लड़ाई अस्तित्व की

लड़ाई अस्तित्व की

भारत एक अनूठा देश है जहाँ अभी भी लड़कों के जन्म पर बधाईयाँ दी जाती हैं और लड़कियों के जन्म पर मातम मनाया जाता है। जन्म से ही अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ती हुई लड़कियाँ अपने हिस्से की जमीन और आसमान को तलाशती रहती हैं।

भारतीय संविधान जो कि 1950 से लागू हुआ, में सबको एक जैसा जीने का हक है, पढ़ने का अधिकार है और अपने जीवन को अच्छा बनाने का भी। लेकिन गरीबी और अशिक्षा की इस लम्बी लड़ाई ने जैसे इन अधिकारों को अंधेरे के गर्त में धकेल दिया है। अखबारों की सुर्खियाँ भी मन को कहीं विचलित करती हैं। रोज ही लड़कियों पर अत्याचार, उनका शोषण, स्कूली शिक्षा पर रोक, – जैसी खबरें अब अंतर्मन को नहीं झकझोरती क्योंकि हम आए दिन यही पढ़ते हैं। भ्रूण हत्या तो इतनी आम बात है कि परिवार के लोग ही उसमें शामिल रहते हैं। “लड़कियों को बचाओ’ और ‘बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ” जैसे कार्यक्रम पिछले 45 सालों में शायद भारतीय गणराज्य की एक बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी। समाज में जागरूकता लाना एक बहुत ही दुर्गम कार्य है। बरसों से रची पची काई लगी मानसिकता को साफ करना केवल सरकार के जिम्मे नहीं है, उसमें सभी को जुड़ना होगा।

लड़कियों को आंगन की कली तो कह दिया लेकिन उनमें सुरक्षा और उमंग को नहीं सम्हाल पाया ये समाज। कानून तो बहुतेरे हैं लेकिन उसको गति और दिशा की जरूरत है। बाल विवाह अब कम तो गए हैं लेकिन अभी भी जबरन मन के विरूद्ध शादी ग्रामीण क्षेत्रों में एक समस्या है। बाल विवाह में भारत अभी भी, विश्व में तेरहवें नम्बर पर है। ‘पराया धन’ कहकर बेचारी लड़की दो पाटों में बंध जाती है। उसका अपना घर’ कहाँ है? लड़कियों और महिलाओं की समस्याएं जुड़ी हैं। अच्छे लालन-पालन और भोजन के अभाव में लड़कियाँ माँ बनने के समय अस्तित्व की लड़ाई लड़ती हैं। और बलि होती रहती हैं अपने लड़की होने के भाग्य पर।

पर हर जगह ऐसा नहीं है। जो लोग शहरों में आ गए, वहाँ मानसिकता बदली है। लड़कियाँ खेल कूद से लेकर शिक्षा में मेडल लाती हैं। लेकिन शहरों की समस्याएं अलग है। यहाँ अवसर है पर यौन शोषण के बड़े मामले हैं – डर के माहौल में बड़ी हुई लड़कियाँ कितनी बार इन कारणों से अवसर गंवा देती हैं। घर में छुपे हुए अज्ञात शैतानों को न जाने कितनी मासूम लड़कियों को झेलना पड़ता है।

लड़कियों और बालिकाओं के अधिकार की लड़ाई में सबसे महत्वपूर्ण है शिक्षा जिससे कि लोगों की मानसिकता में परिवर्तन आए। लड़कियों के बारे में जो धारणाएं हैं, उसमें बदलाव आए। लड़कियाँ ये नहीं कर सकती से लड़कियाँ सब कुछ कर सकती हैं – ये बदलाव कुछ कुछ हो रहा है। साइकिल चलाती लड़कियाँ, स्कूली यूनिफार्म में मार्च पास्ट करती लड़कियाँ– ये बहुत कुछ बताती हैं हमें। कानून भी बने हैं जो कि उन्हें कानूनी अधिकार देते हैं लेकिन ‘लोग क्या कहेंगे’ से लड़ना आसान नहीं है। लड़कियों से औरतें बनती हैं और लड़कियाँ नहीं बचीं तो औरतें कहाँ बचेंगी। हर क्षेत्र में औरतों को आगे लाने की मुहिम बेटी से शुरु होती है। तो क्या किया जाए कि माहौल और हवा बदले। सबसे पहले तो एक सामाजिक बदलाव की मुहिम चले। 60 के दशक में एक विज्ञापन आता था-बेटियाँ हों या बेटे, दोनों ही अच्छे | शायद इस तरह के एक माहौल बनाने की आवश्यकता है। दूसरा कि जो कानून बने हैं उनको ठीक से लागू किया जाए। पुलिस, प्रशासन और गैर सरकारी संस्थाएं जागरूक हों और लापरवाही ना बरतें। तीसरा कि लड़कियों की शिक्षा दसवीं तक बिल्कुल मुफ्त हो और सबके लिए हो। समाज को जागरूक करने के लिए अवसर चाहिए और वो बंद आँखों को खोलकर ही मिल सकता है। अगर लड़कियों के शिक्षा और स्वास्थ्य में आई समस्याओं को सुलझा लिया जाए तो भारतीय गणराज्य के सुनहले सपनों को पूरा किया जा सकता है। केरल और तमिलनाडु दो राज्यों के उदाहरण दिए जा सकते हैं जहाँ इस दिशा में अच्छा काम हुआ है। ऐसे पिछले छह सालों में करीब दो मंत्रालयों (शिक्षा, महिला एवं बाल विकास) ने अपने कार्यक्रमों के माध्यम से काफी अछूते विषयों को प्राथमिकता देकर काम किया है। हालांकि, लड़कियों के खिलाफ हिंसा की बढ़ती हुई घटनाएं चिंता का विषय जरूर हैं। भारत का गणतंत्र अधूरा है, अगर लड़कियाँ खुले आकाश में न जी सकें।

डॉ. अमिता प्रसाद

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