पटना विमेंस कॉलेज और मेरा क्रिकेट का खेल
साल १९७६: मैट्रिकुलेशन के रिजल्ट आ गए थे . मार्क्स बहुत अच्छे थे और लगता था पटना साइंस कॉलेज में एडमिशन हो जायेगा . घर में इसकी चर्चा थी. घर में लोग मुझे डॉक्टर का करियर चुनने की सलाह दे रहे थे.पहले से भी मेरे अपने चाचा और कसिन डॉक्टर थे.पापा जमींदार के साथ साथ आकडेमिसिअन भी थे. हम पटना पहुंचे . वहां पता लगा कि पटना विमेंस कॉलेज में क्रिकेट टीम है . मैं बहुत सारे खेलों के साथ क्रिकेट भी खेलती थी और मुझे बहुत पसंद भी था .खेल मेरा जीवन था. फॉर्म मैंने दोनों जगह भर रखे थे . मैं पहले पटना विमेंस कॉलेज पहुंची . पापा ने हमें स्वतंत्र काम करने की ट्रेनिंग दे रखी थी . मैं अकेले ही थी . जब मेरा नंबर आया तो प्रिंसिपल के कमरे में गयी . आत्मविश्वास से भरी हुई . सामने सिस्टर लूसिल जो उस समय प्रिंसिपल थी और सिस्टर लिसेरिया जो बाद में मेरी फवरेट टीचर बनी और कॉलेज की प्रिंसिपल भी बनी , दोनों थे .काफी बातचीत के बाद उन्होंने मुझसे पूछा क्या खेलती हो ? मैंने कहा बहुत सारे गेम्स एंड स्पोर्ट में रूचि है ! लेकिन मैं क्रिकेट बहुत पसंद करती हूँ .
सिस्टर लिसेरिया उन दिनों क्रिकेट की इंचार्ज थी और टीम बनाने में लगी थी . सच पूछो तो पटना विमेंस कॉलेज के नाम को आसमान की बुलंदियों पर ले जाने में उनका योगदान सराहनीय है। उन्होंने मुझसे कहा तुम्हारा एडमिशन कॉलेज और हॉस्टल दोनों में हो गया . तुम फीस भर दो और घर जाने से पहले अपने पेरेंट्स को बुलाओ . तुम मैदान पर चल कर क्रिकेट का ट्रायल दो . मैं विश्वास से भरी मैदान में पहुंची . स्कूल के बाद भाई और उनके दोस्तों के साथ खेलती थी . मोहल्ले में शीशे तोड़ने के लिए मशहूर थी . सचमुच अच्छा खेला . सिस्टर बहुत खुश हुईं . मैं क्रिकेट टीम में आ गयी और भी साथी आये . मैं हॉस्टल में भी आ गयी . साइंस की क्लास के साथ क्रिकेट भी खेलती थी . क्रिकेट मेरा जूनून था . 3 बजे प्रैक्टिकल क्लास के बाद सीधे फील्ड में प्रैक्टिस के लिए जाती थी .
शुरू में तो मेल कोच थे मगर बाद के साल में दिल्ली से एक महिला कोच सुनीता शर्मा अपॉइन्ट हुईं . बाद में वह नेशनल कोच बन कर दिल्ली आ गयी । हम खेलते तो थे अच्छा मगर अपनी शैतानियां नहीं छोड़ी . बहुत प्रैंक करते थे . कोच सख्त थी . सजा के तौर पर मुझे मैदान के चारो ओर चक्कर लगवा देती थी . मैं थक कर एक दिन गिर गयी . और दोस्तों ने उन्हें ब्लेम करना शुरू किया . मुझे लगा यह सही नही. मैंने उठ कर माफ़ी मांगी . उस दिन से वो मेरी दोस्त बन गयी . मैं खेलती अच्छा थी . पटना विमेंस कॉलेज का मगध महिला कॉलेज से मैच हुआ . दोनों कॉलेज में बहुत रिवलरी थी . स्टाइल में तो वो हमसे मैच नहीं कर पाते थे मगर टीम उनकी भी अच्छी थी . काटे की टक्कर होती थी .हमारी सीनियर अंजलि शर्मा जो कप्तान थीं , आभा , आइडा कुजूर , रमा जया( मेरी बहन ) और मैं ये सभी उम्दा खिलाडी थे और टीम की बैटिंग तो सम्भाल लेते . आभा पेस बॉलर, आइडा स्विंग , और मैं मध्यम पेस बॉलर थे . एक हिटर और आयी थोड़े दिन के लिए, जकया . कभी हम जीतते कभी वो मगर बाद में हमारी टीम ने इम्प्रूव कर लिया और हम लगातार जीतने लगे . दो साल बाद मैं कप्तान बन गयी . बहुतों को लगा मैं सुपरसीड कर गयी . मगर मैं जानती थी ये मेरा डेडिकेशन था , सिस्टर और कोच के प्यार और विश्वास के साथ . पटना के अखबारों में मेरी खबरे छपने लगी ।
पटना में मेरे फैंस की तादाद भी बढ़ने लगी । कॉलेज में भी बहुत पॉपुलर हो गयी। बहुत लोग यह नहीं जानते कि एक बार गर्मी कि छुट्टियों के बाद जब मैं हॉस्टल पहुंची तो सिस्टर लिसेरिया मेरे कमरे में सैकड़ों चिट्ठियों का पुलिंदा ले कर पहुंची जो लड़कों ने लिखी था। उन दिनों बहुत सख्ती थी। मैंने उनको बताया कि मैं इनमे से एक को भी नहीं जानती। उन्होंने मुस्कुरा कर कहा अच्छा तो ये फैन मेल है। वह आश्वस्त हो गयी और उनके मन में मेरे लिए प्यार और सम्मान बढ़ गया जो आज भी हम दोनों के बीच है। मैं उनकी लिखी एक चिट्टी शेयर कर रही हूँ।
अब हम अन्तर कॉलेज लेवल नहीं डिस्ट्रिक्ट लेवल पर खेल रहे थे . तभी ईस्ट जोन ऑफ़ इंडिया की सिलेक्शन के लिए सेलेक्टर्स जमशेदपुर से आये और हममे से पांच को सेलेक्ट किया . उसमे माउंट कार्मेल स्कूल जो मेरा शुरूआती स्कूल था , की शर्मिष्ठा भी थी . हम जमशेदपुर पहुंचे मैच हुआ . वह जा कर लगा की लड़कियां हमसे भी ज्यादा अच्छा खेलती है . वहां रांची , जमशेदपुर और बंगाल से भी प्लेयर्स थी . कम्पटीशन टफ था . सच पूछ तो हम बहुत अच्छा नहीं कर पाए . हाँ एक सर्टिफिकेट ज़रूर मिल गया ईस्ट जोन ऑफ़ इंडिया टीम का . अगले साल दुबारा हम खेलने पहुंचे मैच थे । यहाँ हमे शान्तारंगस्वामी जो भारत की कप्तान थी, डायना एडुल्जी जो शांता के बाद कप्तान बनी, संध्या मजूमदार, लोपा मुद्रा, गार्गी चटर्जी इत्यादि के साथ खेलने का मौका मिला। वो सब हमसे कहीं ज्यादा अच्छा खेलते थे तभी तो इंडियन टीम में थीं। मैं खुश नहीं थी . मुझे लगा अब कुछ नहीं होगा . पढाई भी सफर कर रही थी . घर में पापा तो प्रोत्साहित करते थे मगर चाचा नाराज थे . साइंस की पढाई छोड़ कर हिस्ट्री होनोर्स ले लिया ताकि क्रिकेट कंटिन्यू रख सकूं . पढ़ने में अच्छी थी . कोई खास दिक्कत नहीं थी.सबको लगता था कि जो गेम मैंने पार्ट टाइम के लिए चुना था उसे मैंने फुल टाइम बना लिया है। आये दिन अन्तर कॉलेज, डिस्ट्रिक्ट, रीजन मैच खेलती थी। बी ए की परीक्षा हो गयी थी और पटना डिस्ट्रिक्ट का टूर्नामेंट भी चल रहा था। लीग के कुछ मैच मैं मिस कर गयी थी फिर भी सिस्टर लिसेरिया ने मुझे कप्तान की जगह दी।
मेरा सिलेक्शन ५० प्लेयर्स में आगे के लिए हो गया था और गोरखपुर ट्रेनिंग के लिए जाना था। तभी घर से खबर आयी कि पापा बीमार हैं । जल्दी आ जाओ। घर पहुंचे। जया मेरी बहन भी मेरे साथ थी। वहां जा कर देखा पापा बहुत बीमार थे ऑक्सीजन पर थे। सभी भाई बहन पहुंच चुके थे। माँ बहुत घबराई हुई थी। पापा कि उम्र सिर्फ ४८ साल और माँ कि ४१ इयर्स थी। हमें लगा हमारी दुनिया ही खत्म हो जाएगी। पापा को दिल्ली आल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंस में शिफ्ट किया गया। महीने भर कि जद्दो जहत के बाद पापा इस दुनिया से चले गए। हमारी जिंदगी चली गयी। हमारा मान अभिमान स्वतंत्रता सभी कुछ पापा थे। उस काल में लड़कियों को पूरी स्वतंत्रता दे कर उनका आत्मविश्वास बढ़ाना कोई छोटी बात नहीं हो सकती थी वो भी जब हम एक फ्यूडल बैकग्राउंड से आते थे। पापा तो चले गए मगर आगे जीने का आत्मविश्वास दे गए।
क्रिकेट तो छूट गया और मैं माँ और भैया कि सलाह पर दिल्ली पढ़ने आ गई। माँ अकेले रह कर भी हम पांच भाई बहनो के लिए स्तम्भ बनी रहीं और हमारी जिंदगी में बदलाव नहीं आने दिया। पर क्रिकेट पीछे छूट गया।शौकिया अपने दोस्तों और बाद में अपने बेटे और उसके दोस्तों के साथ और अपने स्टूडेंट्स के साथ खेलती रही हूँ।
डॉ.विजय लक्ष्मी सिंह
एसोसिएट प्रोफेसर
दिल्ली यूनिवर्सिटी