चाहत चाय की
गुदगुदाती सर्द तन को,
ताप देती है बदन को,
भोर की स्वर्णिम लाली।
उसपे गर्म चाय की प्याली
तन को देती सुकून निराली।
चाय में घुलता मिठास,
जब अपनो का हो साथ।
चाय की हर गर्म चुस्की,
होठों पे बिखेरतीं मुस्की,
हर घूंट पियूषा सा लागे
जब चाय की चाहत जगे।
फूर्ति बदन में कौंध जाय
भर दे तन में ताजगी।
घेर ले मन में उदासी,
भारीपन आलस लगे,
हावी जब हो जाय दर्द,
सर्द का एहसास हो
ना कोई जब पास हो,
तो चाय की दो घूंटलो।
चाय की चाहत है ऐसी,
हर घड़ी जग जाती हैं
जब जी चाहे चाय पिलो।
है ना डर कोई बात की।
छाया प्रसाद
साहित्यकार
जमशेदपुर, झारखंड