ये गुलाब कब से विदेशी हो गया

ये गुलाब कब से विदेशी हो गया

वो किताबों के पन्नों में महकता रहा ताउम्र
प्रेमी जोड़े के बीच एक ‘पर्दा’ बना दिलों को जोड़ गया
कहीं शेरवानी में और बारात में
‘कली’ बन पिन में लगाया गया
कभी गजरे में सजा
कभी ‘सेज ‘ पर सजाया गया
उम्र भर इसको कभी मन्नतों की चादर बना
दरगाहों पर ओढ़ाया गया
या मां के गले का हार बन सजाया गया
वो महलों ,वो ताजों तख्त पर परवान हुआ
वो सरकारी आवासों में
और बागों में नुमाइश का हिस्सा बना
तो कभी स्कूल की क्यारियों में उगाया गया
फिर ये गुलाब कब से विदेशी हो गया!
है ये वो गुलाब इसे गुलाब ही रहने दो।
ना बांटों शरहदों में
ना कोई खास दिन में
ना दो कोई नाम
बस इत्र में इसकी महक रहने दो।

विनी भटनागर
नई दिल्ली

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