक्षा में ४० बच्चे थे | मैं स्तंभित थी | जो छात्रा कभी प्रथम या द्वितीय स्थान से नीचे नहीं आई हो उसकी हालत समझी जा सकती है | कक्षा में उन्होंने कई बार मुझे अपमानित किया था पर यह कुठाराघात असहनीय था | बच्ची थी, यह नहीं सोचा कि एक बार सारे नंबर जोड़ लूँ | निराश घर पहुँच कर माँ से कहा | उसने सोचा नया स्कूल है शायद अच्छा नहीं कर पायी होगी | माँ ने ऐसे ही ज़बानी मेरे नंबर जोड़े | “अरे! इसमें तो १०० नंबर जुड़े ही नहीं हैं|” माँ ने कहा | अबतक मेरे आँसुओं का बाँध फूट चला था | माँ मुझे साथ लेकर प्रिंसिपल महोदया के ऑफिस में पहुंची | उन्होंने भी जोड़ा | १०० नंबर वास्तव में गायब थे | पूरी कक्षा के नतीजे निकाले गए | गलती का सुधार होने पर मेरा अपनी कक्षा में ही नहीं अपितु पूरे स्कूल में प्रथम स्थान था |
तब तक गर्मियों की छुट्टियां शुरू हो चुकी थीं पर जैसे ही स्कूल खुला प्रिंसिपल ने पूरी असेंबली के सामने सही नतीजे रखे और मुझे स्टेज पर बुला कर मुबारकबाद दी | यह घटना मुझे कभी नहीं भूलेगी | कई सालों तक मुझे उस असेम्ब्ली हॉल और उन टीचर के सपने आते रहे | इस अनुभव से मैंने बहुत कुछ सीखा | सब से अधिक यह कि धार्मिक कट्टरता मनुष्य को अँधा बना देती है |
यहाँ मैं स्पष्ट कर दूँ कि कट्टरपंथी दुर्भाग्यवश हर धर्म में पाये जाते हैं और उन्हें न अपने धर्म का या अन्य किसी धर्म का कुछ भी ज्ञान होता है | जो व्यक्ति कोई भी एक धर्म ठीक से समझ लेता है उसके लिए हर धर्म सम्माननीय हो जाता है क्योंकि सब धर्मों का मूलभूत सार एक ही है |
लालबाग़ स्कूल और आई टी (इसाबेला थॉबर्न ) कॉलेज दोनों जगह चैपल थे और क्रिस्मस धूम धाम से मनाया जाता था |वह भी मुझे बहुत अच्छा लगता था | अभी भी मुझे किसी शांत चैपल में, जहाँ ऑर्गन बज रहा हो, बैठ कर बेहद सुकून मिलता है | मेरे लिए हर धर्म स्थल पूज्यनीय है| जब तक बच्चे साथ थे, हमारे यहाँ क्रिस्मस उतने ही उत्साह से मनाया जाता था जितना कि होली, दीवाली और दशहरा | बसंत से संबंधित लेख में इस प्रसंग द्वारा सिर्फ यह दिखाने का प्रयत्न कर रही हूँ कि कैसे माता पिता, अध्यापिकायें, समाज इत्यादि बच्चों के कोमल मानस पटल पर अमिट छाप छोड़ते हैं | कुछ अच्छी तो कुछ अपने धर्म और संस्कृति के प्रति हीन भावना पैदा करने वाली| अगर नींव मज़बूत न हो तो बच्चे भ्रमित हो जाते हैं।
मॉडल मोंटेसरी स्कूल में बसंत पंचमी के दिन सरस्वती पूजन होता था | स्कूल के सभा प्रांगण में सरस्वती जी की एक बड़ी भव्य मूर्ति थी| श्वेत सुनहरे बॉर्डर वाली साड़ी पहने हुए माँ सरस्वती राजहंस पर बैठी थीं | मंद मंद मुस्काती हुई माँ के हाथों में वीणा और पुस्तकें | उन दिनों हर चीज़ बड़ी लगती थी| हम जो छोटे से थे | बसंत पंचमी के दिन वह मूर्ति वहां से उठा कर खेल के मैदान में लायी जाती थी | एक मंच बनाया जाता और उसे पीले फूलों से सजाया जाता |
मूर्ति वहां स्थापित होती और उसके सामने बच्चे बड़े सारे कार्यक्रम करते | उस दिन स्कूल में नीली और सफ़ेद यूनिफार्म के बजाय सब बच्चों को पीले और सफ़ेद कपड़ों में आना होता था | लड़कियों के लिए पीली ऑर्गन्डी का बना फ्रॉक, गोल कालर, छोटी पफ वाली बाहें और थोड़ा सा चमकीला अबरक और लड़कों के लिए पीले रंग की आधी बांह की कमीज़ और सफ़ेद हाफ पैंट | सारे बच्चे पीले और सफ़ेद रंगों की एक सी पोशाक में और सारी अध्यापिकाएँ भी सफ़ेद और पीले वस्त्रों में | स्कूल का खेल का मैदान एक लहलहाते हुए सरसों के खेत के समान दीखता हुआ |
सब से पहले सरस्वती वंदना होती थी|
‘हे शारदे माँ, हे शारदे माँ,
अज्ञानता से हमें तार दे माँ |
तू सुर की देवी है, संगीत तुझ से,
हर शब्द तेरा है, हर गीत तुझ से,
हम हैं अकेले, हम हैं अधूरे,
तेरी शरण हम, हमें प्यार दे माँ |….. ’
हमारी संगीत की अध्यापिका हारमोनियम बजाती हुई और सब बच्चे जोश से गाते हुए | सरस्वती वंदना के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम और खेल कूद | एक महीने पहले से रिहर्सल शुरू हो जाता था | सारे बच्चे खेल के मैदान में, सबसे आगे नर्सरी के बच्चे और उनके बाद बड़े क्लास के विद्यार्थी |
मोन्टेसरी स्कूल में मेरा दाख़िला ढाई वर्ष की आयु में नर्सरी में हो गया था | स्कूल के पहले वसंतोत्सव में मैं लगभग साढ़े तीन साल की रही होंगी| अपने क्लास में सब से कम उम्र वाली | पीला ऑर्गन्डी का नया फ्रॉक पहने मैं बहुत खुश थी | हमारी नर्सरी क्लास का आइटम था निम्बू दौड़ (लेमन रेस) | सब बच्चों को एक चम्मच में नीबू रख कर दौड़ना था | नर्सरी क्लास के लिए कोई रिहर्सल नहीं हुआ था | मुझे पता ही नहीं था कि करना क्या है | अध्यापिका के एक, दो, तीन कहने के बाद कुछ बच्चे दौड़े, कुछ के निम्बू गिरे और कुछ निम्बू और चम्मच से खेलने लगे | मैं खेलने वालों में से थी | माँ दर्शकों में बैठी थी | वह ज़ोर ज़ोर से कह रही थी, “दौड़, नीरा दौड़|” माँ के कहने पर हमने दौड़ लगाई पर तब तक अधिकतर बच्चे मंज़िल तक पहुँच गए थे |सब हंस रहे थे| हमारी टीचर ने हंस कर मुझे गले से लगा लिया।प्रतिस्पर्धा का भाव छोटे बच्चों में नहीं होता |यह हमें सिखाया जाता है कि एक के जीतने के लिए दूसरों का हारना ज़रूरी है | खेल कूद और सांस्कृतिक कार्यक्रम के बाद सब को माँ सरस्वती का प्रसाद मिलता था- अधिकतर पीले रंग की नारियल की बर्फी या मोतीचूर का लड्डू या कोई और मिठाई |
मुझे नृत्य का भी बड़ा शौक था | कहीं भी संगीत बजता और मैं थिरकने लगती। माँ ने ६ साल की उम्र से मुझे कत्थक नृत्य सीखने के लिए लखनऊ के भातखण्डे संगीत विश्वविद्यालय में दाखिल करवा दिया था | रोज़ सुन्दरबाग़ (जहाँ हम मेरे बचपन में रहते थे ) से वह मुझे लेकर रिक्शे से कैसरबाग में स्थित भातखण्डे आया करती थी | कुछ दिनों तो उन्होंने अपना समय ऐसे ही मेरा इंतज़ार करके बिता दिया पर फिर उन्होंने भी अपना दाख़िला सितार वादन की कक्षा में करा लिया | दोनों कक्षाओं का एक ही सा समय था | मैं सुमन कल्यानपुरकर जी से और विक्रम सिंह जी से कत्थक सीखती और माँ उस्ताद इलियास खान जी से सितार वादन | विक्रम सिंह जी प्रख्यात नर्तक पद्म विभूषण बिरजू महाराज जी के गुरु भाई थे |
शायद इसी कारण से मॉडल मोंटेसरी स्कूल की संगीत टीचर मुझे सांस्कृतिक कार्यक्रमों में प्रमुख हिस्सा तो देती ही थीं, वह मेरे विचारों और कल्पनाओं को भी कार्यक्रम का हिस्सा बनाती थीं | चौथी कक्षा में हमने सुदामा और कृष्ण मिलन का नाटक किया था। मैं सुदामा थी, वैसे कृष्ण बनना चाहती थी क्योंकि कृष्ण को राजा की तरह और मुझे भिखारी की तरह पोशाकें पहननी थीं | पर संगीत टीचर के अनुसार सुदामा को अधिक संवेदनशील अभिनय करना था | यह सारे कार्यक्रम वसंत पंचमी के दिन होते थे |
पाँचवीं क्लास में हम ने एक नृत्य नाटक (dance ballet) बनाया था, ‘मलय समीर’ | पूरी कक्षा के बच्चे किसी न किसी किरदार में थे | कुछ पेड़ थे, कुछ पहाड़ के कट आउट ले कर खड़े थे | कुछ नीला आसमान और कई सारे बच्चे मलय समीर – पहाड़ों पर चलने वाली चन्दन जैसी सुगंध वाली हवा – थे | सफ़ेद नायलॉन में सुनहरी गोटा किनारी लगा कर टखनों तक लम्बा अंगरखा, नीचे चूड़ीदार पाजामा और धवल बारीक हवा के जैसा दुपट्टा पहने मैं प्रमुख नर्तकी थी |
हमारा कार्यक्रम बहुत ही सराहा गया था | यह मेरा उस स्कूल में आखिरी वसंतोत्सव था | बल्कि किसी भी स्कूल में आखिरी | उसके बाद के स्कूल और कॉलेज में वार्षिक दिवस (Annual Day) और खेल दिवस दोनों ही मनाये जाते थे पर उनकी संस्कृति और तरीका दोनों ही अलग थे| पर मॉडल मोंटेसरी स्कूल में जो सशक्त नीव पड़ी उसके ऊपर बाद के वर्षों में एक मज़बूत इमारत, मंज़िल दर मंज़िल, आसानी से बनती चली गयी|
बच्चों में आत्मविश्वास पैदा करने में पहले स्कूल का और माता पिता का इतना बड़ा योगदान होता है कि उसके सामने बाद के अनुभव थोड़े गौण हो जाते हैं | मैं अपने पहले स्कूल की प्रिंसिपल और संगीत की टीचर को कभी भी भूल नहीं पाउंगी | लालबाग़ स्कूल में विज्ञान और गणित की अध्यापिकाओं, आई टी कॉलेज में फ़िज़िक्स और गणित की अध्यापिकाओं की भी विशेषतः आजीवन ऋणी रहूँगी |
किसी भी व्यक्ति, समाज या सभ्यता को नष्ट करने का अचूक बाण है उसके आत्मविश्वास को ख़त्म कर देना | हमारी हज़ारों साल की अनमोल धरोहर, हमारा वैदिक ज्ञान, हमारा प्राचीन स्वर्णिम इतिहास सब कुछ ४०० साल के मुग़ल शासन और २०० साल के अंग्रेज़ों के शासन में दी हुई मानसिक दासता के नीचे दब सा गया है। मेरी पीढ़ी, जो हमारी स्वतंत्रता और गणतंत्रता के आस पास जन्मी, को यह आघात काफी कुछ सहना पड़ा| यह मानसिक दासता हर जगह है, जैसे कि सतह के नीचे बहती हुई एक अदृश्य धारा | हमारे शास्त्रीय संगीत के ख़ज़ाने को छोड़ कर हम औरों की देखा देखी रैप और पॉप संगीत बनाते हैं? स्वयं नटराज शिव से प्राप्त शास्त्रीय नृत्य की बहुमूल्य विरासत को भूल कर हल्के फुल्के डिस्को डांस पर गर्व करते हैं ? अंग्रेजी और अन्य भाषाएँ जानना बहुत अच्छा है परन्तु अपनी मातृभाषा के लिए प्यार और सम्मान होना भी उतना ही ज़रूरी है | सौभाग्य वश आज कल यह मानसिक दासता थोड़ी कम होती दिखती है |
भारत के राष्ट्र कवि सूर्यकांत निराला जी ने अपनी जानी मानी सरस्वती वंदना में एक नये राष्ट्र और एक नयी सोच का अव्वाहन किया था|
“वर दे, वीणावादिनि वर दे!
प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव
भारत में भर दे!
काट अंध-उर के बंधन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर;
कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे!……”
क्या यह सब हो पाया है ? इन ७४ वर्षों में काफी कुछ नया हुआ, बहुत कुछ पाया, पर अभी भी मंज़िलें दूर हैं | बहुत कुछ नया जो होना था, नहीं हुआ है | हमें फिर से अपनी नई पीढ़ी को उसकी अनमोल भारतीय धरोहर से रूबरू कराना है | उन में अपने इतिहास, भाषा और परम्पराओं के प्रति गर्व जागृत करना है | आशा है कि भारत में फिर स्कूलों में बसंत पंचमी के दिन माँ सरस्वती का अव्वाहन और पूजन होगा |
(वाशिंगटन डी सी में इंडोनेशियन दूतावास के सामने सरस्वती प्रतिमा )
इंडोनेशिया विश्व का सबसे अधिक मुस्लिम जनसंख्या वाला देश है | पर अमेरिका की वाशिंगटन डी सी में उनके दूतावास के सामने माँ सरस्वती की एक भव्य मूर्ति निर्मित है | दूसरों की सभ्यता से जो कुछ अच्छा है उसे अपनाने में कोई बुरी बात नहीं है पर अपना हीरा फेंक कर किसी और का कांच सहेजने में क्या चतुराई है ? हमारी युवा पीढ़ी को यदि वैलेंटाइन्स डे मनाना है तो मनाएं पर बसंत पंचमी जैसे पावन और सुन्दर पर्व को तो न भूलें | अभी तो और भी बसंत आने हैं | अभी तो और भी फूल खिलने हैं |
नीरजा राजकुमार
गुडगाँव ,हरियाणा