दस्तक

दस्तक

सुबह से तीन बार कमर्शियल कॉल को मना कर चुकी हूँ कि उसे पुरानी कार नहीं चाहिए। अपनी अलमारी के सभी शॉल वापस तह कर चुकी हूँ। माया ने घड़ी फिर से देखा। लगा समय आगे हीं नहीं बढ़ रहा है। कोविड के कारण आना-जाना लगभग बंद ही है। दोस्त भी ‘थोड़ा कम हो, फिर मिलते हैं’ कहकर अपनी जिंदगियों में व्यस्त हो गईं हैं। बासठ साल की जिंदगी में पहली बार माया को अकेलापन लगा।

पिछले दो सालों में माँ-बाप एक-एक करके चल बसे थे। उनके रहते घर कभी खाली महसूस नहीं हुआ। दवाई देना, उनके रिश्तेदारों से मुलाकात, अपना ऑफिस, दोस्त और कॉफी की पुरानी दुकान। कितना सधी बंधी जिंदगी जी है उसने। फिर एक झटके में सब बंद हो गया। दिन में एक बार उनके कमरे में घूम आती हूँ ज्यादा जाने से कमली भी घबरा जाती है। “उनका कमरा थोड़ा खाली कर दूँ”। “नहीं वैसे ही पड़ा रहने दो’| अब खाली शीशियों, पुराने ढककन, पीले पड़ते अखबार को तो हटाया जा ही सकता है। कमली बहस नहीं करती। बड़ी माँ जी अच्छी थीं, ये दीदी तो हर बात में ‘एक बार बोल दिया बस’! कोई नरमी नहीं। अच्छे पैसे देती हैं तो कमली चुप ही रहती है। काम भी कम है। माया दीदी रात में सूप के सिवा कुछ नहीं लेती। दिन में एक बड़ी कुर्सी पर किताबें पढ़ती रहती हैं। मुई कोविड जाए तो दीदी घर से बाहर निकले।

बहुत दिनों के बाद माया घर के बाहर निकली तो उसे अच्छा लगा। कार तो स्टार्ट हीं नहीं हुई। फिर थोड़ा पैदल चलती हुई ऑटो ले लिया। बिखरे पत्तों को रौंदना उसे बचपन से अच्छा लगता था। माया की सभी सहेलियाँ कहती थीं, तुम जिद पर जीती हो। शायद कभी शादी ब्याह के बंधन में नहीं बंधी, इसीलिए | तीस साल तो स्वतंत्र जिंदगी की चुस्कियों में बीत गए और बाद में अकेले रहकर किसी के साथ मिलाना मुश्किल लगने लगा। उसकी जिंदगी से सब रश्क करते थे। अपनी शर्तों पर जिंदगी जी है उसने।

कॉफी शॉप में मिलने का तय हुआ था। उस दिन की मुलाकात भी अजीब थी। जगदीश से उसकी मुलाकात योगा के ई-ग्रुप पर हुई थी। पत्नी के जाने के बाद जिंदगी की कड़ियों को जोड़ रहा था। योगा मास्टर की गलतियों को बार-बार ठीक कर रहा था। माया ने कड़क कर कहा था कि क्लास डिस्टर्ब ना करें। बेचारा चुप हो गया। ऐसे ही कभी फिर मैसेज आया – माफी मांगते हुए, चाय की चर्चा पर। चाय नहीं, कॉफी – माया ने लिखा और फिर जगह तय की गई। पहले कभी मिले नहीं , देखा भर था। फोटो और सामने में अंतर होता है। आँखों का रंग तो पता चला – फोटो में भूरी दिखती थी, यहाँ काली थी।

जिंदगी निभाने वाले गलतियाँ माफ कर देते हैं। निशा को मेरी कोई आदत पसंद नहीं थी। थक गया था। बच्चे थे नहीं, तो फिर अलग होना आसान हो गया। आपको योगा क्लास में देखा तो लगा जिंदगी बंद दरवाजे पर दोबारा दस्तक दे रही है। माया सुनती रही, क्‍या यही रोमांस है?

माया अपने से नाराज थी। जगदीश की बातों का मतलब उसे जब समझ में आया तो उसने दस दिनों तक चुप्पी साध ली। वो भी अपनी आदतें नहीं बदल सकती। कितनी मस्ती है – लेकिन क्या सचमुच? क्या वह पूरी तरह स्वतंत्र थी या केवल उस अहसास से खुश थी?

जगदीश ने जूम पर शादी का फैसला किया था। ना फेरे, ना पंडित, बस सात वचन वो भी अपने लिखे हुए। पहले माया ने मना भी किया। कहा, वो जिंदगी में अब समझौता नहीं करेगी। फिर जगदीश उससे तीन साल छोटा है। उसे लगता है कि वो जिंदगी के उस मोड़ पर है जहाँ उसे किसी की जरूरत नहीं है।

फिर उसे लगा कि शायद उसकी समझ को बदलाव की जरूरत है। दरवाजे की इस दस्तक को हाँ करना अच्छा है। ‘जूम’ पर सबने ग्लास उठा रखे थे – उसकी सहेलियाँ भी – आश्चर्य, विस्मय, चुहल से भरी हुईं। माया मुस्कुराती हुई अपनी अंगूठी दिखा रही थी।

जिंदगी के इस अनूठे दस्तक को उसने हाँ कर दी है। कहते हैं न, जिंदगी बार-बार दस्तक नहीं देती।



-डॉ. अमिता प्रसाद

दिल्ली

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