खुद को जानती हूँ मैं

“खुद को जानती हूँ मैं”

ऐसा नहीं है कि–

औरत हूँ तो बस नशा है मुझमें

पत्नी हूँ,माँ हूँ,बहन हूँ–

इक दुआ है मुझमें…

ऐसा नहीं है कि–

संगमरमर के साँचे में ढला जिस्म हूँ केवल

नमी हूँ,आग हूँ,धरती,आकाश हूँ–

जीने के लिए जरूरी हवा हूँ शीतल…

ऐसा भी नहीं है कि–

बस मुहब्बत, खुशबू, और वफा है मुझमें

इबादत, समर्पण, त्याग, ममता हूँ

पर मेरे अंदर एक “अना” है मुझमें..

ऐसा नहीं है कि–

हमेशा दबी,कुचली हूँ,बेचारा सा कोई राज है मुझमें

हिम्मत हूँ, हौसला हूँ,कोशिश हूँ–

अपनी नजरों में बदला हुआ “आज”हूँ मैं…

मैं क्या हूँ, कैसी हूँ

किसी से नहीं नहीं पूछना है मुझे

अच्छी तरह से जानती हूँ खुद को

अपनी जरूरतें,अपनी शक्तियाँ

अच्छी तरह पहचानती हूँ मैं…

आईने में देखती हूँ तो

अपनी कमियों पर हँस देती हूँ

फुरसत में बैठती हूँ तो

अपनी गलतियों पर फब्तियाँ कस लेती हूँ

नहीं चाहिए मुझे

महल,बँगले, कीमती जेवर

खनकती काँच की चूड़ियों में

सुख ढ़ूँढ़ती हूँ अपना

नहीं चाहती हूँ मैं

मँहगी कारों में देश-विदेश की सैर

बच्चों की किलकारियों से ही

सजता है मेरा सपना

सेल्फी लेकर खुद को नहीं निहारती

गीत,गजलों से खुद को सँवारती हूँ

परिवार की हँसी में पाती हूँ खुद को

घर की खुशियों में जीती हूँ वजूद को

मुझे किसी से कुछ नहीं चाहिए

नाम, करियर,शौहरत,दौलत-सब

समर्पित है मेरे आँगन की मिट्टी में..

हर तरह के तजुर्बों से

खुद को बहुत संवारा है मैंने..

रास्ते में समस्याएं हजार थीं,

परेशानियों में भी खुद को निखारा है मैंने..

कैसे भी हालात हों अब

उनके मुताबिक खुद को ढाल लेती हूँ मैं..

मुश्किलें कैसी भी आयें,

हल उनका निकाल लेती हूँ मैं..

डर जाती थी पहले परछाई से भी,

अब साँपों के जहर भी बेकार हैं मुझपर..

काली बनकर काट लेती हूँ सिर,

ताने कोई अनैतिकता की तलवार गर मुझपर..

दिल के भाव जब सच्चे लगते हैं,

उनमें प्रेम के मैं ख्वाब भर देती हूँ..

झूठी मुस्कानें छल लेती थीं पहले,

अब हर साजिश बेनकाब कर देती हूँ..

बहुत सहेजा खुद को अबला मानकर,

अब हर पत्थर का प्रतिकार करती हूँ..

इक्कीसवीं सदी की नारी हूँ मैं,

आत्मविश्वास से अपनी जयकार करती हूँ…

अर्चना अनुप्रिया
साहित्यकार
दिल्ली

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