मैं और मेरी दुनिया

मैं और मेरी दुनिया

अति उल्लास से आत्मकथा लिखने बैठी थी । पहले तो लगा कि आज लॉटरी निकल गयी । स्व- कथा लिखनी है । लेखनी को गति मिल जाएगी । आज आत्म- जीवनी लिख सभी को बता दूंगी कि हमने किला फ़तेह कर ली । अपनी गाथा से चकाचौंध कर दूंगी दुनिया को । दूसरों के खबर को पढ़ती थी , आज अवसर मिला है अपनी खबर से सबको रूबरू करवाने का ।मानव की प्रवृति होती है “आत्म प्रशंसा ” करने की । आत्मकथा लिखने हेतु गृहस्वामिनी से मिले इस अनुपम अवसर को प्राप्त कर जो मुझे हर्ष हुआ है ,वह अवर्णनीय है ।

“आज फिर जीने की तम्मना है …..” गुनगुनाते हुए मैं अपने जीवन के कुछ पन्नों को पलटना आरम्भ किया और उस को कलमबद्ध करने की कोशिश करने लगी। लिखने बैठ गयी अपनी जीवन की कहानी।पहले तो लगा कि आत्मकथा लिखना बहुत आसान होगा , यह चुटकी बजाने जैसा होगा लेकिन जब धरातल पर उतरी तो यह सरल नहीं अति दुष्कर प्रतीत हुआ । क्या सब कुछ लिखा जा सकता है ! सब कुछ लिखना आसान है क्या ? कैसे सब कुछ लिखें? क्या लिखूँ ? कैसे लिखूँ अपनी जीवन यात्रा । कशमकश ! हौसले ऊँचाईओं पर थी तो भीषण पीड़ा भी मर्माहत कर रहा था ।कुछ लोगों की उपस्थिति ऑक्सीजन सदृश था तो कुछ लोगों की उपस्थिति आकुल करने वाली ।

मैं रजनी हूँ ,मिनी नाम से भी जानी जाती हूँ ।मेरा बचपन बहुत ही सुखद था । संयुक्त परिवार था ,जिसमें मेरी दाई यानी परदादी ,बड़ी माँ यानी मेरी दादी ,बाबा पंडित कृष्ण चंद्र झा ,मेरे तीनों काका ,बुआ तथा साथ में मेरे बाबा पाँच भाई थे ,उन सबका परिवार अर्थात सभी के स्नेह में बंधी थी ।पंडित आद्या चरण झा मेरे नाना थे ।यहाँ भी संयुक्त परिवार ,छोटे नाना ,नानी ,मेरे तीन मामा ,मेरी मौसियाँ सभी सदस्यों से गुलजार परिवार था।मातृ और पितृ दोनों कुल विद्वानों का कुल था ।सभी उच्च पदस्थ तथा विद्वान।इस सन्दर्भ में मैं अपनी परदादी की कथा से बहुत प्रभावित थी ।सुना है कि मेरे परदादा ( ननु )जमींदार थे .एक बार की बात है कि वे जमींदारी के कार्य से गाँव में घूमने गए थे ,मेरी दाई रामायण पढ़ रही थी ,इतने में बाबा आये और दाई को पुकारने लगे ,दाई कोई रुचिकर प्रसंग पढ़ रही थी ,सोची कि पढ़कर उठेगी ,इतने में पुनः आवाज़ सुन बाहर आयी तो गिरे हुए ननु को देख व्याकुल हो गयी ,भागकर आयी तो उसके आते ही यह कह कि ‘बच्चों के संग अपना ध्यान रख …’आगे कह नहीं सके कुछ और सदा के लिए चुप हो गए ।दाई फिर आजीवन कभी किताब नहीं छुई।ऐसी दृढ प्रतिज्ञा और पति परायण थी ।अकस्मात काल– कवलित होने से लोगों ने बहुत धोखा दिया जिसके कारण परिवार को बहुत कठिनाई मिली , छोटे बच्चों को बहुत कठिनता से पालन करना पड़ा था उन्हें ।

बड़ी माँ (दादी) का बाल विवाह हुआ था ।सात साल की थी विवाह के समय। अल्प आयु में ही अति बुद्धिमती और सहनशीला थी ।परिवार को आगे बढ़ाने में उसका योगदान अवर्णनीय था।दोनों परिवार की लाडली थी मैं ।
साहित्य- जगत विशेषकर संस्कृत जगत के जाज्व्लयमान नक्षत्र डॉ सतीश चन्द्र झा की ज्येष्ठ पुत्री होने का गौरव मुझे प्राप्त है ,उनके विषय में कहना सूर्य को दीपक दिखाने सदृश है ।मेरे पापा मेरे जीवन थे ,मेरे संरक्षक ,गुरु ,मित्र यानी मेरी दुनिया।त्यागमयी ,सहनशीला और ममतामयी मोहिनी झा मेरी माँ कुशल गृहणी ही नहीं हैं बल्कि विद्वान पति के संग रह कर शास्त्र ज्ञानी भी हैं ।मैं छह भाई बहन हूँ ,भाई राजेश ,रत्नेश, बहन रागिनी ,रेखा और रूपा । अपने अपने क्षेत्र में सभी परिवार का नाम रौशन ही कर रहे हैं। इन सबसे अत्यन्त स्नेह मिला है ,सभी स्तम्भ हैं मेरे ।

मैं मुज़फ्फरपुर के स्कूल विद्या बिहार से पढ़ी हूँ । बिहार विश्वविद्यालय के अन्तर्गत एम.. डी. डी. एम. कॉलेज से बी.ए .ऑनर्स की हूँ ,मिथिला विश्वविद्यालय से एम. ए. की हूँ । बिहार विश्वविद्यालय से पी .एच . डी. की हूँ ।संस्कृत से आचार्य भी की हूँ ।बी .ए . में थी तो विवाह बंधन में बंध गयी ।यहाँ भी बड़ी बहू बन सभी के प्यार से अभिभूत थी ।पति की दादी का स्नेह और ममता मिला ।देवर और दो बड़ी ननदों का स्नेह मिला । माता पिता सदृश सास ससुर मिले । ससुर का नाम श्री विष्णु चंद्र झा है ,बहुत ही सरल और धीर गंभीर थे ।तीनों कुल की लाडली बन जीवन व्यतीत कर रही थी ।पति का नाम दुर्गेश नंदन झा है ।अभियन्ता हैं ।पग पग पर साथ देते हैं , यहीं रजनी से रजनी दुर्गेश बन गयी ।अपनों के स्नेह डोर से बंधी एक पुत्र की गरिमामयी माँ बन गयी ।पीयूष झा नाम है ।तीन पीढ़ियों से चली आ रही अभियन्ता की परम्परा का निर्वाह मात्र किया , उसने मीडिया में जाने की इच्छा जताई , उसकी इच्छा का मान रखते हुए हमने स्वीकृति दे दी । इण्डिया टुडे से कर्मयात्रा आरम्भ करते हुए सी .एन. एन . से होते हुए वी .आन.में ‘लेटस गेट रियल ‘ का ५० से ज्यादा शो का एमसी बन ख्याति प्राप्त कर वर्तमान में ब्रूट इंडिया में कार्यरत है ।
घर भर का बड़ा होने के कारण सबका चहेता है ।
पति के ट्रांसफर के जॉब के कारण विविध शहरों के रीति- रिवाज़ों से अवगत होने का अवसर मिला है । चेन्नई में शिक्षिका रही हूँ कुछ समय , तत्पश्चात कुछ दिन कॉलेज में लेक्चरर भी रही । बेटे के अध्ययन में व्यवधान के कारण मैं नौकरी छोड़ स्वेच्छा से लेखन में संलग्न हो गयी ,अमर उजाला ,दैनिक जागरण आदि की ब्लागर हूँ । ऑल इंडिया ओरिएंटल कॉन्फ्रेंस की कार्यकारिणी सदस्या विगत ७ वर्षों से हूँ ।

मेरी प्रथम प्रकाशित पुस्तक है ‘संस्कृत -साहित्य में स्वप्न संसार ‘। बड़ी माँ ,उपवन ,कालिंदी ,अमृत-सुधा ,तपस्विनी ,मेरी कहानी आदि ई बुक पर उपलब्ध है । मैं साहित्य सागर ग्रुप से जुड़ी, यहाँ परिवार सदृश स्नेह मिला है ।लेखन संवरा यहाँ ,विविध विषयों पर लिखने का अवसर मिला ।इनके द्वारा प्रकाशित साझा संग्रह में ९ पुस्तकों में कविता और कथाएँ छप चुकी है ।जीवन में बड़ी माँ के जाने से बहुत आहत हुई थी , मदर टेरेसा की प्रतिरूप थी वह ।बहुत ही ममतामयी और त्यागमयी थी वह . ,उसकी याद में ही’ बड़ी माँ’ लिखी थी ।तीन साल बाद भांजी नानू को खो कर मैं बहुत ही दुःखी हुई थी ।

पटरी पर गाड़ी आ गयी थी । सभी कुछ अच्छा चल रहा था ससुराल में भांजे भांजियां यानी सभी बच्चे मुकाम पा लिए थे , ,भतीजा विशाल का आई .आई .टी .में चयन हो गया था ,बहन का बेटा प्रत्यूष मुकाम पा रहा था ,मेरे बेटे पीयूष का टी.वी . पर शो आ रहा था .मेरे पापा को तो जैसे जहाँ मिल गया था ।
अचानक १ जनवरी २०१८ काल बनकर आया हमारे लिए । असमय हमने पापा को खो दिया ।प्राणप्रिय पिता को खो कर मुझे ऐसा लगा जैसे प्राण निकल गया हो । हम सभी दर्द से छटपटा गये ।ईश्वर किसी पुत्री को ऐसी सजा न दें ।माँ को संभालना था वह हर्ट पेसेंट है ,१ साल पहले ओपन हर्ट सर्जरी हो चुकी थी । सब भाई बहन एक दूसरे का मुख देख धैर्य धारण किये । एक दूसरे का सम्बल बन इस पीड़ा को झेलने का प्रयास किये ।बाबूजी ( ससुर) का वह ममत्व भरा हाथ भी दवा का काम किया ।करीब दो साल बाद उन्हें खो कर एक बार फिर पितृ -सुख से वंचित हो गयी ।असहनीय पीड़ा हुई ,पापा का घाव भी हरा हो गया पुनः ।

जीवन चलने का नाम है ,एक बार फिर उठी ।अपनी सास की सेवा हेतु उनका सम्बल बनने ससुराल कुछ दिन रहने गयी ।एक दिन भी नहीं गुजरा कि कुछ अपनों के तीखे बाणों ने ऐसा घायल किया कि मैं घोर अवसाद में चली गयी । पहले से मानसिक व्यथा से गुज़र ही रही थी ,शब्दों के तीर ने धराशायी कर दिया । डाक्टरों की भीड़ ने भी लाभ नहीं पहुँचाया, जितना मायके वालों ने । सभी भाई बहन ,भाभियों ,बहनों के पति और सभी बच्चे ने दवा का काम किया । एक बार पुनः माँ ने जीवन दान दिया ।पग पग पर पति ने साथ दिया ।बेटे ने भी ।पति हरिद्वार ले आये ,अपना सब कुछ छोड़ कर ।यहाँ उनके देख रेख के कारण स्वस्थ हो गयी ।मेरी दोस्त कंचन और शोभा का योगदान अविश्मरणीय है ।भांजी रेखा का स्नेह ने भी मुझे सम्बल दिया । अवसाद से उबरने में मुझे मेरी लेखन ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है ।साहित्य- सागर से तो जुडी थी ही ,लघुकथा लोक से जुड़ी ,वहाँ मुझे’ लघुकथा रत्न ‘ सम्मान से नवाज़ा गया । यह सब उस समय मेरे लिए टॉनिक की तरह काम कर गया ।फिर तो कारवां चल पड़ा ,हिंदी प्रतिमान से ,भी ।

साहित्यनामा ,प्रतिलिपि ,साहित्य सुधा ,मैथिली समूह आदि से प्रेरित होती हुई मेरी अवसाद लगभग समाप्त हो गयी ।बहन की बेटी प्राची का मेडिकल में जाना ,प्रथम का आई .आई . टी .में चयन ,राहुल ईप्सिता और ईशिका का अपने अपने वर्ग में प्रवीण होना ,भतीजी श्रेया का वनस्थली में चयन , सभी देवरों के बच्चों की प्रगति आदि बातों ने मेरा मनोबल ही नहीं बढ़ाया बल्कि अवसाद में भी राहत दिलाई ,विशेषकर बहन- बेटी ईप्सिता के मधुर गाये गीतों ने भी प्रभावित किया ।
ये है मेरी दुनिया ,मेरी दुनिया तो बहुत बड़ी थी ‘बसुधैव कुटुम्बकम में विश्वास था । कुछ कुटिल लोगों के कारण मैंने अपनी दुनिया समेट ली । अपने खोल में सिमट गयी ,धन्यवाद उनलोगों का जिन्होंने मेरे भ्रम को जल्दी तोड़ मुझे जीवन की सच्चाई से अवगत करवा कर एक सीख दे दिये और मैं मिथ्या मोह — जाल से निकल अपनी दुनिया बना ली ,और मैं अब प्रसन्न हूँ । स्वार्थ की दुनिया से दूर तो हो गयी .अपने लिए कुछ सोची तो .अन्यथा मैं नदी की तरह बहती ही रहती .कभी सागर के विषय में सोचती भी नहीं ,आज अपने पराये में भेद को तो समझ सकी.अब मेरे जीवन में वही हैं जो मेरे विपरीत परिस्थिति में संग रहे. ,यही मैं और मेरी दुनिया है ।

गृहस्वामिनी से मिलकर तो नवजीवन ही मिल गया ।विशेषकर अर्पणा जी के कारण एक और उड़ान भरने का अवसर मिला ।अब तक की यही दुनिया है ,आगे की दुनिया में कितने लोग जुड़ेंगे ? ये तो राम ही जानें । कोई सेलिबर्टी तो हूँ नहीं , साधारण नारी हूँ पर असाधारण बनने के लिए प्रयासरत हूँ ।

डॉ .रजनी दुर्गेश
साहित्यकार
हरिद्वार

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