अंतर्नाद
आप सबों की शुभकामनाओं से आज मुझे आंतरिक हर्षोल्लास है कि मेरा प्रथम काव्यसंग्रह”अंतर्नाद” जो मेरी १५१ कविताओं का संग्रह है,निकट भविष्य में प्रस्तुत होने वाला है।
यह काव्य संग्रह मेरे पिता स्वर्गीय ‘श्री हरीश चंद्र सर्राफ’को समर्पित है।भले ही वो भौतिक रूप से हमारे बीच नहीं हैं, पर दिल में आज भी जीवित हैं।बचपन से बड़े होने तक उन्होंने पढ़ाई के साथ साथ विभिन्न लेखन, उपन्यास तथा महान लोगों की आत्मकथाओं का संग्रह पढ़ने को देते रहे। गुरुदत्त, शरतचन्द के उपन्यास हमने बहुत पढ़े। आत्मकथाओं में गांधी जी, राजेन्द्र प्रसाद एवं जवाहर लाल नेहरू प्रमुख रहे।
मेरा जन्मस्थल पाटलिपुत्र (पटना) वैदिक काल से ही अपना एक ऐतिहासिक गौरव समेटे हुए है। मेरे दादा मेवालाल लक्ष्मण प्रसाद जौहरी स्वतंत्रता सेनानी थे और अपने समय में पटना के प्रसिद्ध जौहरी भी थे।मेरे पिता जी राजा राम मोहन राय स्कूल में टीचर थे,बाद में कृषि विभाग में हो जाने पर सरकारी नौकरी में रहे और संयुक्त कृषि निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए। मेरी मां यूपी के आजमगढ़ की है।हम दो बहनें हैं।नानी घर भरा पूरा परिवार था।कच्चे व पक्के घर दोनों का सामंजस्य था। वहां का बचपन पटना के जीवन से बिल्कुल अलग था। उसकी याद आज भी मानस पटल से जाती नहीं।क्या जिन्दगी थी!!!!!
बचपन के मस्ती भरे पल,
वो! नानी घर का बचपन,
बड़ा सुहावना लगता गर्मी छुट्टियों में,
वो! हनुमान चालीसा की गूंज से,
सबेरे तड़के उठ जाना,
छत पर खटिए पर सोना,
डंडे वाला मच्छड़दानी लगाना,
दौड़ कर नाना को जगाना,
और फिर !
उनके जूते देना,
और उनके संग तड़के सैर को निकल जाना,
रास्ते भर उनकी अच्छी बातें सुनना,
लोगों को” जय राम जी की”
बोलकर अभिवादन करना,
आज भी याद आ जाता है,
कहीं खेत! कहीं अमराईया,
वो! ढेले से आम को गिराना,
क्या निशाना था मेरा!
कुंए का पानी भर कर पीना,
वहां चबूतरे पर बैठ सुस्ताना,
फिर ! वापसी में सब्जी खरीदते जाना,
ताजी सब्जियों का एहसास,
हटता नहीं मन की गहराइयों से,
वो !
गरम-गरम कचौड़ी व जलेबियां,
संग आलू – चने की सब्जी,
आहा!!!!
क्या स्वाद था !
उस हलवाई नाना की बनाई चीजों का,
बालुशाही की तो बात ही कुछ और थी,
वो! मटर के खेत,
और उनकी फलियां खाना,
रंग- बिरंगी छोटे डलिए में,
चूड़ा- गुड़ खाने का स्वाद ही कुछ और था,
वो ! दूकान के सामने गरम-गरम बताशा बनाते देखना,
साथ ही उसका रसास्वादन,
सब यादों में सिमट कर रह गई है,
वो! बड़े से आंगन में चापाकल से पानी निकालना,
और ठंडे पानी से नहाना,
पालथी मारकर पीढ़े पर रखकर खाना,
प्रथम निवाले को प्रणाम कर निकालना,
सब कुछ याद है,
फिर जाड़े की छुट्टियों में,
वो! उचके पे बेर और करौंदे तोड़ना,
घर की गैया का दूध पीना,
दही और राबड़ी का तो जैसे बौछार था,
क्या मस्ती के पल थे,
वो! बंदरों का जमावड़ा,
नन्हें बंदरों का मां से चिपकना,
छत पे आ जाना,
डर तो लगता पर मजा भी बहुत आता,
वो तश्वीरे !
आज भी मानस पटल पे हैं,
न कि मोबाइल में ।
मेरी प्रारंभिक शिक्षा संत जोसेफ कान्वेंट स्कूल, पटना में हुई। आगे विद्यालय की पढ़ाई रांची संत मारग्रेट गर्ल्स हाई स्कूल में क्योंकि मेरे पिता श्री हरीश चंद्र सर्राफ(संयुक्त कृषि निदेशक) थे। जहां- जहां उनका स्थानांतरण हुआ , शिक्षा वहां-वहां से प्राप्त की।इंटर(राजेंद्र कालेज,छपरा),स्नातक(एस.पी.कालेज, दुमका) स्नातकोत्तर ,प्राणिशास्त्र (ओल्ड .पी.जी.डिपार्टमेंट, भागलपुर)बी.एड.(रांची यूनिवर्सिटी) किया। मुझे गायन,नृत्य,अध्यापन और सबसे ज्यादा खेल में रूचि रही। यही कारण था कि मैं बचपन से विद्यालय और कालेज में भाग लेती रही और जीतना तो पक्का था।स्नातक में एस.पी.कालेज , दुमका में मुझे इंडोर गेम्स चैम्पियन का शील्ड डा के.के.नाग के द्वारा प्रदान किया गया और उसी दिन उन्होंने ये घोषणा कि ये” सिद्हो कन्हो यूनिवर्सिटी” बनेगा,जो आज है।मेरा रुझान शुरू से साहित्य की ओर रहा,सो स्कूल, कालेज के मैगजीन के लिए कुछ न कुछ लिखने का शौक रहा, परन्तु कभी संग्रह नहीं किया।
२२जनवरी,१९९५ में डाक्टर एस.के.प्रसाद(सीनियर कंसल्टेंट,टी.एम.एच.)से शादी के पश्चात् बिरसा की धरती,लौहनगरी चली आई जो अब मेरा कर्मक्षेत्र है। मुझे अध्यापन का बहुत शौक था,सो शादी के तुरंत बाद १९९५ में मैंने विमेंस कॉलेज के जन्तुविभाग (स्नातक व स्नात्कोत्तर) में अध्यापन कार्य किया।बी.एड.ग्रैजुएट कालेज से की।बी.एड(२००६) के बाद शारदामणि गर्ल्स हाई स्कूल में और फिर डी.ए.वी.पब्लिक स्कूल(बिष्टुपुर) में अस्थाई शिक्षिका के रूप में कार्य किया। परन्तु संयुक्त परिवार की जिम्मेदारियों ने मुझे पुनः गृहस्वामिनी बना दिया।
कहते हैं कभी कभी जिंदगी में ऐसा मोड़ आता है कि सुषुप्त कला को जाग्रत करने में किसी न किसी का आत्मिक योगदान रहता है। इसका सर्वप्रथम श्रेय स्वर्गीय पिता जी को जाता है और डॉ आशा गुप्ता (मेरी भाभी) को जाता है। उन्हीं से प्रेरित होकर मैंने पुनः लिखना शुरू किया। मेरे पिता जी अक्सर मुझे कहा करते थे”जीवन को यूं ही व्यर्थ न जाने देना, कुछ न कुछ लिखते रहना”क्योंकि मैं उन्हें ही अपनी कविताएं पढ़ाया करती थी। एक लम्बे अंतराल के बाद दो वर्ष पूर्व भाभी डा .आशा गुप्ता के मार्गदर्शन व प्रोत्साहन ने मुझे लिखने को प्रेरित किया उन्होंने साहित्यिक मंच से मेरा परिघय कराया। जिससे मेरी लेखनी अनवरत रूप से चल पड़ी।
मैंने दोनों बच्चियों के उच्च शिक्षा हेतु चयन के पश्चात् शौक को गले लगाया और फिर तबसे मेरी लेखनी कर्मक्षेत्र की ओर उन्मुख हो गई। मेरी कविताएं प्रायःआस-पास के परिवेश, सामाजिक समस्याओं, जीवन में घटित यादों , बचपन की यादें जो जीवन में कुछ न कुछ दे जाएं,वो मेरी कविताओं का शीर्षक बनती रही । मेरी कविताएं मंजे हुए साहित्यकारों की तरह न होकर काफी सहज ओर सरल हैं जो अंतर्नाद बन कविताओं का गागर भरती रही । ईश्वर में मेरी आस्था मेरी अधिकांश कविता में संबल बन जाती।
डॉ आशा गुप्ता के साथ साथ डा.जूही समर्पिता भी मेरी प्रेरणास्रोत रही। उन्होंने ही काव्य संग्रह को प्रकाशित करवाने में अहम भूमिका निभाई।इसके अलावा प्रतिभा प्रसाद ‘कुमकुम’, आनंद बाला शर्मा , अनीता शर्मा (राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित) का भरपूर सहयोग रहा,इन सबों का तहेदिल से धन्यवाद करती हूं। कहते हैं सबकुछ होने के बावजूद परिवार का सहयोग न हो तो कुछ कर गुजरना मुश्किल होता है। मेरे बच्चों का इसमें बहुत बड़ा योगदान रहा। उनसे ही प्रेरित होकर मैंने युवाओं पे,आज की जरूरत और मानसिक विश्लेषण पर ढेरों कविताएं लिखी।
इसके अलावा मेरे ससुर श्री दालिम प्रसाद,मां श्रीमती शैल कुमारी सर्राफ, दीदी शोभना वर्मा, भाईयों,ननदों में प्रेमलता दीदी,पूनम,नीलम, माधुरी दी,देवर रजनीश कुमार प्रसाद, देवरानी बीना ने भी सराहनीय योगदान दिया।मामा ओम प्रकाश सर्राफ ने भी हर वक्त हमारा उत्साह बढ़ाया।
२००६ में जब मैंने बी.एड.किया,वो मेरे जीवन का सबसे संघर्षमय पड़ाव था।आहत होती संवेदना जब हृदय पर प्रहार करती है तो अनायास ही रचना बन उभर जाती है।उस दौरान संघर्ष की कहानी और खट्टी-मीठी यादों को समेटे मैंने “अनाम अनुभूति “बारह पन्नों की एक लंबी कविता लिखी। मुझे याद है और आश्चर्य भी होता है कि इतनी लंबी कविता चंद लम्हों में कैसे लिख गई ? परन्तु इतना तय है कि मेरी लेखनी एक बार जो उठी वो अंत होने पर ही रुकी थी। फिर ऐसा लगा कि संपूर्ण मानसिक परेशानियों से निजात मिल गया। जब बी.एड. में डिशटिंक्शन मिला तो लगा, मैंने संघर्षमय जिंदगी का सही ढंग से समापन किया। सिर्फ पिता जी (बाबूजी)को ही मैंने ये कविता पढ़ाई थी जिसे उन्होंने बहुत सराहा था। बाबूजी ने मेरा काफी मनोबल बढ़ाया और हिम्मत दी। उन्हें ही मैं अपना सबसे बड़ा शुभचिंतक मानती थी।
मेरी दो प्यारी बेटियां और एक बेटा है। बड़ी बेटी स्तुति आदर्श असिस्टेंट सिस्टम इंजीनियर है टाटा कंसलटेंसी सर्विसेज बेंगलुरु में। अब वह मास्टर्स इन कंप्यूटर साइंस कर रही है यूनिवर्सिटी ऑफ कोलोराडो डेनवर अमरीका से। छोटी बेटी जयति आदर्श मेडिकल थर्ड ईयर एमबीबीएस, इंटरनेशनल स्कूल ऑफ मेडिसिन बीसकेक, किर्गिस्तान मैं है। बेटाा हर्ष आदर्श राजेंद्र विद्यालय में 12 में है। २०२० में बोर्ड परीक्षा पास करके आगे की एंट्रेंस का परीक्षा दिया है।
मेरे पति डॉ.एस.के.प्रसाद का इसमें सर्वस्व योगदान है। इनके प्रोत्साहन से ही मेरी लेखनी धीरे धीरे ही सही पर अनवरत चलती रही।
ये”अंतर्नाद”है-
नव उल्लास,नव प्रयास,
नव कामना,नव साधना,
नई कृति,नई जागृति,
कविताओं का एक गागर,
आप सबों को न्योछावर!
मन के उदगार जो छंद बनी,
सब संचित है इस गागर में,
नित नई सोच मानस पट पे,
नित घटनाएं व परिवेश,
कुछ!!
जीवन में घटित यादें,
वो बचपन की मधुर यादें,
जिन यादों को संजोया था,
जिनसे मैंने कुछ सीखा था,
परिलक्षित होती शीर्षक बन के,
बस !
यूं ही लेखनी चल पड़ती,
नई कोंपल नित उदित होती,
पाठक !
होते उत्साहित,
जोश में हम मदहोश हुए,
जुनून लिखने का बढ़ता गया,
और !
आतुरता भी बढ़ने लगी,
लेखनी तत्परता से चलने लगी,
और फिर!!
अंतर्नाद बन मुखर हुई।
पद्मा प्रसाद
साहित्यकार,
जमशेदपुर,झारखंड