ओजमयी चाय
जब गहरी स्याह रात्रि ,
अलसायी सी अँगड़ाई लेती,
तो क्षितिज उसे देख मुस्कुराता,,
तब गगन के अंजुमन में,
सूर्य देव लाल चाय की प्याली लिए उदित हो
भोर की किरण को,
कलरव करते पक्षी गण को,
सरोवर में खिलतें कमल को,
फूलों की पंखुड़ियों में
ठहरे ओस कण को,
कुहासों के चादर में लिपटे
वक्त के क्षण को,
सुरमयी गुनगुनी चाय की
चुस्की से तरोताजा करतें,
सारी वसुधा के पर्यावरण को,,
दस्तक देती सुबह जब,
बेतकल्लुफ चाय की
केटली थामे हुए हमें
रिझाती है,
तब जैसे जिंदगी भी गुनगुना उठती है ,,
किसी का साथ मिले न मिले,
पर चाय तुम तो जिंदगी जीने का पर्याय बन गई हो,
चाहे वह रिश्ते जोड़ने का काम हो,
या चाय की चुस्कियों में कोई इश्क का पैगाम हो,
या सखियों के साथ बैठ
गोष्ठी भरी शाम हो,
तुम्हारी तपिश से पिघलता
हुआ वक्त भी ठहर जाता
जब खनकती प्यालियों में
भर चाय बन जाती जाम हो,,,
सुधा अग्रवाल
साहित्यकार
जमशेदपुर, झारखंड