गीता जयंती
गीता जयंती के शुभ अवसर पर आयोजित भगवत् गीता के श्लोकों का चिंतन-मनन यह एक सार्थक पहल है, यह उपक्रम सतत चलता रहे तो सभी को बौद्धिक और आध्यात्मिक लाभ होगा । आज मैं “अवतारवाद” पर अपनी अल्प बुद्धि से कुछ विचार व्यक्त कर करना चाहती हूं । अवतार का अर्थ स्वयं परमात्मा का मानव रूप में जन्म लेना नहीं है । ईश्वर कभी उतर कर मनुष्य नहीं बनता, मनुष्य अपने महान कर्मों और कृतियों से ईश्वरत्व को प्राप्त करता है, ईश्वर बनता है । अवतार ईश्वर के उतरने का नहीं मनुष्य के सीढ़ी चढ़ने का उपक्रम है । जैसे लोहा अग्नि के सानिध्य में अग्नित्व को प्राप्त करता है । मनुष्य की इसी अनुचित अवधारणा ने अवतारवाद को प्रोत्साहित किया । वेदों में अवतारवाद का कहीं विवेचन नहीं है ।
सृष्टि संचालन के क्रम में जब कभी असंतुलन उत्पन्न हो जाता है तब ईश्वरीय शक्ति से युक्त मुक्त आत्मा संतुलन स्थापित करने के लिए पुनः जन्म लेती है । गीता के चौथे अध्याय के ७वें और ८वें श्लोक के ‘तदात्मानं सृजाम्यहम्’ और ‘संभवामि युगे युगे’ से यह स्पष्ट होता है कि अन्य अनेक श्लोकों के आधार पर अवतार के सिद्धांत को माना जाता है, कई नहीं भी मानते ।
जो यह मानते हैं कि परमात्मा निराकार अजन्मा शक्तिमान है उनका कहना है कि परमात्मा मनुष्य का रूप धारण कर नहीं उतरता परंतु कोई दिव्य मुक्त आत्मा जब विश्व पर संकट आता है तब उन अनिष्ट कारी शक्तियों से बचाने के लिए अपने मुक्त अवस्था को छोड़कर भौतिक शक्ति जन्म लेती है या अवतरित होती है संसार में दो तरह के जीवों का जन्म होता है एक कर्म से जुड़े जीवों का और दूसरा बंधन से मुक्त जीवों का । कर्म से बद्ध जीव का उदाहरण अर्जुन है और कर्म से मुक्त जीव का श्री कृष्ण हैं । दोनों ही जीवात्मा हैं । कर्म से बद्ध जीव कर्मों के भोग के कारण पुनर्जन्म लिया करते हैं और कर्म से मुक्त जीव परमात्मा की प्रेरणा से या स्वेच्छा से संसार में फैले धर्म को दूर करने के लिए जन्म लेते हैं । कर्म बद्ध जीवों का जन्म अपनी इच्छा से नहीं होता उनके कर्मों के भोग के अनुसार होता है, लेकिन मुक्त जीव का जन्म दूसरों के कल्याण के लिए होता है । इस प्रकार मुक्त आत्माओं का मुक्तावस्था को छोड़कर पुनः परकल्याणार्थ जन्म लेना ही उनका अवतार है । श्रीकृष्ण ऐसे ही मुक्त जीवात्मा थे, जिन्होंने जन्म लिया था । यदि श्री कृष्ण स्वयं को भगवान समझते तो गीता के १८ वें अध्याय के ६१-६२वें श्लोक में यह नहीं कहते –
ईश्वर सर्वभूतानां हृद्देशे अर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढ़ानि मायया ।। १८/६१
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत ।
तत्प्रसादात्परां शांतिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ।।
१८/६२
अर्थात् हे अर्जुन ! ईश्वर प्राणी मात्र के ह्रदय में बैठा हुआ है और वह वहां से उनको इस प्रकार से घुमा रहा है मानो वे किसी यंत्र पर चढ़े हुए हों ।
हे भारत ! तू सर्वभाव से अपने संपूर्ण अस्तित्व को समेट कर उसी की शरण में जा । उसी की कृपा से तुझे परम शांति व शाश्वत भाव प्राप्त होगा ।
अन्य अनेक श्लोकों में भी उन्होंने इस बात को यह कह कर स्पष्ट कर दिया है – ‘तमेव शरणं गच्छ’- उसी की शरण में जा , तम् एव – उसी की ; तत् प्रसादात् – उसी के प्रसाद , कृपा से आदि । यदि श्री कृष्ण स्वयं भगवान हैं तो उसकी शरण में जा, इस प्रकार नहीं कहते । कृष्ण प्रबल योद्धा और कुशल सैन्य संचालक हैं, श्री कृष्ण अद्वितीय महामानव हैं, पूर्ण पुरुष हैं , सभी कलाओं के साथ ईश्वरीय गुणों से युक्त हैं, इसीलिये संपूर्ण विश्व के लिये वंदनीय और अनुकरणीय हैं ।
विश्व का इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब भी किसी देश, राष्ट्र या जाति, धर्म में संकट का निराशा का समय आता है और ऐसा प्रतीत होने लगता है कि अब अंत आ चुका है, तभी कोई महान ईश्वरीय गुणों से युक्त आत्मा अंधकार में प्रकाश और निराशा में आशा की किरण लेकर अवतरित होती है । सृष्टि का यह आधारभूत नियम है कि अंधकार जब घनीभूत होता है तब वह प्रकाश के अत्यंत निकट होता है । कृष्ण घनीभूत अंधकार में शत- शत सूर्य का प्रकाश हैं ।
डॉ.रोचना भारती
नासिक, महाराष्ट्र