मेरी पीढ़ी का सच

मेरी पीढ़ी का सच

कहा जाता है एक व्यक्ति अपने जीवन में पाँच जीवन जीता है,देखता है और समझता है।दादा-नाना से लेकर नाती- पोते तक पर सबसे अधिक लगाव मनुष्य को अपनी पीढ़ी से ही होता है।

देश की स्वतंत्रता के वे प्रारंभिक दिन थे।बचपन उसका भी था और मेरा भी।उत्साह और उमंग से भरे दिन थे वे।देशभक्ति की भावना कूट कूट कर भरी हुई थी।अपने और देश के लिए सपने देखने का समय था वह।पर जीवन यात्रा में हम खुद के साथ-साथ देश से भी दूर होते जा रहे हैं।

पता नहीं मुझे जन्म देते समय मेरी माँ को किन पेचीदगियों का सामना करना पड़ा होगा यह तो वे ही जानती हैं।जन्म के समय मेरा आधा शरीर पिलपिला और नीला पड़ गया था।मेरे माता- पिता और भाई बहनों ने बड़ी जीवटता के साथ मुझे पाला।धीरे-धीरे जिन्दगी पटरी पर आती गई।संघर्ष के उन पलों ने कुछ निशान छोड़ ही दिए जो आज भी साथ हैं। जो भी हो पाँच भाई बहनों में सबसे छोटी मैं सबके भरपूर स्नेह दुलार की अधिकारी बनी रही।कभी परायों ने अपनाया तो कभी अपनों ने ठुकराया।जिजीविषा ने हार नहीं मानी और जिन्दगी चलती रही।

शिक्षा का उद्देश्य उस समय यही था कि अपनी निजता को कायम रखते हुए परिस्थितियों का कुशल और प्रभावी ढ़ंग से सामना करना। तब शिक्षा आज की तरह तनाव पैदा नहीं करती थी।शिक्षा प्राप्त होना ही भाग्य की बात थी। उसी वातावरण में शिक्षा प्राप्त करते हुए गुरुजनों की कृपा से साहित्य के प्रति रुझान पैदा हो गया जो आज भी कायमहै।साहित्य संजीवनी की तरह जीवन भर जीवन दान देता रहा।

अगर फिल्मों की बात न करूँ तो बात अधूरी ही रह जाएगी। याद नहीं पहली फिल्म कौन सी देखी थी शायद ‘सम्पूर्ण रामायण’ थी।धीरे-धीरे समय के साथ-साथ फिल्में देखने की छूट मिलने लगी।उन दिनों फिल्म देखना उत्सव की तरह होता था। फिल्में जिन्दगी का हिस्सा होती थीं। हम उनके साथ हँसते-रोते और मरते-जीते थे।एक लम्बी फेहरिस्त है ऐसी फिल्मों की। धीरे-धीरे वह सुनहरा दौर सिमटने लगा और घरों में कैद हो गया । आज भी कुछ फिल्मे उस दौर की याद दिला ही देतीं हैं।

हमारी पीढ़ी कुछ बातों में अलग रही।हम दिल से सोचते थे।हमने अपने माता- पिता का साथ भी निभाया और अपने बच्चों के साथ भी निभा रहे हैं।कभी माँ और नानी के साथ उपले थापते हाथ अब बच्चों के साथ मोबाइल स्क्रीन पर भी थिरक रहे हैं।

समय के साथ परिवर्तन हर पीढ़ी में आता है पर यह भी शाश्वत सत्य है सबको अपना ही दौर अच्छा लगता है।अगर जीवन को टुकड़ों टुकड़ों मे न देखकर समग्र रूप से देखा जाए तो लगता है जीवन घाटे का सौदा नहीं रहा।अगर कुछ खोया है तो बहुत कुछ पाया भी है।

आनन्द बाला शर्मा
वरिष्ठ साहित्यकार
जमशेदपुर, झारखंड

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