अरे! जरा संभल कर

अरे! जरा संभल कर

अँधेरी गलियों के स्याह- घुप्प अंधकार में,
आशंकित- भयभीत ह्रदय ढूँढेगा तुम्हारा हाथ,
पकड़ जिसे मैं चुभते पत्थरों पर,
चलने में लड़खड़ाने पर,
गिरफ्त को और महसूस करूँ कसता हुआ,
इन शब्दों के साथ,”अरे! जरा संभल कर।”

जब कोरों से झाँकते बूँदों को,
तुम संभाल लो अपनी हथेलियों में,
फिर बना मोती तुम सजा दो मेरी वेणी में,
मुस्कुराहट का पराग बिखेर दो मेरे गालों पर,
जब बेतरतीब हँसते-हँसते थाम लूँ ऐंठते हुए पेट को,
तब महसूस करूँ काँधे पर हौले से रखा हुआ तुम्हारा हाथ,
इन शब्दों के साथ, “अरे! जरा संभल कर।”

जब किसी बात से हो मायूस ,आहत सी,
बैठी रहूँ चुपचाप, उलझनों में झूलती,
चुपचाप आ, मेरे कमरे की रोशनी जला,
बेलौस मुस्कान का अभिनय कर मुझसे पूछ,
“है भला बात क्या?”, नजरे मेरे चेहरे पर गड़ा,
नजरअंदाज कर मेरे अनमनेपन को ,
पकड़ाते हुए गरमागरम एक प्याला चाय का,
इन्हीं शब्दों के साथ, “अरे! जरा संभल कर।”


रीता रानी
जमशेदपुर ,झारखंड

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