बंद चेहरों का शहर

बंद चेहरों का शहर

(कोरोना संस्मरण)

जनवरी 2020 : कोरोना का नाम पहले नहीं सुना था लेकिन खबरों में चीन के वुहान की हल्की-फुल्की बातें सामने आ रही थी। चीन दूर है, यहाँ उसकी हवा नहीं आएगी। मन को आश्वस्त किया। राष्ट्रपति भवन में गणतंत्र दिवस की चाय का आनंद लिया। दबे स्वरों में लोगों ने कहा, इटली से भी अच्छी खबर नहीं आ रही है।

फरवरी 2020 : साल की शुरुआत अच्छी थी। दिल्ली में सर्दी, गरम कपड़े, चारों तरफ खूबसूरत फूल मन को लुभा रहे थे। देश दुनियां की खबरों ने अब डराना शुरु कर दिया था। चीन के वुहान शहर की तस्वीरें लगातार आ रही थी। चीने ने कैसे रातोंरात 1500 बेड का हॉस्पीटल खड़ा कर दिया, कैसे शहर को लॉकडाउन कर दिया। एक अफरा-तफरा मची थी। चीन में पढ़ने वाले बच्चे अपने देश भारत लौटने की गुहार लगा रहे थे। उनको लाने पर देश में संक्रमण आने का खतरा था। ये देशी नहीं, विदेशी बीमारी थी। लोगों ने अपने देशों की सीमाएं बंद कर दी। तब भी इस नामाकूल संक्रमण ने देशों की चाहरदीवारियाँ लाँघ ली। इटली, स्पेन, कोरिया, फिलीपींस में तो स्थिति बड़ी भयावह थी और भारत में दस्तक देने ही वाली थी। दो फरवरी में भारत का पहली केस सुनने में आया। चार फरवरी तक यह बढ़कर तीन हो गया। केरल में पहला प्रतिबंध लगा – लोगों से कम संपर्क रखें। मिलने-जुलने पर हल्की-फुल्की पाबंदी लोगों ने खुद लगा दी। क्‍या होगा, कैसे हुआ, हम क्‍या करें – एक अनबोला भय व्याप्त हो रहा था।

मार्च 2020 : होली के जश्न इस बार फीके थे। दिल्‍ली में लोगों ने खुद ही कम कर दिया रंग रोगन। ऐसे लोग अब ज्यादा कहाँ मिलते हैं? देहरादून किसी काम से जाना पड़ा। इस वर्ष में कोरोना में यह शायद मेरी आखरी उड़ान थी। कोरोना देश में दस्तक दे चुका था और बड़ी बेशर्मी से अपने हाथ-पांव फैला रहा था। उस उड़ान में योग सीखने वाले ज्यादातर विदेशी सैलानी थे जो हरिद्वार से लौट रहे थे। उन सबने मास्क लगा रखा था। उड़ान में इक्का दुक्का और मुझे जोड़कर – लोगों ने मास्क नहीं लगाए थे। आते ही गले की खराश से घबराकर डॉक्टर के पास भागी। डॉक्टर ने आश्वस्त किया कि कोरोना के लक्षण नहीं हैं। दवाई खाइए और मुँह मास्क से ढंककर रखें। पहला मास्क लेकर आई। हैंड सेनिटाइजर भी बहस का हिस्सा बन चुके थे। मार्च महीने के अंतिम सप्ताह में एक रविवार को प्रधानमंत्री जी ने सबों को शाम पाँच बजे तक घर में रहने की अपील की। शाम पाँच बजे लोग झूमते, नाचते, गाते घरों से निकले – मानों कोरोना का उत्सव मना रहे हों। जिन्हें कोरोना की भयावहता का पता था उन्हें विक्षोभ हुआ लोगों की नादानियों पर। मैंने भी अपनी बालकोनी में थाली और घंटी बजाई थी – लगा था कोरोना डरकर भाग जाएगा।

मार्च, आखरी सप्ताह, 2020 : अखबारें, टेलीविजन पर विशेषज्ञों की राय आने लगी। कैसे समुदाय तथा कम्यूनिटी अपने को इस भयावह संक्रमण फैलाने वाले रोग से बचा सकते हैं। बाहर से आने वाले लोगों का टेस्ट होना जरुरी है। और तभी दो घटनाएं हुईं। एक तो देश व्यापी 21 दिनों का लॉकडाउन और दूसरा शहरी मजदूरों का घर पलायन । मेरे पतिदेव ने मुझे मैसेज भेजा – न्‍यूज देखो। एन डी टी वी पर 26 मार्च को पैदल चलते मजदूरों को देखकर आँखों से बरबस आँसू टपक पड़े। इतनी ट्रेजीडी, इतनी विवशता – और ये सब कुछ छोड़कर चले जा रहे थे। सूनी सड़कें, सूनी गलियाँ | दिल्‍ली के आकाश पहली बार इतना नीला और साफ नजर आए।

अप्रैल 2020 : ऑफिस वर्क फ्रॉम होम” हो गया। लेकिन इसकी तैयारी पूरी नहीं थी। जूही का फोन आया – तुम लिखती थीं, फिर से कहानी लिखो। पहली कहानी लिखी “वापसी’ और गृहस्वामिनी में प्रकाशित हुई | बहुत अच्छा लगा। फिर लिखा ‘स्वाद’ और “विषाद’ | वीडियो यूट्यूब पर आया। और फिर एक सिलसिला चल पड़ा। 21 दिनों के लॉकडाउन में बहुत पुराने दोस्तों, रिश्तेदारों, सहेलियों से बातें की। रिश्ते जुड़ने लगे।

मई 2020 : लॉकडाउन हट गया, लेकिन पाबंदियाँ बरकरार थीं। जाते हुए मजदूरों के लिए पिछले महीने हर दिन चालीस से अधिक पराठे बनाए, फूड पैकेट्स वितरित किए। वॉट्सग्रुप में लोगों के साथ रेसीपी शेयर कीं। मैंने भी कुछ नए डिश ट्राई किए। मास्क बनाने के लिए कई लोग सामने आए | हमारी कॉलोनी में महिलाओं ने घर-घर मास्क भेजे। एक डर, दहशत का माहौल था। ऑफिस में पाबंदी थी। केवल 50% ही लोगों के आने का परमिशन था। इक्के दुक्के लोग ऑफिस में संक्रमित हुए। एक फायदा हुआ, लोगों ने तकनीक को अपना लिया। एक शादी ‘जूम’ पर भी अटेंड कर लिया। ऐसे अच्छा ही लगा।

जून 2020 : गर्मी की भयावहता कम लगी इस बार क्योंकि कहीं गए ही नहीं। मॉल, शॉप, सिनेमा घर बंद थे। अगर कुछ हो जाए तो घर के लोग ही नहीं आ पाएंगे, रात को यह सोच कभी-कभी परेशान करती थी। देश थोड़ा-थोड़ा खुलने लगा था – बाजार, यातायात, हवाई सेवा। संक्रमण के खतरों को देखते हुए मिलना-जुलना लगभग बंद ही था।

जुलाई 2020 : पूरे पैंसठ दिनों के बाद बगल के बिल्डिंग में रह रही माँ से मुलाकात हुई | मुझे छूना नहीं – उनकी ये हिदायत पर मैं मुस्कुरा पड़ी। रामायण, महाभारत के सीरियल के बीच पूरे न्‍यूज भी वो काफी ध्यान से देखती हैं। बारिश अपनी खूबसूरती ले आया। मौसम बदला पर कोरोना था जस का तस।


अगस्त 2020 : कहाँ गए सब ज्योतिषी, जिन्होंने कहा था कि मई से संक्रमण का उत्पात कम होगा? बारिश के मौसम में बीमारी बढ़ सकती है। अब वैक्सीन पर खूब चर्चा है। न्यूज देखना बंद कर दिया है। मरने वालों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। अलग-अलग डिश बनाने का जुनून खत्म हो गया है। लोग अपने पुराने ढर्रों पर लौट आए हैं। कामवालियाँ वापस आ गई हैं। धोबी बेचारा काम नहीं मिलने से परेशान है। “काम करना चाहता हूँ’ उस बूढ़े थके आदमी की बेबसी पर तरस आया।

सितंबर 2020 : ऑफिस में कामकाज अब थोड़ा सामान्य है | मास्क का एक फायदा तो है – असली चेहरे सामने नहीं आते। रेस्टोरेंट खुल गए हैं। तो अपने घर में काम करने वाली दीदी को डोसा खिलाने ले आई। बेचारी चार महीनों से कहीं बाहर ही नहीं निकली। उसका चर्च अभी भी नहीं खुला था।

अक्तूबर 2020 : इतने दिनों से मंदिर नहीं गई थी। सोचा बाहर से ही सही, भगवान को झलक दिखला दूँ कि आपने मुझे सुरक्षित रखा – उसके लिए धन्यवाद | इस बीच ऑनलाइन शॉपिंग भी सीख गई थी। रोज आमेजन, फूड बास्केट के तरह-तरह के पैकेट आते रहते। इतने महीनों के बाद पहली हवाई यात्रा की। दोस्तों ने खूब डराया। लोगों ने मास्क, फेस शील्ड लगा रखा था। ऐसा लगता था पूरा हवाई जहाज ही स्पेस जा रहा हो। आदमी के जज्बे को सलाम | हार नहीं मानता वो। दुर्गा पूजा बड़ी नहीं फीकी रही। कोई पुष्पांजलि नहीं, कोई धूम धड़ाका नहीं। मूर्त्तियों के जगह पोस्टर लगे दिखे- दिल में जैसे कहीं कुछ टूट गया।

नवम्बर 2020 : पूरा ऑफिस संक्रमित हुआ पड़ा है। पचास लोग एक सप्ताह में संक्रमित हो गए। मारे घबराहट और डर के आधे लोगों ने वर्क फ्रॉम होम के लिए आवेदन दिया। बहुत उदार हृदय से लोगों के स्वास्थ्य की प्राथमिकता दी। कोरोना ने सभी को सजग और सहृदय बना दिया है। आम दिनों में एक दिन की छुट्टी को तरसते लोगों को आराम करने की नसीहत दी जा रही है। मैंने भी तीन टेस्ट करवाए । ईश्वर की कृपा बनी रहे।

दिसंबर 2020 : अक्तूबर, नवम्बर और दिसम्बर दहशत से ही गुजरे। संक्रमण की संख्या बढ़ने से एक डर भी व्याप्त है। लोग मास्क पहन रहे हैं, ताकीद भी कर रहे हैं और संयम भी बरत रहे हैं लेकिन हाय-तौबा भी मची है। वैक्सीन का इंतजार हो रहा है। हर आदमी अपनी तरफ से क्यास लगा रहा है। खबरों के मायने टटोले जा रहे हैं। बचपन में रेलवे स्टेशन पर झांककर देखते थे कि गाड़ी आई कि नहीं। बिल्कुल वैसी ही बेसब्री छा रही है। बहुत कुछ सिखा गया यह कोरोना। कोरोना ने नसीहतें भी दीं, जीवन में संयम बरतने की सीख दी। लोगों की कभी नीम-नीम, कभी शहद-शहद का भी मतलब समझाया। हम अकेले रहकर भी तकनीकी के माध्यम से जुड़े रहें। लोगों ने नई रूचियों की तरफ ध्यान दिया। खोए हुए शौक झाड़ पोंछ कर निकले | योग, संगीत, डांस, परिवार के साथ जूम मीटिंग – लोग नई-नई जानकारियाँ लेने और देने लगे।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, वो हमेशा घर में बंद नहीं रह सकता। तो जूम पर ही शादी, जूम पर काव्य गोष्ठी, जूम पर मीटिंग – सब कुछ बंद कमरे में अपने दायरे में। घर की चाहरदीवारी एक अजब सी सुकून देने लगी है, शब्दकोश में नए शब्द जुड़ गए हैं – सोशल डिस्टेंसिंग, न्यू नार्मल, हैंड वाश। कोरोना का अंत तो निश्चित है। तब तक धैर्य से, सीमाबद्ध होकर समय व्यतीत करना है। अगले वर्ष का इंतजार है। कोरोना को भी अभी क्रिसमस देखना है।

डॉ. अमिता प्रसाद

0
0 0 votes
Article Rating
1 Comment
Inline Feedbacks
View all comments